शुक्रवार, 29 जून 2018


आपबीती, दुर्घटना के बाद                                                                                         

लगभग तीन-चार सप्ताह गुजर चुके है। कितने  दिन बीते गए हैं ऐसे सन्नाटे में, अब तो मैं यह गिनना भी बंद कर चुकी हूँ। लेकिन जब शुरुआत हुई थी, मुझे लगता था कि भगवान मुझे कौन से पाप की  सजा दे रहा है। इस छोटी सी उम्र में मुझे सुनना बंद हो गया! हर रोज सुबह -शाम, दिन - रात मैं रोती रहती थी और अपने आप को शापग्रस्त अनुभव करती थी। मैं सोचती रहती लाभ होगा या नहीं? सुन पाऊँगी या नहीं? मेरे और मेरे बच्चों के भविष्य का क्या होगा? मैं परिवार में रह पाऊँगी या नहीं? सब नकारात्मक विचार दिमाग में घूमते रहते थे। कहीं कोई भी सकारात्मक विचार नहीं आता था।  लोग बोलते कि हिम्मत मत हारो, सब ठीक हो जाएगा। तब और ज्यादा तनाव होता था। लगता था कि ऐसी कोई बात हो गई है जिस के कारण शायद अब मेरी आगे की जिंदगी समाप्त हो चुकी है।

लेकिन एक दिन अचानक लगा की अभी कुछ सुनाई नहीं देता है और पहले इतना कुछ सुनाई देता था कि ध्यान कर ही नहीं पाती थी। इतनी आवाजों के कारण मन एकाग्र नहीं होता। लेकिन अभी तो मेरे पास कोई आवाज नहीं है, तब ध्यान ही किया जाय। और बस शुरू हो गई। शुरू शुरू में दिक्कत तो हुई, क्योंकि अपने आप को इस अपराधबोध से निकालना कि “मैंने ऐसा क्या पाप किया है” एक बहुत कठिन कार्य था। जब भी ध्यान करने बैठती रोना छूटने लगता था। लेकिन धीरे धीरे साध गया।

मैं बच्चों को पढ़ाया करती थी और इस दौरान मैंने बच्चों को पढ़ाना बंद नहीं किया। मेरा बच्चों के साथ का समय सबसे अच्छा समय है। एक घंटा हो या दो, शुरुआत में मुझे तकलीफ होती थी उन्हे समझने में, उन्हे समझाने में। हमें झुंझलाहट होने लगती थी। उनके आने के एक घंटे पहले से उनका इंतजार रहता था कि हाँ अब वे आने वाले हैं। उनके जाने के बाद थोड़ी थकान हो जाती थी तब मैं सो जाती थी। इससे मेरे दिन के ४-५ घंटे सुंकून से निकल जाते थे।

धीरे धीरे बच्चों के साथ रह कर मुझ में बहुत सकारात्मकता आ गई। जो मुझे पाप लगता था अब मुझे लगने लगा कि यह तो मेरे अच्छे कर्मों का फल है। क्योंकि कोई भी बच्चा चाहे वह इस कप्लेक्स का हो या बाहर का हो, मैं सब को ऐसे ही देखती थी जैसे वह मेरा अपना खुद का बच्चा हो। मैं उनके लिए बहुत करती थी। उनके बारे में सोचती रहती थी कि वो क्या करेगा, कैसे करेगा, कैसा करेगा, ठीक होगा कि नहीं होगा? हर चीज में घुस घुस कर देखती और सोचती थी। लेकिन कभी कभी मेरे मन में प्रश्न उठता था, “क्या ये बच्चे सचमुच में मुझ से इतना प्यार करते हैं जितना प्यार मैं उनको करती हूँ? मैं जितना लोगों का करती हूँ, उन लोगों के बारे में सोचती हूँ क्या उसका एक प्रतिशत भी वे लोग मेरे बारे में सोचते भी हैं? क्योंकि दुनिया यही कहती है कि सब मतलबी हैं। अब, मुझे लगता है कि भगवान ने मुझे समय दिया कि जा खुद ही देख और समझ ले। अब चूंकि मुझे सुनाई देता नहीं है अत: लोगों के मैं समझ पा रही हूँ। आप चाहे जो भी बोलें मेरे लिए, मुझे कहीं न कहीं चेहरे पे ऐसा कुछ नजर आ जाता है जो मुझे बता देता लगता है कि नहीं यह दिखा कुछ और रहा है, बोल कुछ और। सच्चाई जानने का मेरे जिंदगी में इससे बढ़िया मौका शायद और कोई नहीं है।

पहली उपयोगिता लोगों की पहचान। साधारणतया यह अवस्था ५०-६० वर्ष की उम्र में आती है। तब, जब हम बहुत कमजोर हो जाते हैं, मानसिक या शारीरिक रूप से। बहुत लोगों को तो मृत्यु शैय्या पर यह अनुभव होता है कि कौन आपका शुभचिंतक है, किसका आपको सहारा है? लेकिन अब भगवान मुझे अपने आप बता देते हैं कि देख-देख ये तेरे बारे में क्या कहते हैं, “मैं तुम्हारे लिए हर मुसीबत में खड़ा रहूँगा” लेकिन सोचते क्या हैं? बहुत लोग थे जिनसे मुझे आशा थी लेकिन उन्होंने मुझे एक संदेशा तक नहीं भेजा। अब मेरे लिए यह अलग अलग करना इतना आसान हो गया है। मुझे उन लोगों से कोई असुविधा नहीं है, शिकवा नहीं है, नकारत्मकता नहीं है लेकिन मेरे लिए यह एक आत्मबोध है, अनुभूति है।  मिलना तो अब भी उन सौ से ही है, लेकिन अब देखना सिर्फ दस को है। उन सौ के कारण मेरे पास हर समय समय की किल्लत रहती थी अब उन दस को मैं समय दे पाऊँगी।

दूसरी उपयोगिता जो मुझे  अब समझ में आई कि मैं जो यह सोच रही थी,  “भगवान मुझे न जाने कौन से पाप की सजा दे रहे हैं” अब तो मुझे यह पाप की सजा लग ही नहीं रही है। मुझे तो यह लग रहा है कि यह तो मुझे मेरे अच्छे कर्मों का फल मिल रहा है। आप लोग जो भी पूजा पाठ, मंत्र जाप हवन आदि के बारे में इसे पाप समझ कर सोच रहे थे, ऐसा अब मत सोचिए। मुझे विश्वास है कि जिस दिन भगवान चाहेगा उस दिन यह ठीक हो जाएगा। भगवान ने हो सकता है मुझे कुछ दिनों के लिए ही ऐसा बनाया हो ताकि मेरी बेबुद्धि वाली जितनी बातें थीं वे सब ठीक हो जाए। मुझे सब समझ आ जाए। और मुझे एक नई जिंदगी मिल जाए। सबसे अच्छी बात यह है कि मैं अब किसी से भी, चाहे वे कुछ भी करें, घृणा नहीं करती। कोई, कब, क्या, कैसे करता है? नहीं पता। वह केवल कुछ परिस्थितियों के वश कुछ करता है। हम लोग इसे लेकर इसका इतना विश्लेषण करते हैं, क्यों करते हैं? हम क्यों अपने आप की जांच नहीं करते? क्या हम अपनी तरफ से अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं? अब सब मैंने देखा, समझा, अनुभव किया। जिसे शायद लोगों को अपनी पूरी जिंदगी में नहीं मिलती, वह मुझे अभी ही इतने सहज रूप में मिल गई।

तीसरी, “जियो दिल से, दिल खोल कर” का पूरा अर्थ समझ में आ गया। जो सुनना था सुन लिया, हो सकता है अब और कुछ नहीं सुन सकूँ। लेकिन मैंने दिल खोल कर जिया। दिल के अरमान कभी कल के लिए नहीं टाला। हर वह चीज की जिसकी तमन्ना थी। पता नहीं, जिंदगी न मिले दोबारा।

मैं बहुत बहुत खुश हूँ कि ईश्वर ने मुझे इस उम्र में मुझे यह मौका दिया कि मैं यह समझ सकूँ। हे ईश्वर आपको ध्न्यवाद है। आपको धन्यवाद  सब कुछ के लिए। उन सब के लिए जो अपने किया या नहीं किया, जो दिया या नहीं दिया।

शुक्रवार, 22 जून 2018

सामाजिक अस्पताल की दास्तान                                                                                   

मैं भारत के चार महानगरों मे से एक, कोलकाता में रहता हूँ। यहाँ समाज सेवी संस्थाओं के अस्पतालों की कमी नहीं है। कइयों मे कई बार काम भी पड़ा। अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। सफाई एवं अनुशासन के अलावा रख रखाव, व्यवहार, रोगी की समुचित देख भाल में भी कमी नजर आती है। इसके लिए डाक्टर तथा प्रशासन का बेरुखा व्यवहार तो दोषी है ही लेकिन इसके साथ साथ जनता भी कम दोषी नहीं है। शांत वातावरण बनाए रखना तथा गंदगी न फैलाना जनता के हाथ में है। सफाई तभी रखी जा सकती हैं जब गंदगी  न की जाए। शांति भी शोर न मचाने से ही रहती है। डॉक्टरों में अपनापन तथा प्रशासन में समर्पण की कमी है। जनता में धैर्य का अभाव तथा हिंसा की प्रवृत्ति ज्यादा है।

मेरे निवास के नजदीक ही एक ऐसी ही सामाजिक संस्था द्वारा संचालित वृहद अस्पताल है। विशाल एवं स्वच्छ भी। रोगियों की अधिकता के कारण भीड़ तथा शोर का होना स्वाभाविक है। कैंटीन तथा चाय-नाश्ता वालों की गंदगी एवं शोर अस्पताल के बाहर तक ही सीमित है। अस्पताल की अपनी दवा की दुकान भी है जहां हर समय भीड़ लगी रहती है। व्यवस्था अच्छी है। रोगी अधिकतर अनपढ़ या गरीब हैं। अत: लिखे पूरजे के अनुसार दवा निकालने के बाद पहले एक व्यक्ति रोगी को दवा कैसे लेनी है, यह समझता है तथा दवा का मूल्य बताता है। इसके बाद रोगी की  रजामन्दी पर बिल बनता है तथा भुगतान लिया जाता है।

मेरे ६ वर्ष के नाती ने खेलते हुए अपने हाथ के अंगूठे में स्टैप्लर की पिन घुसा ली। पिन भी इस कदर घुसी कि उसे खींच कर निकालने का उपाय नहीं सूझ पड़ा। पास ही दवा की दुकान पर ले गया कि शायद उनके पास ऐसा कोई मेडिकल औज़ार हो जिससे पकड़ कर उसे बाहर निकाल दें। देखने के बाद उसने बगल के उसी सामाजिक अस्पताल में ले जाने की सलाह दी। नैनीताल के सरकारी अस्पताल के ताजा सुखद अनुभव के कारण मैं बच्चे को लेकर वहीं पहुँच गया। साफ सुथरे तथा लोगों से भरे प्रांगण को पार कर एमेरजेंसी में पहुंचा। डाक्टर ने देखा लेकिन कुछ भी करने से इंकार कर दिया। मैं ठगा सा खड़ा रह गया। उसने सुझाव दिया कि मैं उसका एक्स -रे करवा कर ओ. टी.  में ले जाऊँ। वहाँ भी बेहोश  कर ही निकालने का प्रयत्न किया जा सकता है। उसके इस भारी भरकम सुझाव पर मन ही मन उसे कोसता बाहर निकला। कमरे के दरवाजे पर ही खड़े व्यक्ति ने, शायद दरवान या सहायता कर्मचारी था, जिसने मुझे उस डाक्टर तक पहुंचाया था, मुझे रोका, “मैं कोशिश कर के देखूँ”। मेरे चेहरे के प्रश्न  चिन्ह को पढ़ते हुए आगे बोला, “खींच कर निकाल दूँगा। अगर पिन अंदर से मुड़ी नहीं होगी तो आराम से निकल जाएगी। लेकिन अगर मुड़ी होगी तो दिक्कत हो सकती है। मेरा ख्याल था कि पिन मुड़ी नहीं है। मैं तुरंत तैयार हो गया। उसने  स्पिरिट से  बच्चे के अंगूठे को साफ किया तथा  भोथरी कैंची से पिन को खींच कर बाहर निकाल दिया। एक दवा लगा कर पट्टी कर दी तथा टिटेनस की सूई दिलवाने की सलाह दी। मैंने कृतज्ञता वश उसे कुछ रुपए दिये और मिनटों में हँसते खेलते बच्चे को लेकर वापस आ गया।


लेकिन इधर मेरे दिमाग में अभी तक कई प्रश्न उथल पुथल मचा रहे हैं, जिनका उत्तर मुझे नहीं मिल रहा है। डाकटर ने इतनी लम्बी-चौड़ी सलाह क्यों दी? ऐसे सामाजिक अस्पताल में लाया गया रोगी क्या इतना खर्च वहन  कर सकता है?  उसने किसी भी प्रकार की सहायता करने से साफ इंकार क्यों किया? क्या इतनी सावधानी बरतना लजामी था? या वह सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारी को टाल रहा था? ऐसे लोग हों तो स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का धंधा तो बड़े ज़ोर शोर से चलेगा। 

शुक्रवार, 15 जून 2018

एक सरकारी अस्पताल की दास्तान                                                                      

नैनीताल के मल्लीताल से बारा पत्थर की तरफ आगे बढ़ें। बारा पत्थर पर बाईं तरफ एक तीखे घुमाव पर ऊपर चढ़ना शुरू करें। थोड़ी सी चड़ाई के बाद फिर एक तीखा घुमाव दाहिनी तरफ, फिर  सीधे चड़ते चलें। मल्लीताल से लगभग ३ किलोमीटर आगे और नैनीताल  से और ११०० फीट की ऊंचाई पर है श्री अरविंद आश्रम-दिल्ली शाखा का  “वन निवास”। एक रमणीक, शांत, सात्विक स्थान। जून महीने में कई वर्षों से हम करीब ४० व्यक्तियों का दल, पूरे भारत से यहाँ पहुंचता है। हमारे इस दल के अलावा और लोग भी आते हैं। इस वर्ष मेरी पत्नी की तबीयत वहाँ कुछ नासाज हो गई। गले में दर्द तथा हल्का बुखार। कुछ दिन इंतजार किया कि शायद लाभ हो जाए लेकिन नहीं होना था सो नहीं हुआ।  दल की एक और महिला को सर्दी, खांसी और जुखाम परेशान कर रही थी। अत: आश्रम के निवासियों से पूछ ताछ कर मल्लीताल के बी.डी.पांडे अस्पताल में डाक्टर को दिखाने  पहुंचे।  टॅक्सी वाले ने जिस अस्पताल के सामने हमें छोड़ा उसका नाम था राजकीय बी.डी.पांडे जिला चिकित्सालय। समझ आ गया कि यह तो  कोई सरकारी अस्पताल है।

कुछ देर ऊहा-पोह में खड़े रहे कि अंदर जाएं या नहीं। लेकिन दरवाजे पर किसी भी प्रकाए की सरकारी छाप नहीं थी। न कोई गंदगी, न पान का पीक, न शोर गुल, न लोगों का बेवजह जमावड़ा। न चाय वालों की टर्र टर्र, न लोगों की टें टें। अत: आगे बढ़ने लगे। जैसे जैसे आगे बढ़े हम जल्दी ही सहज हो गए। अस्पताल के परिसर में कदम रखा। साफ सुथरा।  लेकिन कहीं कोई दिखा नहीं जिससे पूछूं कि कहाँ और किधर जाना है। एक कमरा  दिखा, पड़दा लगा था। अंदर झाँका। जैसे मैंने बाहर से अंदर देखा, वैसे ही अंदर वालों ने हमें बाहर देखा। फुर्ती से एक सज्जन बाहर आए और हमसे जानकरी लेने के बाद हमें कमरे के अंदर ले गए, “आइए, अंदर आइए। डाक्टर हैं”।  पहले मैं अपनी पत्नी के साथ प्रविष्ट हुआ। डॉक्टर तुरंत उन्हे देखने लगे और उनके साथ बैठे सज्जन ने मुझसे पूछ कर एक खाते में प्रविष्टियाँ कर खानापूर्ति समाप्त की। तब तक डाक्टर का काम समाप्त हो चुका था। उसने पूर्जा तैयार किया तथा हिदायत दी कि अगर इससे लाभ न हो तो अगले दिन प्रथमार्द्ध में आकर ई एन टी विशेषज्ञ को दिखा लें।

जब यह कार्यवाही चल रही थी तब तक  कुछ लोग एक आहत व्यक्ति को लिए अंदर घुसे। गिरने के कारण सर पर चोट लगी थी तथा रक्त बह रहा था। घाव पोंछने पर दिखा कि घाव गहरा है तथा टांके लगाने पड़ेंगे। डाक्टर के कहने पर तुरंत कुछ व्यक्ति उस रोगी की देखभाल में व्यस्त हो गए तथा टांका लगाने की  व्यवस्था करने लगे।  इस बीच डाक्टर ने मेरे साथ आई महिला को भी देखा लिया तथा उसका भी पूर्जा बना दिया। हमें बताया गया कि सरकारी अस्पताल होने के कारण पूरी व्यवस्था नि:शुक्ल है, हमें कुछ भी देना नहीं है। न ही कोई बक्शीष लेने को आतुर दिखा। कुल दस मिनट के अंदर हम दोनों डाक्टर को दिखा  कर बाहर निकल चुके थे। यही नहीं इसी मध्य दूसरे आहत व्यक्ति के माथे पर टांके लगाने की व्यवस्था भी तैयार हो चुकी थी।

हमने सोचा कि इधर-उधर न घूम कर अस्पताल की ही दुकान से दवा ले ली जाय। हम दो मरीजों के पूर्जे के अनुसार कुल ३ दिन की ८ प्रकार की गोलियाँ थी, जिसमें अंटीबाओटिक् (antibiotic) भी थीं। वहाँ से हमें जेनेरिक दवाएं मिली। बिल मिला। हम भौंचक्के रह गए। दो मरीजों के तीन दिन की दवा का मूल्य १०३ रुपए मात्र। किसी भी निजी अस्पताल में यह काम इतने कम समय और मूल्य पर होना असंभव है। इसी भारत में ऐसा भी होता है! यह सोचते हुए एक सुखद आश्चर्य और सुकून को दिल में सँजोये हम चारों बाहर आ गए। दो दिनों में दोनों महिलाएं पूर्ण स्वस्स्थ हो गईं। हमारे अनुभव के सत्यापन के लिए अन्य एक सज्जन दो दिनों के बाद वहाँ पहुंचे। वे भी हमारी ही तरह के अनुभव से अभिभूत हो कर लौटे।


मैं जो नहीं समझ सका वह यह कि यह चमत्कार किस का है? इस अस्पताल का, नैनीताल का या उत्तराखंड का, यहाँ के निवासियों का या यहाँ के प्रशासन का? क्या पूरे नैनीताल या उत्तराखंड में ऐसी ही व्यवस्था तथा लोग हैं? मेरी समझ में तो यह प्रशासन एवं जनता की मिली भगत है। दोनों समान रूप से दोषी हैं। क्यों आप सहमत हैं ना? ऐसे लोग और व्यवस्था हो तो आप ही बताइये धंधे (health is big business) का क्या होगा?


शुक्रवार, 8 जून 2018

इमानदार हैं तो क्या हुआ?                                                                                                       

डाक्टरशम्भूनाथ साहित्य के प्रति लोगों की  बेरुखी की पीड़ा वागर्थ में कुछ इस तरफ व्यक्त करते हैं, “शिक्षित लोगों को साहित्य की जरूरत महसूस न होने की कई वजहें हैं। उनके जीवन और अवकाश के क्षणों को घेरने के लिए सतही मनोरंजन और राजनीतिक चीजें जैसे-जैसे ज्यादा होती गईं, साहित्य का स्थान सिकुड़ता गया। ऐसी चीजें चमक, आकर्षण और भुलावे से भरी होती हैं। आज शिक्षित लोगों को साहित्य की जरूरत इसलिए भी महसूस नहीं होती है कि वे हर चीज को उपयोगितावादी नजरिए से देखने लगे हैं, साहित्य पढ़ कर क्या मिलेगा? कुछ भी करके क्या मिलेगा, यह उपयोगितवाद है जो बुद्धिवाद ही नहीं, मनुष्यता का भी शत्रु है। आज कोई काम करने से पहले आदमी सोचता है कि उसे क्या मिलेगा? यदि न्याय की  बात है, सच बोलना है तो पहला प्रश्न है, क्या मिलेगा? अगर झूठ एक बड़ा दाता है तो आज लोगों की नजर में सच की तुलना में  झूठ की उपयोगिता ज्यादा है। झूठ ही आज का हीरो है, साहित्य जीरो है। कहना न होगा कि सच हर जगह से हार कर साहित्य में ही सांस लेता है।” सत्य बोलना, ईमानदार होना कोई उपलब्धि नहीं है अगर उससे किसी भी प्रकार का अर्थोपार्जन नहीं होता, ख्याति नहीं मिलती। इनका हाल एक वेश्या की तरह है जिसे चाहते सब हैं लेकिन अपनाता कोई नहीं।

श्री अशोक वाजपेयी का दर्द भी लगभग वैसा ही है, “हम बहुत हिसाबी किताबी हो गए हैं। हमारे जमाने में भी अफसरों के बीच में यह बातें होती थीं कि भाई ईमानदार हुए तो क्या हुआहासिल क्या हुआ? वह ऑफिसर ईमानदार है तो न ठीक से उन्नति हुईन ठीक जगह पोस्टिंग हुईन उसका नोएडा में संगमरमर का महल बना। न उसके बच्चे अमेरिका पढ़ने गए। तबईमानदार हो कर क्या कियाजब ऐसी दुनिया बन गई होऐसी मानसिकता बन गई होकि हरेक चीज से कुछ न कुछ हासिल होगा। ईमानदार को क्या जरूरत है और कुछ हासिल करने की? ईमानदार है तो आदमी ईमानदार है। इतना काफी है। लेकिन उसको भी ईमानदारी से कुछ नहीं मिलता तो हमारा ये हिसाबी किताबी दिमाग बन गया है। उसमें साहित्य से भी कुछ नहीं मिलता। क्या हासिल होगाकुछ नहीं। बहुत हुआ तो आप थोड़े बहुत सभ्य हो जाएंगे। फिर वही प्रश्नसभ्य होने से क्या हासिलउस से टालीगंज में कोई बंगला थोड़े ही बन जाएगाहासिल वाली जो जहमीयत है कि हर चीज से कुछ हासिल होना चाहिएतो साहित्य से कुछ भी हासिल नहीं होता। ऑस्कर वाइल्ड ने एक बार कहा थाall artists are useless” (सब चित्रकार बेकार हैं)। यह उसने तंग आकर कहा थाक्योंकि हर कोई पूछता था कि इससे फायदा क्या हैहमको इससे मिलेगा क्यामिलेगा तो कुछ भी नहीं।” यानि कुछ मिले नहीं तो ईमानदार नहीं होना है।

शिक्षण संस्थाएं यह नहीं बताती कि उनके यहाँ शिक्षक कैसे हैं और शिक्षा कि क्या सुवधा उपलब्ध है? बच्चे के सर्वागीण विकास कि क्या सुविधा प्राप्त है? वे तो यह बताती हैं कि उनके यहाँ पढे बच्चे कितना कमा रहे हैं। उन्हे कहाँ नौकरी मिली। जिस दुनिया में शिक्षा का यह उद्देश्य हो वहाँ से पढे बच्चों के लिए पैसा ही सब कुछ होना स्वाभाविक है।
क्या हम ऐसा ही समाज चाहते हैं? एक बार्बर जाति?

मंगलवार, 5 जून 2018

सूतांजली, जून २०१८

  सूतांजली                             ०१/११                      जून २०१८
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बा का जन्म किस दिन हुआ, यह जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन वे  बापू से एक वर्ष बड़ी थीं। बापू की १५०वीं जयंती हम अगले वर्ष मनाएंगे। मतलब, बा का १५०वां जयंती वर्ष चल रहा  है। बापू महिलाओं को अपने संग्राम में जोड़ना चाहते थे और इसके लिए सबसे बड़ी चुनौती थी बा को मनाना। बा बहुत सरल और कोमल हृदय महिला थीं लेकिन साथ ही अपने इरादों की पक्की। उन्हे मनाना आसान काम नहीं था। बापू ने उन्हे कैसे जोड़ा और वे कैसे जुड़ीं?  बा को समर्पित है श्री विष्णु प्रभाकर का लिखा यह प्रसंग।

दक्षिण अफ्रीका में एक दिन बा रसोईघर में कुछ बना रही थीं। गांधीजी कुछ और काम कर रहे थे। सहसा उन्होने कस्तूरबा से पूछा, “तुझे पता चला या नहीं”?
बा उत्सुक स्वर में बोली, “क्या”?
गांधीजी ने हँसते हुए कहा, “अब तक तू मेरी विवाहिता पत्नी थी, लेकिन अब नहीं रही”।
बा ने चकित होकर उनकी ओर देखा और पूछा, “ऐसा किसने कहा? आप तो रोज नई नई बातें खोज निकालते हैं”।
गांधीजी बोले, “मैं कहाँ खोज निकालता हूँ। वह जनरल स्मट्स कहता है कि ईसाई विवाहों की तरह हमारा विवाह सरकारी अदालत के रजिस्टर में दर्ज नहीं हुआ है, इसलिए वह गैर कानूनी माना जाएगा और तू मेरी विवाहिता पत्नी नहीं, बल्कि रखैल मानी जाएगी”।
बा का चेहरा तमतमा उठा। बोली, “उनका सिर! उस निठल्ले को तो ऐसी ही बातें सूझा करती हैं”।
गांधीजी ने पूछा, “लेकिन अब तुम स्त्रियाँ क्या करोगी”?
बा बोलीं, “आप ही बताइये, हम क्या करें”?
गांधीजी जैसे यही सुनने के लिए तैयार बैठे थे। तुरंत बोले, “हम पुरुष जिस तरह सरकार से लड़ते हैं वैसे ही तुम स्त्रियाँ भी लड़ो। अगर तुम्हें विवाहिता पत्नी बनना हो और अपनी आबरू प्यारी हो तो तुम्हें भी हमरी तरह सत्याग्रह करके जेल जाना चाहिए”।
बा ने अचरज से कहा, “मैं जेल जाऊँ? औरतें भी कभी जेल जा सकती हैं”?
“औरतें जेल क्यों नहीं जा सकती? पुरुष जो सुख दुख भोगेंगे वे स्त्रियाँ क्यों नहीं भोग सकती? राम के साथ सीता, हरिश्चंद्र के साथ तारामती और नल के साथ दमयंती, इन सभी ने वनों मे अपार दुख सहे थे”, गांधी ने कहा।
बा बोली, “वे सब तो देवताओं जैसे थे। उतनी शक्ति हममें कहाँ”?
गांधीजी ने उत्तर दिया, “हम भी उनके जैसे आचरण करें तो देवता बन सकते हैं। मैं राम बन सकता हूँ और तू सीता बन सकती है। सीता राम के साथ न गई होती, तारा हरिश्चंद्र के साथ न बिकी होती और दमयंती ने नल के साथ कष्ट न उठाए होते तो उन्हे कोई भी सती नहीं कहता”।
यह सुनकर बा कुछ देर चुप रही। फिर बोली, “तो फिर आपको मुझे जेल भेजना ही है। जाऊँगी मैं, जेल भी जाऊँगी। लेकिन जेल का खाना क्या मुझे अनुकूल आयेगा?”
गांधीजी बोले, “जेल का खाना अनुकूल न आए तो वहाँ फलों पर रहना”।
बा ने पूछा, “जेल में सरकार मुझे फल खाने देगी”?
गांधीजी ने कहा,  “न दे तो उपवास करना”।
बा हंस पड़ी, “ठीक है, यह आपने मुझे मरने का अच्छा रास्ता बता दिया। अगर मैं जेल गई तो जरूर मर जाऊँगी”।
गांधीजी खिलखिला पड़े और कहा, “हाँ-हाँ। तू जेल में  जाकर मरेगी तो मैं जगदंबा की तरह तेरी पूजा करूंगा”।
बा दृड़ स्वर में बोली, “अच्छा, तब तो मैं जेल जाने को तैयार हूँ”।

उस समय कौन जानता था कि बा-बापू होनी की ही बात कर रहे थे। २२ फरवरी १९४४ को संध्या ७.३५ पर आगाखान महल की कारा में ही बा ने देह त्याग किया।
गांधी अभी हारे नहीं हैं?
बाहुबली का जमाना है। सब अपनी अपनी शक्ति,  शक्ति यानि हथियार या धन, बटोरने में लगे हैं। जिसके पास ज्यादा शक्ति वही सर्वशक्तिमान। उसी की चलती है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। सत्य हो या अहिंसा, शिक्षा हो या धर्म सब इसी के सामने घुटने टेकते हैं। गांधी? हाँ, कहने सुनने में भले  ही अच्छा लगता हो, सत्य-अहिंसा, लेकिन अब उसका क्या काम? इन सबसे कुछ होनी जानी नहीं  है। जब तक लाठी नहीं पड़ती अक्ल ठिकाने नहीं लगती। बंदूक कनपट्टी पर रखो या जेब गर्म करो तब सब काम खुद-ब-खुद हो जाते हैं, नहीं तो घिघियाते रहो, हाथ जोड़ते रहो कुछ नहीं होता।

मेदिनीपुर, बंगाल। जन-जाति का शिकार करने का त्योहार। ५००० जन जाति के लोग लाठी, कुल्हाड़ी, तीर-कमान लेकर तैयार खड़े हैं जंगल में घुसने के लिए। उन्हे अपने रीति-रिवाज का पालन करना है। इस त्योहार पर शिकार करना है। उनके सामने खड़े हैं ३०० वन विभाग के अधिकारी और पुलिस। उन्हे शिकार करने से रोकने के लिए। उनका नेतृत्व कर रही हैं, अतिरिक्त जिला वन विभाग अधिकारी (additional divisional forest officer) श्रीमती पूरबी महतो। किसी भी समय लाठी चलाने का हुक्म दिया जा सकता है। और इसके बाद क्या परिस्थिति रहेगी कोई नहीं जानता। क्या इतने से उन्हे रोक पाएंगे? या फिर अश्रु गैस, गोली, गिरफ्तारी, आगजनी का माहौल बनेगा? लेकिन यह क्या? अचानक श्रीमती महतो आगे बढ़ती है और शिकार पर आमादा जन जाति के अगुआ दिनेन हेम्बरम के पैरों पर गिर पड़ती है। उसके पैरों को पकड़ कर उन्हे सब समझाती हैं और फिर पूरे दृड़ निश्चय के साथ कहती हैं कि इन सबके बाद भी अगर आप शिकार करना चाहते हैं तो उसके पहले अपने तीर कमान से उसे मार डालें फिर जाएँ। और देखते ही देखते पूरा दृश्य बदल जाता है। बिना एक लाठी चलाये, अश्रु गैस छोड़े, गोली दागे ५००० की भीड़  छंट  जाती है। न वन विभाग के इतिहास में ऐसा हुआ और न ही उस जन जाति के इतिहास में। जहां श्रीमती महतो यह कहती हैं कि उनके १७ वर्ष की नौकरी में ऐसा पहली बार हुआ है वहीं दिनेन कहते हैं कि हम पहली बार अपनी मर्जी से वापस लौट रहे हैं।

टेलीग्राफ में प्रकाशित
कमी है अपने विश्वास की, आत्मबल की। अपना अहंकार हम पर हावी हो जाता है और झुकने से इंकार कर देता है। और तब प्रारम्भ होती है हिंसा। कौन है बाहुबली? हिंसा या अहिंसा!
क्या पढ़ें
प्रदीप भट्टाचार्य का उपन्यास मगरमुंहा
“हमारे अकेले के करने से क्या होगा?” का उत्तर है यह उपन्यास। यह आख्यान है एक ऐसे साधारण युवक शिक्षक की जिसने देश की तीन सबसे ताकतवर वर्ग -  राजनीतिक, धार्मिक और औद्योगिक - से बिना जुड़े समाज एवं शहर में रचनात्मक बदलाव का सफलता पूर्वक आगाज किया।  किसी से सहायता मांगने नहीं गया। सब खुद-ब-खुद सहायक बन गए।


ब्लॉग विशेष
अनुपम भाई, उस गांधीवादी परंपरा के खाँटी वारिस हैं, जिसमें रचनात्मक काम को ज्यादा और विचार-पक्ष को कमतर महत्व का माना गया। गांधी ने अपने काम-धाम में और अपने साथ के लोगों में श्रम-साधना को प्रमुखता दी! कहा कि लोगों के बीच जाओ, शिक्षक बनना बंद करो, ज्ञानी बनना बंद करो, सीखो और काम करो। तो एक काम की दुनिया है और एक ज्ञान की दुनिया है। एक लोक ज्ञान है और एक विशेषज्ञों का ज्ञान है। क्या इस दो दुनियाओं के बीच संवाद सेतु बनाए जा सकते है?

अनुपम भाई के देहावसान पर “गांधी मार्ग” का जनवरी-अप्रैल २०१७ का अंक उन्हें समर्पित था। उसी अंक में पंकज पुष्कर का प्रकाशित लेख “लोकशक्ति को माना लोकबुद्धिको नहीं”।  





गाँधी 150

शनिवार, 2 जून 2018


विरोध, बुरे का नहीं, बुराई का                                         

सर्वपल्ली डॉ.राधाकृष्णन मद्रास के एक मिशनरी स्कूल के छात्र थे। वे पढ़ने में काफी तेज थे। वे और बच्चों से अलग, जीवन के महत्वपूर्ण सवालों पर सोचते रहते थे। एक बार उनकी कक्षा में एक ईसाई अध्यापक पढ़ा रहे थे। वे शिक्षक बेहद संकीर्ण मनोवृत्ति के थे। पढ़ाते हुए वे धर्म के बारे में बच्चों को बताने लगे और बताते बताते हिन्दू धर्म पर कटाक्ष करते हुए उसे दक़ियानूसी, रूढ़वादी, अंधविश्वासी और न जाने क्या-क्या कहने लगे।

राधाकृष्णन कुछ देर तक यह सब सुनते रहे फिर उन्होने अपने स्थान पर खड़े होकर अध्यापक से पूछा, सर! क्या आपका ईसाई मत दूसरे धर्मों की निंदा करने में विश्वास रखता है?” एक छोटे से बालक के मुंह से इस तरह की गंभीर बात सुनकर अध्यापक चौंक गए। वे थोड़ा संभल कर बोले, क्या हिन्दू धर्म दूसरे धर्म का सम्मान करता है?” अध्यापक के पूछते ही बालक राधाकृष्णन ने जवाब दिया, “बिलकुल! हिन्दू धर्म किसी भी धर्म में कोई बुराई नहीं ढूँढता। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा था कि पूजा के अनेक तरीके हैं। अनेक मार्ग हैं। हर मार्ग एक ही लक्ष्य पर पहुंचता है। क्या इस भावना में सब धर्मों को स्थान नहीं मिला? सर, इसलिए हर धर्म के पीछे एक ही भावना है, वह तो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि उसकी आस्था किसमें है। कोई भी धर्म किसी अन्य धर्म की निंदा करने की शिक्षा कभी नहीं देता। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति वह है  जो सभी धर्मों का सम्मान करे और उनकी अच्छी बातों को ग्रहण करे।” राधाकृष्णन की बात सुनकर अध्यापक हैरान हो गए। उन्होने फिर कभी भविष्य में ऐसी बातें न करने का प्रण किया।
रिलीफ़, नवंबर २०१७
बुराई की बुराई, बुराई को कमजोर करती  है। जबकि बुरे की बुराई, बुराई को मजबूत करती  है।