यह व्यंग चित्र (कार्टून) देख कर आपको बीते हुए दिन याद आ
रहे होंगे, आना ही चाहिये। बल्कि अगर याद नहीं आ रही है तब यह प्रश्न उठता है कि क्या डेनिस
के कार्टून अपने नहीं देखे? ‘Dennis the Menance’ के नाम से अखबारों में, पत्रिकाओं में इसके नये व्यंग
चित्र का बेसब्री से इंतजार रहता था। इसके जनक थे हांक केचाम (Hank
Ketcham) जिसने अवतार लिया था 12 मार्च 1951 को। यह कई व्यक्तियों
के हाथों से गुजरता हुआ अब, 2010 से,
उनके लड़के स्कॉट द्वारा लिखा और बनाया जाता है।
अब हम आते
हैं इस कार्टून पर। क्या आप अंदाज लगा सकते हैं कि इस कार्टून में क्या चल रहा है? यह तो साफ नजर आ रहा है
कि डेनिस अपने अनोखे लेकिन चिर-परिचित अंदाज में खड़ा है और शायद कुछ बोल रहा है। उसके सामने
एक महिला कुछ पका रही है जो संभवतः उसकी माँ है। अगर दिमाग पर थोड़ा और ज़ोर लगाएँ
तो लगता है कि उनके बीच जो खाना पकाया जा रहा है उसके बारे में ही बातचीत हो रही है।
लेकिन उनके बीच क्या बात हो रही है? यही है महत्वपूर्ण। ठहरें, आगे बढ़ने के पहले जरा आए सोचें, अटकलें लगाएँ-
क्या डेनिस पूछा रहा है कि आज क्या पक रहा है? या
खेलने जाने की अनुमति मांग रहा है? या
वह अपनी माँ की सहायता करना चाहता है?
न, नहीं इनमें से कुछ भी नहीं। लेकिन फिर क्या?
डेनिस अपनी माँ से पूछ रहा है, “क्या मुझे कुछ ऐसा मिल रहा है जो मुझे पसंद
है या कुछ ऐसा जो मेरे लिये अच्छा है?”
कुछ देर इस प्रश्न का आनंद लीजिये, फिर हम प्रयत्न करेंगे इसकी गहराई में उतरने
का। - “हमें क्या मिल रहा है – हमें पसंद है
या हमारे लिए अच्छा है?”
इस
वार्तालाप से यह जाहीर है कि डेनिस जानता है कि उसे क्या पसंद है और उसे यह भी
मालूम है कि उसके लिए क्या अच्छा है। उसे अच्छा-बुरा, सही-गलत सीखाने या बताने
की अवश्यकता नहीं है, यह उसे ज्ञात है। इतना ही नहीं उसे इस
बात का संदेह भी है कि जो पक रहा है वह उसे पसंद नहीं है बल्कि उसके लिए अच्छा है।
इसके बाद भी वह इस आशा से पूछ रहा है कि शायद उसे उसके मनोनुकूल उत्तर मिल जाये या
फिर उसके मनोनुकूल पका दिया जाये। लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा नहीं होगा। वही पकेगा
जो पक रहा है और जो पक रहा है वह उसके लिये अच्छा है।
इसके विपरीत
हम यह मानते हैं कि बच्चे को ‘पसंद और अच्छे’ का ज्ञान नहीं है। लेकिन सही यही है
कि वह दोनों का फर्क जानता है। पसंद और अच्छे का ही नहीं बल्कि ‘सही और गलत’, ‘अच्छे और बुरे’ का फर्क भी वह जानता है। फिर बच्चा बुरे की तरफ ही क्यों प्रवृत्त होता
है? ‘बुरे’ में
आकर्षण है और हाथों हाथ लाभ नजर आता है। अच्छे का फल मिलने में थोड़ा समय लगता है, तब तक उसका आकर्षण समाप्त हो चुका होता है और बहुधा पता ही नहीं चलता कि
जो अच्छा हुआ वह सही निर्णय के कारण हुआ। तब एक अभिभावक या शिक्षक के रूप में
हमारा उत्तरदायित्व सिर्फ इतना ही है कि हम उसे अच्छे और सही की तरफ प्रेरित करें, उत्साहित करें।
हमने ही अपने
कृत्यों से उसे अच्छे के बजाय बुरे की तरफ प्रेरित किया है, ‘अच्छे’ के बजाय ‘पसंद’ की तरफ धकेला
है, सही के बदले गलत को आकर्षक बनाया है। और इसे ठीक करने का
केवल एक ही उपाय है – हम अपने कृत्यों को बदलें, हम खुद सही
और अच्छे करें।
भारत के एक महान योगी के शिक्षा सिद्धान्त सिर्फ बच्चे पर ही
नहीं हम पर भी लागू होते हैं -
"सच्चे शिक्षण का पहला सिद्धान्त है
कि कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता। शिक्षक तो एक सहायक एवं पथ प्रदर्शक है।
उसका काम है सुझाव देना, थोपना नहीं। वह सचमुच हमारे मानस को प्रशिक्षित नहीं करता, वह तो उसे केवल यह दिखाता है कि अपने ज्ञान के उपकरणों को कैसे पूर्ण
बनाया जाये और इस प्रक्रिया में वह उसे सहायता और प्रोत्साहन प्रदान करता है। वह
उसे ज्ञान नहीं देता, वह उसे यह दिखाता है कि अपने लिये
ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाए। वह अंदर स्थित ज्ञान को बाहर प्रकट नहीं करता;
वह केवल यह दिखलाता है कि ज्ञान कहाँ स्थित है और उसे ऊपरी तल पर
आने के लिये कैसे अभ्यस्त किया जा सकता है।”
अब एक बार इस चित्र में थोड़ा सा परिवर्तन
करते है। उस बच्चे की जगह अपने को देखें और माँ कि जगह ईश्वर को। अब बताएं ईश्वर से
हमें क्या मांगना चाहिए – वह जो हमें पसंद है या वह जिसमें हमारा अच्छा है, भला है?
हमारी प्रकृति हमें अपना स्वधर्म निभाने के लिये प्रेरित
करती है, लेकिन हम उसकी सुनते नहीं
हैं?
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