जब जनता भ्रमित हो, दो खेमों में बंटी हो, तर्क-कुतर्क के सहारे अपने को सही और दूसरे को गलत सिद्ध करने पर तुली हो, दोनों पक्ष असत्य-अर्धसत्य का सहारा ले रहे हों, दोनों पक्षों में अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हों, तब विद्वानों-मनीषियों का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वे किसी भी एक पक्ष के हिमायती न बन कर अच्छे को अपनाने और बुरे को निकालने, चाहे जिस पक्ष में हो, की पैरवी कर दोनों पक्षों में शांति पैदा करने की कोशिश करें, एक स्वस्थ्य वातावरण तैयार करें, एक अनुकरणीय आचरण करें, न कि पक्ष-विपक्ष में बंट कर अशांति को बढ़ायेँ।
पूरे विश्व में बहुत कुछ घटित हो रहा है। हमें, हमारे देश की ज्यादा जानकारी है। अत: हमें यहाँ की घटनाओं का ज्यादा पता है और वे हमें ज्यादा उद्वेलित करती हैं। हम अपने देश के भूत, वर्तमान तथा भविष्य से जुड़े हैं, अत: अपने देश की घटनाएँ हमें ज्यादा विचलित करती हैं। पूरा देश, ऐसा प्रतीत होता है ‘अंध’ लोगों से भरा है और दो खेमों में बंटा है – एक है ‘अंध भक्तों’ का और दूसरा है ‘अंध विरोधियों’ का। ये दोनों ही खतरनाक हैं। एक को कोई बुराई नहीं दिखती और दूसरे को कोई भलाई नहीं नजर आती। एक को लगता है कि सब ठीक और सही है तो दूसरे खेमे को सब बुरा और गलत नजर आता है। जहां एक खेमा जिन नियमों, क़ानूनों, संविधान और महापुरुषों की बातों और कार्यों से ‘सही’ सिद्ध करता है तो दूसरा उन्हीं की दुहाई दे कर तर्कों से उन्हें गलत बताता है। यही नहीं दोनों एक दूसरे को ‘सहन’ भी करते नजर नहीं आ रहे। हमने अंग्रेजों को भी सहन नहीं किया और उन्हें देश से चले जाने को कहा, लेकिन वे अंग्रेज़ थे, विदेशी थे। लेकिन इनका क्या करें? ये तो इसी देश के हैं। क्या वे भी ‘देश’ छोड़ कर चले जाएँ? क्या यह उनका देश नहीं है? कहाँ जाएँ? जिस डॉ. अंबेडकर ने हमें संविधान दिया और उसके अंतर्गत हमें मौलिक अधिकार प्रदान किए उन्हीं डॉ. अंबेडकर ने यह भी कहा था, “अब जब हमारा देश स्वतंत्र हो गया है, हमारे पास अपना संविधान है, कानून है, न्यायालय हैं, हमें सत्याग्रह और हड़ताल का परित्याग कर, अपने न्यायालयों या अन्य संवैधानिक तरीकों से, समस्या का हल शांतिप्रिय तरीकों का उपयोग कर निकालना चाहिए’। लेकिन नहीं, कोई न समझने को तैयार न सुनने को। दोनों की एक ही जिद ‘पंचों की आज्ञा सर-माथे, लेकिन नाला यहीं खुदेगा’। दोनों खेमों में हर मुद्दे पर जोरदार बहस, धरना, विरोध चलता ही रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह हमारी नहीं किसी विदेशी कि सरकार है। तर्क, वितर्क, कुतर्क सभी का ज़ोर रहता है। किंकर्तव्यविमूढ़ जनता एक खेमे की बात सुनकर खुश होती है, नारे लगाती है, जयजयकार करती है वही जनता दूसरे खेमे में भी वही करती है। पहलवानों की कुश्ती देखने से जनता को जैसे उत्तेजना मिलती है, ठीक वैसी ही उत्तेजना चारों तरफ फैली हुई है। वास्तविक तथ्य जानने की न किसी को परवाह है न फुर्सत। न्याय शास्त्र में जितने प्रकार के छल, कपट, वितण्डावाद आदि बताए गए हैं उन सबका दांव-पेंच की तरह दोनों खेमे के लोग कर रहे हैं। दोनों खेमों में युधिष्टिर की तरह अर्ध-सत्य कहने वाले और असत्य कहने वालों की कमी नहीं। हाँ, सत्य कहने वाले भी हैं लेकिन उनकी बात न कोई करना चाहता है और न सुनना। बात उत्तेजना से आगे बढ़ कर हिंसा, विद्वेष, तिरस्कार, नफरत तक चली जाती है।
बात यहीं तक होती तो फिर भी संतोष कर लिया जाता। दर्द और चिंता की बात तो यह है कि देश के बहुतायत मनीषी, विद्वान, संत ने भी अपने को बाँट लिया है और जनता को बांटने में लगे हैं। गांधी ने देश के विभाजन का पुरजोर विरोध किया। अंत तक स्वीकार भी नहीं किया। लेकिन जब देश के विभाजन का निर्णय हो गया तब विभाजन के निर्णय के विरुद्ध सत्याग्रह न कर उन्होंने अपनी पूरी ताकत दोनों खेमों के बीच सौहार्द-प्रेम-प्यार-भाईचारा स्थापित करने में लगा दिया। और इसी कारण दोनों खेमों के अनेक लोग उन्हें संदिग्ध नजरों से देखने लगे। दोनों तरफ के लोग उन्हें दूसरे खेमे का समर्थक मानते रहे और अंत में, अहिंसा का पुजारी अपने ही लोगों की हिंसा का शिकार हो गया।
दु:ख होता है जब देखता हूँ कि उनके ही अनुयायी, उनके ही नाम पर एक को दूसरे के विरुद्ध उकसा रहे हैं। दोनों ही खेमों में अपनी अपनी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ हैं। ऐसा नहीं है कि एक ‘दूध का धोया है’ और दूसरा ‘काजल की कोठरी’ है। बुद्धिजीवियों को खेमों में बंटने के बजाय दोनों को सही ‘मार्ग’ दिखाना है, उनमें सामंजस्य पैदा करना है, भाईचारे की प्रवृत्ति पैदा करनी है। गांधी की ही बात मानें तो बुरे को नहीं बुराई को त्यागना है। आखिरकार दोनों तरफ के लोग इसी देश के नागरिक हैं, हमें साथ-साथ ही रहना है। तब फिर एक से प्यार और दूसरे से नफरत क्यों?
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