पांडेचरी, श्री अरविंद आश्रम से हम सब परिचित हैं। भले ही वहाँ गए न हों, उस स्थान का नाम सुना है। इस आश्रम में एक साधिका रहती थीं, लंबे समय से। बल्कि यह कहना उचित होगा कि उन्होंने अपना पूरा जीवन ही इस आश्रम को समर्पित कर दिया था। एक बार उनके परिवार की कई महिलाएं आश्रम देखने और उनसे मिलने वहाँ आईं। लौटते समय उनका चेन्नई (तब मद्रास) 2-3 दिन रुक कर, घूम-फिर कर लौटने का कार्यक्रम था। उन्होंने उस साधिका को भी साथ चलने के लिए कहा और सुझाव दिया कि वे तो चेन्नई से फिर आगे चली जाएंगी और साधिका आश्रम वापस लौट आयें। साधिका का भी मन बना और उन्हें श्रीमाँ से अनुमति भी मिल गई।
जिस दिन यात्रा पर निकलना था उसके पहले
रात्री को तेज बरसात हुई। रात लगभग 10 बजे किसी ने साधिका के कमरे का दरवाजा
खटखटाया। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, भला इतनी रात
कौन आया होगा? दरवाजा खोला, एक अन्य वरिष्ठ
साधक दरवाजे पर खड़े थे। उन्हें देख सकपकाना स्वाभाविक था। उन्होंने उन्हें एक
लिफाफा पकड़ाया और बताया कि श्रीमाँ ने उनके लिए यह एक आवश्यक पत्र भेजा है। दरवाजा
बंद कर वे कुर्सी पर बैठ गईं और आशंकित मन से धीरे-धीर लिफाफा खोला। लिखा था, “तुम कहीं नहीं जाओगी”। साधिका सन्न रह गयी। उसके मंसूबों पर पानी फिर
गया। उन्हें बड़ा झटका लगा, दुख हुआ,
क्रोध आया, निराशा हुई। रात भर नींद नहीं आई लेकिन श्रीमाँ की आज्ञा का पालन करते हुए उसने अपना
कार्यक्रम रद्द कर दिया। लेकिन दुख और क्रोध में दूसरे दिन कमरे से बाहर नहीं
निकलीं, खाने के लिए भी नहीं। शाम को अचानक उन्हें एक खबर
मिली। जिस गाड़ी में उनके परिवार की महिलाएं गई थीं रास्ते में, गाड़ी समेत सड़क धंस गई, उनमें से कोई नहीं बचा।
साधिका के रोंगटे खड़े हो गए। एक बार तो
किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रहीं फिर बदहवास हो उत्तेजित होकर माँ के कमरे की तरफ दौड़
पड़ीं। उन्हें कमरे के दरवाजे पर रोका गया, ‘श्रीमाँ अभी व्यस्त हैं, मुलाक़ात नहीं हो सकती’। ‘नहीं, मुझे तो अभी ही मिलना
है’, और वे एक प्रकार से जबर्दस्ती कमरे में घुस गईं। अब तक
उनकी उत्तेजना, दुख, झटका, निराशा क्रोध, श्रद्धा, भावुकता, समर्पण अविश्वास में तब्दील चुकी थी। वह अपने आप को श्रीमाँ की अपराधी समझ रही
थी। रो रही थीं और अपने आप को माफ नहीं कर पा रही थी। श्रीमाँ उन्हें देखते ही समझ
गईं। उन्होंने उंगली से साधिका को चुप रहने और बैठने के लिए कहा। कुछ देर में जब
साधिका व्यवस्थित हुई, उसकी उत्तेजना शांत हुई तब माँ ने उनकी
तरफ देखा।
“जब आप को पता था यह होने
वाला है, तब आपने मुझे तो रोका लेकिन उन्हें क्यों नहीं
रोका”?, साधिका का क्रोध फिर मुखर हो उठा।
श्रीमाँ
ने धीरे से कहा, “क्या मेरे रोकने से वे रुक
जातीं”?
साधिका सन्नाटे में आ गई, उन्हें पता था वे नहीं रुकतीं। उनके मन में, श्रीमाँ के प्रति न वह श्रद्धा थी न विश्वास।
साधिका श्री माँ के चरणों में गिर पड़ी और धीरे-धीरे उठ कर वापस आ गई।
श्रीमाँ, जन्मदिन पर बधाई-पत्र दिया करती थीं। जब इस साधिका को जन्मदिन पर बधाई
पत्र मिला तो उसने देखा उसमें जो तारीख लिखी थी, वह उसका
जन्मदिन नहीं था। उसने माँ की तरफ देखा। माँ मुस्कुरा रही थी। उसे याद आया, यह वही तारीख थी जिस दिन उपरोक्त दुर्घटना घटी थी।
दैवीय शक्तियाँ हमेशा हमारा मार्ग-दर्शन
करने के लिए कटिबद्ध रहती हैं, हमें सावधान
करती रहती हैं, हमारा मार्ग दर्शन करती हैं, बशर्ते हम इस योग्य बनें कि उनकी बात सुनें और माने। ये मार्ग-दर्शन हमें
उन शक्तियों से सीधे भी प्राप्त होते हैं, छठी इंद्रियों के
माध्यम से या फिर किसी योग्य व्यक्ति के माध्यम से भी जिनमें हमारा अटूट विश्वास
होता है, उनके प्रति हमारी श्रद्धा होती है। लेकिन क्या
हमारी तैयारी है?
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