अटलजी
केवल राजनीतिज्ञ और भारत के प्रधान मंत्री ही नहीं थे, बल्कि एक सशक्त व्यक्तित्व एवं कवि भी थे। कवि सम्मेलनों में उनकी धूम रहती और
उन्होने कोलकाता में एकल कवि सम्मेलन भी
सफलता पूर्वक किया। राष्ट्रियता और चुनौती के अलावा अनुभूति के स्वर भी
उनकी कलम से मुखरित हुए हैं। प्रस्तुत है उनकी दो अनुभूति की कविताओं की कुछ बानगी:
हरी हरी दूब पर
ओस की बूँदें
अभी थीं
अब नहीं है।
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थीं,
कहीं नहीं हैं।
सूर्य
एक सत्य है
जिसे
झुठलाया नहीं जा सकता
मगर
ओस भी तो एक सच्चाई है
यह
बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों
न मैं क्षण-क्षण को जीऊँ?
कण-कण में बिखरे सौंदर्य को पीऊँ?
सूर्य
तो फिर भी उगेगा,
धूप
तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन
मेरी बगिची की
हरी
हरी दूब पर,
ओस
की बूंद
हर
मौसम में नहीं मिलेगी।
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जो कल थे
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वो कल नहीं होंगे।
होने, न होने का क्रम
इसी
तरह चलता रहेगा,
हम
हैं, हम रहेंगे,
यह
भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
सत्य क्या है?
होना
या
न
होना?
या
दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
मुझे
लगता है कि
होना-न-होना
एक ही सत्य के
दो
आयाम हैं,
शेष
सब समझ का फेर है,
बुद्धि
के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
यह प्रश्न अनुत्तरित है।
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