जीविका और जीवन
अच्छी से अच्छी परिस्थिति में
भी एक महा दुखी है और दूसरा बुरी से बुरी परिस्थिति में भी सुखी है। राम और दशरथ
एक ही परिस्थिति में हैं – एक दुख में प्राण त्याग करता है और दूसरा मुदित मन से
वन-गमन करता है। आज हम सुखी हैं क्योंकि कोई भी छोटी बात हमारे मन में रुकी नहीं।
छोटी बात ही हमें दुखी करती है।
जिस आचरण से हमारा मंगल हो
उसे मंगला चरण कहते हैं। जैसे-जैसे हमारी बाहरी भूख कम होती जाती है हमारी अंदर की
भूख बढ़ने लगती है। हम तैयार होते हैं – मृत्यु के लिए नहीं बल्कि यह जानने के लिए कि
मृत्यु होती ही नहीं। हमें यम नहीं ब्रह्म दिखने लगता है।
आज 50 का वेतन मिल रहा है। एक
दिन अचानक बताया जाता है कि अगर यह कार्य दो महीने में पूरा कर लेते हैं तब 125 का
वेतन मिलेगा। और हम आनन-फानन में मनुष्य से बैल बन जाते हैं और कोल्हू के बैल की
तरह चक्कर लगाने लगते हैं। 125 का वेतन हो गया – तब और कम समय में और ज्यादा काम, और ज्यादा वेतन। यानी बैल बने रहिए। 50 में
सुखी जीवन जी रहे थे, अब अगर वापस उसी 50 पर आ भी जाएँ तो....
सुख नहीं दुख ही मिलेगा। यानी बैल बने रहिए, निजात नहीं है।
यह वह चक्र है जो कभी समाप्त नहीं होता, जीवन समाप्त हो जाता
है। हम लगातार भविष्य का अहम खरीदते रहते
हैं। नया-नया अहम, नये-नये ऊंचे मूल्यों पर।
अध्यात्म की एक बड़ी विचित्रता
है। मार खाना भी सत्संग हो सकता है। रामायण में प्रसंग है। हनुमान वायु मार्ग से
लंका पहुँच गये। लंका में प्रवेश करने की
विधि खोज रहे हैं। द्वार पर लंकिनी रास्ता रोके खड़ी है। कोई रास्ता न पाकर लंकिनी
को मुष्टिका प्रहार करते हैं। प्रहार से लंकिनी को मूर्छा आ गई, रक्त निकल आया। लेकिन मूर्छा से उठी तो न
आह किया-न ओह, न क्रोध आया। हनुमान ने भी
कुछ कहा नहीं। लेकिन उठते ही लंकिनी ने कहा ‘बड़ा सत्संग हुआ’। मुष्टिका प्रहार ने उसे जगा दिया, उसे झकझोर दिया।
अगर आप सजग हैं तो विपरीत परिस्थिति में भी अच्छा सत्संग हो सकता है। हनुमान के उस प्रहार ने उसके अहंकार का नाश
किया और यह समझ आई कि लंका के अहंकार के नाश का समय आ गया है। अगर यह सत्संग नहीं
तो फिर किसे सत्संग कहेंगे?
कोई खिलाना चाहे और हम न खाएं
तो उसके खिलाने की चाह कम होने लगती है। कोई सहायता करना चाहे और हम उसकी सहायता न
लें तो उसकी सहायता करने कि चाह कम होने लगती है। संबंध तब बनता है जब दोनों तरफ
प्यास लगती है। अतः यह आवश्यक है कि कभी-कभी भूख न रहने पर भी खाएं, जरूरत न होने पर भी सहायता लें। इससे सिर्फ आपसी संबंध ही
नहीं बनते बल्कि समाने वाले की खिलाने और सहायता करने की प्रवृत्ति को भी सहारा
मिलता है। क्या यह सत्संग नहीं है?
बाजार से लाई हुई मूर्ति-फोटो
को रोज-रोज नहलाने, शृंगार करने, खिलाने से
हम उसमें प्राण फूँक देते हैं। हमें हठी होना पड़ेगा। शिव ने सती का त्याग किया, उसे बगल में नहीं सामने बैठने कहा। लेकिन पार्वती की प्यास ने उन्हें
मजबूर कर दिया, उन्हें भी अपने संकल्प का त्याग कर पार्वती
को बगल में स्थान देना पड़ा।
यह मेरी जिंदगी है, इस पर मेरा अधिकार है! क्या यह आपकी है। जिस जिंदगी को अपनी
इच्छा से प्रारम्भ नहीं कर सकते, जिस जिंदगी को आप अपनी
इच्छा से समाप्त नहीं कर सकते, वह कितनी आपकी है? हमारे इस जीवन में अपरिमित शक्ति है, उसे हम संभाल
ही नहीं पाते। अतः अपनी उस अपरिमित शक्ति को ईश्वर से जोड़ दीजिये, अपने से नहीं। वह हमारी शक्ति को संभाल सकता है।
दो प्रकार की संस्थाएं विश्व
भर में हैं, हर देश में, हर शहर
में, हर कस्बे में। एक सिखाती है जीवन और दूसरी सिखाती है
जीविका। विशेष बात यह है कि जीवन सीखने वाली संस्थाएं जीविकोपार्जन भी सिखाती है, लेकिन जीविका सिखाने वाली संस्थाएं जीवन जीना नहीं सीखतीं। कभी जीवन
सिखाने वाली संस्थाएं ही थीं, उससे ही दोनों, जीवन और जीविका, चल जाती थीं। लेकिन जैसे-जैसे लालच
बढ़ा जीवन सीखने वाली संस्थाएं चाहरदीवारी में घिरने लगीं और जीविका सीखने वाली
संस्थाएं बाजार में आ गईं। जीवन सिखाने वाली संस्थाओं को धार्मिक संस्था, आश्रम, धर्मस्थल, वृद्धों का
घर, आदि नाम दिये गए हैं। उन्हें मिटाने के लिए पूरा प्रयत्न
करने के बाद भी वे फल-फूल रही हैं क्योंकि जीना तो है ही और जीना तो वही सिखाती
है। जीविका सिखाने वाली संस्थाएं तो मानव
को बैल बना रही हैं। 6-7 अंको वाली नौकरी तो बीते समय की बात हो गई है अब तो बातें
8-9 अंकों वाली नौकरी की होती है। कितनों को यह वेतन मिलता है? कक्षा में प्रथम कितने विद्यार्थी आते हैं? क्या
बाकी का जीवन व्यर्थ है?
जीवन सिखाने वाली संस्थाओं को
आपका जीवन (समय) चाहिए और जीविका सिखाने वाली संस्थाओं को आपकी जीविका (धन) चाहिए।
और यह धन भी 7-8 अंकों की। कम अंकों की शिक्षा से तो कुछ मिलने वाला नहीं सिर्फ
पसीना बहाते रहिए। बड़ी शिक्षा लेकर बड़ी जीविका चाहिए तो कर्ज लीजिये, कर्ज यानी गुलामी। यह एक नया चक्र-व्यूह है, जिसमें अंदर जाने का तो रास्ता है लेकिन निकलने का ........?
‘गोलमाल’ के गाने के ये पंक्तियाँ याद आ
रही है। -
गोल
माल है भइ सब गोल माल है, हर सीधे
रस्ते की एक टेढ़ी चाल है
भूख
रोटी की हो तो पैसा कमाइये, पैसा कमाने के लिये भी पैसा चाहिये
गोल
माल है भइ सब गोल माल है, हर सीधे रस्ते की एक टेढ़ी चाल है
जीवन
बनाना और जीविका बनाना दो अलग-अलग चीजें हैं। हम प्रायः जीविका बनाना ही जीवन
बनाना मान लेते हैं और पूरी गड़बड़ी यहीं से हो जाती है। जीविका बाहर का अस्तित्व है
और जीवन अपने भीतर का। सुदामा की, राम की
जीविका अच्छी नहीं थी लेकिन जीवन अच्छा था। रावण की जीविका अच्छी थी लेकिन जीवन
नहीं। जीविका अच्छी हो तो आवश्यक नहीं की
जीवन अच्छा होगा लेकिन अगर जीवन अच्छा होगा तो जीविका की परवाह नहीं होगी।
पहले अकाल आता है, पीछे सुकाल। पहले लू की जलती हुई हवाएं आती हैं,
फिर बरखा की ठंडी फुहार।
पहले भूख आती है, फिर रोटी। पहले रात आती है,
पीछे दिन। प्रकृति का यही
नियम है और कायदा भी। जीवन अच्छा बनाइये और धीरज रखिए। जीविका अच्छी बनाने के लिए
धन चाहिए और जीवन अच्छा बनाने के लिए समय और अनुभव।
पौष्टिक आहार का फैशन है और पौष्टिक विचार का अकाल। पौष्टिक
विचारों का सावन लाइये और फिर जीवन को फलता-फूलता देखिये।
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