सन्मार्ग में
डा. सैनी का लेख “मंदिर, पूजा और चढ़ावा” पढ़ा। आशा थी कि उनकी लेखनी से कुछ ऐसा पढ़ने को मिलेगा जिसे दूसरी जगह
पढ़ा – सुना नहीं हो। पुजारी का ध्यान केवल नकद चढ़ावे पर रहता है, भगवान २४x७ घंटे जगे रहते हैं तब मंदिर भगवान को शयन-भोग के लिए बहाने बंद क्यों किया
जाता है, पुजारी- पंडे मिल कर
यात्रियों को लूटते हैं जैसी टिप्पणिया कानों में पड़ती रहती है। एक नये
दृष्टिकोण या सुझाव की आशा थी। यथा, क्या यह सुझाव समीचीन
है कि मंदिर में कोई चढ़ावा न चढ़ाया जाये, क्योंकि हम वहाँ
देने नहीं लेने जाते हैं? क्या यह अवशयक है कि सब मंदिर २४x७ घंटे खुले रहें एवं भोग, शयन के नाम पर मंदिर
बंद न किये जाएं । अगर मंदिर के पट बंद होते हैं तो उन्हे मंदिर
नहीं समझा जाये?
क्या पुजारी चढ़ावे के रुपयों को फेंकता
जाए और फूल, माला, पत्तों को समेट कर
रख ले? क्या उन रुपयों और फूल माला चढ़ाने वालों को यह
पता नहीं है कि उनके द्वारा चढ़ाए गए फूल कहाँ जायेंगे और रुपये कहाँ? क्या वे यही चाहते
हैं कि पुजारी रुपयों को फेंक दे और फूलों को बटोर ले? यह मान भी लिया जाए कि पुजारी रुपये खुद न ले, बाँट दे, तो पुजारी की घर गृहस्थी कैसे चलगी? उनका और उनके परिवार का खर्चा कैसे निकलेगा? इन जगहों पर मिलने वाली
तनख़ाह क्या एक परिवार के
लिए काफी होती है? होटल, रेस्टुरेंट, सैलून में और न
जाने कहाँ कहाँ हम टिप दे सकते हैं लेकिन मंदिर में पुजारी को नहीं!
रेल में अलग अलग
दर्जे क्यों हैं? नाटक या सिनेमा में
अलग अलग टिकिट क्यों हैं? खेल के मैदान में या फिर संगीत के कार्यक्रम में अलग अलग टिकिट
क्यों हैं? बिना खर्च किये तो आप जा ही नहीं सकते। आम
और गरीब जनता के लिए कई जगहों में तो प्रवेश संभव ही नहीं है। अस्पताल, डाक्टर, वकील, विद्यालय सब का खर्चा एक बराबर क्यों नहीं है? क्या ऐसा होना चाहिए
कि सबको बराबरी का दर्जा दिया जाए? सबों कों एक ही पंक्ति में खड़ा कर
दिया जाए। कोई समय ज्यादा खर्च कर सकता है तो कोई पैसा। इनके साथ न्याय कैसे करेंगें? क्या यह उचित नहीं कि पैसे वालों से पैसे और समय वालों से समय
लिया जाय। अपनी अपनी रुचि, श्रद्धा एवं हैसियत
के अनुसार चुनाव करने की स्वतंत्र आम जनता को दी जाय? अगर नियम न हों तो बलिष्ठ और प्रभावशाली तो अपना काम सबसे पहले कर लेंगे तथा औरत, वरिष्ठ, कमजोर, बच्चे एवं आम व्यक्ति
खड़े रह जाएंगे। ध्यान देने लायक एक बात और है। धन का मान नहीं रखा
जाता है। दान का मान रखा जाता है। दर्शनार्थी को मान तब मिलता है जब वह अपने धन का दान करता है। भेंट चढ़ाता है।
मकान हो या जमीन, शेयर हो या बीमा, कपड़ा हो या गल्ला, धातु हो या तरल, खरीदना हो या बेचना, हर कार्य के दलाल
भी हैं और सीधे संपर्क करके भी कार्य या
व्यापार करने की छूट है। सब अपनी सुविधानुसार कार्य करते हैं। दलाल भी हर प्रकार के हैं, छोटा बड़ा, अच्छा बुरा, ईमानदार बेईमान। यह तो आप पर निर्भर करता है कि आपने कैसे दलाल
को चुना है और आप दोनों का आपस
में व्यवहार कैसा है? आपका खर्चा, अनुभव एवं कार्य भी
उसी अनुपात में होता है। समय के साथ
साथ अब “दलाल” शब्द ने अपनी गरिमा खो दी है अत: अलग अलग शब्दों का प्रयोग होता है यथा
कमिशन एजेंट।
दुनिया बहुत बदल गई
है। पंडों और पुजारियों की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। एक समय था जब तीर्थ
स्थलों में जाना दुष्कर था। जाने आने के
साधन तो सीमित थे ही कुछ समय पहले तक उन जगहों पर ठहरने एवं खाने की समुचित सुविधा
भी नहीं थी। किसी भी प्रकार की कोई भी आपातकालीन अवस्था, बीमारी, चोट, चोरी, धन की कमी, पोकेटमारी, दुर्घटना आदि में उस अनजानी जगहों में ये पंडे ही हमारे एकमात्र स्वजन हुआ करते थे। पंडे ही ऐसे समयों में हर प्रकार की
सुविधा एवं सहायता प्रदान करते थे। इन्ही कारणों से पंडों का चुनाव सोच समझ
कर किया जाता था और ये पीढ़ी दर पीढ़ी चलते थे। इन से एक प्रकार का पारिवारिक संबंध कायम हो जाता था। इन के पास हमें आज भी अपने
बुजुर्गों के नाम, परिवार का इतिहास, अन्य पारिवारिक
जानकारी और लिखावट मिल जाती है। कालांतर में ये दोनों ही बदल गए। पंडों की बात तो बहुत दूर की है, अब हम अपने भाई, भाभी, बहन को भी अपने परिवार का
हिस्सा नहीं मानते। सच्चाई तो यह है कि अब
परिवार का अर्थ केवल मैं, मेरी पत्नी / मेरा पति और बच्चे तक
सीमित हो गया है। इसमें हम अपने माँ – बाप को भी शामिल नहीं करते। पंडे भी सहायता, सुख सुविधा एवं जानकारी के बजाय धन एंठने कि
ही फिराक में रहते हैं । इसी कारण अब धीरे धीरे पंडों की प्रथा अंतिम साँस ले
रही है।
जहां तक पुजारियों का प्रश्न है, केवल धोती पहनने, टीका लगाने, चोटी रखने, जनेऊ धारण करने से कोई
पंडित या पुजारी नहीं होता। ये तो सिर्फ उनका पहनावा है। ऐसे पुजारियों को फिल्मों
में भी देखा जाता है, लेकिन उन्हे हम
पुजारी नहीं मानते। पुजारी के कई आचार, विचार, व्यवहार, यम, नियम होते हैं। अब इसकी अवहेलना
होने लगी है। धन अर्जन कि
कमी के कारण “पुजारी” अन्य व्यवसायों में लग गए हैं और उनकी जगह
अर्ध-पुजारियों / अ-पुजारियों ने ले लिया
है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हमारे संविधान में हरेक भारतीय को चुनाव लड़ने
और मंत्री बनने का अधिकार है। कुर्ता, पैजामा और टोपी
बहुत से नेताओं की पोशाक रही है। अत:
कई गुंडे, बदमाश कपटी भी यही पोशाक पहन कर नेता सा दिख कर
जनता को धोखा देते हैं। संविधान को बनाने वालों ने शायद कभी यह कल्पना भी नहीं की
होगी कि एक समय ऐसा आयेगा कि संसद उन लोगों से भर जाएगी जिनके पैर कब्र
में लटके हैं, अपराधी हैं, अशिक्षित हैं। ठीक
उसी तरह इन नियमों को बनाने वालों ने भी कभी कल्पना नहीं कि होगी कि पुजारी ठगों का पर्याय भी बन सकता है। संसद, देश एवं संविधान का
मंदिर है, और भगवान का मंदिर, हमारी आस्था, सत्य एवं धर्म का
प्रतीक। सत्यम, शिवम सुंदरम है। जैसे संसद को सुधारने के लिए सही सांसदों की आवश्यकता है वैसे ही मंदिरों को सुधारने के लिए सही
पुजारियों की। इनको सुधारने का प्रयास चल भी रही है, लेकिन यह प्रयास कभी सफल होगा या नहीं या कब तक यह तो
भविष्य ही बताएग।
मुझे इस संबंध में
अपने पिता की एक बात बहुत याद आती है। वे कहा करते थे
कि जब भी किसी भी तीर्थ स्थल पर जाओ वहाँ
के पंडो, पुजारियों, कर्मचारियों, दूकानदारों को निशिचित रूप से कुछ दो / खरीदो। इन जगहों पर यही सबसे बड़ा व्यापार होता है। वहाँ के लोग अपनी आजीविका के लिये आने वाले भक्तों पर
ही आश्रित होते हैं। ऐसे जगहों के वे ही असली भगवान हैं जिन्हे तुम्हारी सहायता की अवश्यकता है। कल्पना
करें, हम भारत को दुनिया के मंच पर एक पर्यटक स्थल के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। “अतुल्य! भारत”
पर करोड़ों रुपये खर्च करते हैं। क्योंकि हम चाहते हैं कि विदेशी पर्यटक यहाँ आयें और विदेशी मुद्रा खर्च करें, हमें कुछ दे कर
जाएँ। किसी भी संग्रहालय, प्राचीन इमारत, ऐतिहासिक स्थान, दर्शनीय स्थल में
प्रवेश करने के लिए एक विदेशी को एक स्थानीय कि तुलना में १० गुना ज्यादा
प्रवेश शुल्क देना पड़ता है। विदेशी आयें लेकिन खर्च नहीं करें
तो हमारी उनमें कितनी दिलचस्पी रहेगी? नई जगह पर जाकर वहाँ खर्च करना हमारा
उत्तरदायित्व है और वहाँ के लोगों का उस पर अधिकार।
अगर सब अपना उत्तरदायित्व
निभाएँ, तो किसी को अपने अधिकार के प्रयोग की अवशयकता नहीं पड़ेगी।
राम राज्य स्वत: आ जाएगा।