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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

आई एम ओके, यू आर ओके

 


हमने अपनी जगह बदली कर ली है। नयी जगह का लिंक है 

https://raghuovanshi.blogspot.com/2024/04/blog-post_19.html

यू ट्यूब का लिंक  :

https://youtu.be/mlAYd4jvzCg

आपको नयी जगह कैसी लगी बताएं, विशेष कर अगर पसंद न आई हो या कोई असुविधा जो तो जरूर  से बतायेँ। 

कुछ समय तक हम अपनी पोस्टिंग यहाँ भी करेंगे, लेकिन अनुरोध है कि नये लिंक पर पढ़ें। 

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                 (I am OK, you are OK)  मेरे अनुभव  

किसी समय पॉण्डिचेरी के नाम से विख्यात स्थान का नाम अब पुडुचेरी हो गया है। लोग संक्षिप्त में इसे पौंडी भी कहते हैं। हम इस पचड़े में न पड़ कर इसे पुडुचेरी ही कहेंगे। इस स्थान को विश्व के मान चित्र में स्थान दिलाने का श्रेय श्रीअरविंद, श्रीमाँ और इनकी ही प्रेरेणा से बने और बसे औरोविल को जाता है।

          श्री अरविंद आश्रम, पुडुचेरी  एक चाहरदीवारी में समाया हुआ नहीं है। इसके अलग-अलग विभाग शहर के कई हिस्सों में फैले हैं। औरोविल तो लगभग 14 कि.मी. की दूरी पर है। इन विभागों में एक है सब्दा’, जी हाँ ‘SABDA’। इसे सब्द या शब्द  कहने या समझने की भूल मत कीजियेगा। SABDA यानी Shree Arvind Book Distribution Agency। शायद किसी समय इस विभाग से सिर्फ श्री अरविंद एवं श्री माँ से संबन्धित पुस्तकों का ही विक्रय / वितरण हुआ करता होगा लेकिन आज यहाँ से इसके अलावा आश्रम तथा आश्रम से जुड़े हुए कुटीर तथा हस्त शिल्प उद्योग की वस्तुओं का भी विक्रय होता है। ऐसे स्टोर पुडुचेरी के अलावा आश्रम की शाखाओं तथा अनेक केन्द्रों में भी हैं। इनके अनेक उत्पादों में एक है सुगंधित तेल (एसन्स ऑइल)। इस स्टोर में यह तेल अलग-अलग अनेक  खुशबू में उपलब्ध है।  

          एक दिन एक महिला सब्दा के किसी स्टोर में आईं, उन्हें यही सुगंधित तेल लेना था। महिला, जहां इसकी शीशियाँ सजी थीं, वहाँ पहुंची, एक सरसरी नगाह से उन्हें देखा और फिर अपने पसंद की खुशबू का तेल खोजना शुरू किया। सब शीशियाँ पैकिंग में सील की हुई थीं। उन्हीं शीशियों के सामने बिना सील की हुई शीशियाँ भी रखी थीं। उन पर रौलर लगे थे ताकि तेल को अपने हाथ पर लगा कर खुशबू की परख की जा सके। महिला ने कई शीशियों की खुशबू को परखा, उन्हें एक खुशबू पसंद आई। महिला उस शीशी को लेकर स्टोर के एक कर्मचारी, प्रशांत के पास पहुंची और हाथ की शीशी दिखा कर कहा, मुझे इसकी एक शीशी चाहिये, लेकिन ये रोलर वाली नहीं चाहि‎‎ये सपाट मुंह वाली चाहि‎‎ये जिससे बूंदे टपकाई जा सकें।

          प्रशांत इस स्टोर में एक स्वयंसेवक के रूप से कई वर्षों से अपनी सेवा प्रदान कर रहे थे, एक प्रसन्नचित, कर्तव्यनिष्ठ, हंसमुख सेवक। कभी कोई तकरार होती मुसकुराते हुए, अपने खास अंदाज में कहते आई एएम ओके, यू आर ओके’, और तकरार समाप्त हो जाती। प्रशांत ने मेज की दराज से एक शीशी निकाली जिसका मुंह सपाट था और उस महिला को दिखा कर पूछा, क्या आपको ऐसी शीशी चाहिये?’

हाँ, हाँ ऐसी ही चाहिये।

आपने जहां से यह रोलर वाली शीशी उठाई है वहीं उसके पीछे रखी सीलबंद शीशी ले लीजिये’, प्रशांत ने सलाह दी।

महिला असमंजस में पड़ गई, नहीं, मुझे वे रोलर वाली नहीं सपाट मुंह वाली शीशी चाहि‎‎ये।

जी हाँ, वहाँ वैसी ही शीशियाँ हैं, यह तो केवल नमूने (सैम्पेल) के लि‎‎ये है।

महिला खिन्न होने लगी, आप भी अजीब हैं, मैं कह रही हूँ कि मुझे यह नमूने वाली नहीं चाहिये और आप मुझे बार-बार वहीं से लेने कह रहे हैं।

बहनजी मैं आप को कह रहा हूँ कि आपके हाथ की शीशी रोलर वाली नमूने की हैं लेकिन दूसरी सील की हुई शीशियाँ में रोलर लगे हुए नहीं हैं।

अभी तो आप ने कहा कि ये नमूने की शीशियाँ हैं, मुझे ये नमूने वाली नहीं चाहिये’, महिल ने फिर से दोहराया।

          “@#$%^ ......”

          “...... _&%#.....”

          दोनों एक दूसरे के समझाते रहे। दोनों समझाने में लगे थे, समझने का प्रयत्न नहीं कर रहे थे।  नतीजा, उनके बीच तकरार बढ़ गई। प्रशांत थक हार कर  महिला की उपेक्षा करता हुआ अन्य कागजों के पन्ने पलटने लगा। महिला को यह अपना अपमान महसूस हुआ। अब तक दोनों खीज और झुंझलाहट से भर चुके थे। आखिर प्रशांत ने कहा, देखिये मैडम, मैं आपको हर तरह से समझा कर हार चुका हूँ, मेरे पास अब कहने को कुछ नहीं है, आप अगर नहीं समझना चाहती हैं तो आप की जैसी इच्छा हो कीजिये। लेकिन महिला तुनक गई, आप समझ ही नहीं रहे हैं उल्टे मुझे दोष दे रहे हैं कि मैं नहीं  समझ रही हूँ, और तो और मेरा अपमान कर रहे हैं।

यह तो आश्रम की शांति और नीरवता थी जिस कारण दोनों ने अपनी आवाज को भरसक धीमा ही रखा, लेकिन  एक अन्य कर्मचारी, सुबीर, परिस्थिति की  नाजुकता को समझ कर वहाँ आ पहुंचा।  धीरे से मैडम से कहा, आप मेरे साथ आइये मैं आपको देता हूँ। सुबीर महिला को उसी तेल के सेल्फ के सामने ले गया। सामने लगी शीशी को उठाते हुए बताया कि इन रोलर वाली  शीशियों में तेल के सैम्प्ल्स रखे हैं ताकि ग्राहक इनकी महक का परीक्षण कर सकें, ये बेचने के लिये नहीं हैं और इनके पीछे जो ये जो पैक और सील कि‎‎ये हुए हैं इनमें यही तेल हैं लेकिन इनकी शीशी का मुंह सपाट है, इनमें रोल्लेर्स नहीं लगे हुए हैं, इनसे बूंद टपकाई जा सकती है।

ओह, अच्छा, बस इतनी सी बात है। समझाना तो आता नहीं और बहस करते हैं’, महिला ने प्रशांत को घूरते हुए कहा और आगे बढ़ गई।  

प्रशांत कुछ कहने को उद्यत हुआ तभी सुबीर उन दोनों के बीच आ कर प्रशांत की ओर मुसकुराते हुए कहा, आई एएम ओके, यू आर ओके। प्रशांत के ओठों पर भी मुस्कुराहट आ गई, महिला बिलिंग सेक्शन की तरफ चली गई।

          बात सामान्य सी ही थी बस समझ का फेर था। कहने के पहले ध्यान से सुनिये कि दूसरा क्या कहा रहा है, तब प्रश्न कीजिये। अगर सामने वाला  समझ नहीं रहा है तो फिर से समझाने के पहले यह समझि‎‎ये कि उसके समझने में कहाँ भूल हो रही है। अनेक मनमुटाव, कलह, झगड़े और-तो-और युद्ध का कारण भी यही समझ का फेर होता है। इससे बचिये।

          अगर, आई एएम ओके यू आर ओके पसंद नहीं है तो दिल को हलकी सी थपकी देते हुए ऑल इज़ वेल भी कह सकते हैं।

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शुक्रवार, 22 मार्च 2024

रूपान्तरण


                     

आश्रम में आये अभी कुछ ही दिन हुए थे। लेकिन धीरे-धीरे पूरा शरीर विशेष कर दोनों पैर और कमर साथ नहीं दे रहे थे, पूरे बदन में दिन भर दर्द रहता था। चलना-फिरना, उठना-बैठना दूभर हो रखा था। किसी भी कार्य में एकाग्रता नहीं हो रही थी। पीड़ा के कारण आत्म-विश्वास की भी कमी हो गई थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ और क्या करूँ? केवल बिस्तर पर पड़े रहने से ही आराम मिल रहा था। आश्रम का कोई भी कार्य दिया जा रहा था तो बिना सोचे और लज्जा का अनुभाव किये तुरंत मना कर रहा था। क्या करता शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से लाचार था। कमरे में पड़े-पड़े निबंधों को जाँचने का काम, कुछ नया लिखने- पढ़ने का काम भी नहीं कर पा रहा था। आश्रम में इस प्रकार पड़े रहने में शर्म भी महसूस हो रही थी। अंग-प्रत्यंग ही नहीं बल्कि आवाज में भी पीड़ा की झलक थी, चेहरे पर तो सब लिखा हुआ ही था। ज्योति दीदी ने भाँप लिया था शायद इसीलिये कई बार पूछ चुकी थीं, भैया, आप ठीक तो हैं न। क्या कहता, झिझक में सही बता भी नहीं पा रहा था।  हाँ, हाँ ठीक ही हूँ। यही कहता रहा।

          हर दिन की तरह आज भी मुंह-अंधेरे नींद खुल गई। आज तो बिस्तर से उठा ही नहीं जा रहा था। आज सुबह की सैर पर नहीं जा सकूँगा, यह निश्चय कर मुंह ढक कर वापस सो गया। लेकिन तभी चेतना उठ खड़ी हुई। कल की कक्षा में क्या पढ़ा-सुना? आवाज आई, उठ, आज अभी इसे आजमा कर देख ले कैसा रहता है।       

          कौन-सी कक्षा और क्या पढ़ाई? संकल्प, अभीप्सा और अध्यवसाय। श्री अरविंद और श्री माँ की कृतियों से चयनित अंशों पर आधारित पुस्तक ‘Living Within’ का हिन्दी रूपान्तरण आंतरिक रूप से जीना हमारी मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य और प्रगति के लिये सहायक पुस्तक है। इस पुस्तक की चल रही कक्षा में कल का यही विषय था – संकल्प, सच्चाई या अभीप्सा और अध्यवसाय से हम कैसे रूपांतरित हो सकते हैं, कैसे? कल इस अनुच्छेद को हमने पढ़ा था –

“पहला पग है : संकल्प। दूसरा है सच्चाई और अभीप्सा। परन्तु संकल्प और अभीप्सा लगभग एक ही चीज है, एक-दूसरे के अनुगामी हैं। फिर है, अध्यवसाय। हां, किसी भी प्रक्रिया में अध्यवसाय आवश्यक है, और यह प्रक्रिया क्या है?... प्रथम, निरीक्षण और  विवेक करने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, अपने अन्दर प्राण को खोज निकालने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, नहीं तो तुम्हारे लिये यह कहना कठिन हो जायेगा कि, "यह प्राण से आता है, या मन से आता है, यह शरीर से आता है।" प्रत्येक चीज तुम्हें मिली-जुली और अस्पष्ट प्रतीत होगी। बहुत दीर्घकालिक निरीक्षण के बाद, तुम विभिन्न भागों के बीच विभेद करने तथा क्रिया का मूल समझने में समर्थ हो सकोगे। इसमें अत्यंत लंबे समय की आवश्यकता होती है, परंतु मनुष्य तेज भी जा सकता है। ( पृ 92)

          इस पर चर्चा करते हुए ज्योति दीदी ने बताया कि मन केवल चंचल ही नहीं बहुत हठी भी है और समझदार भी, एक छोटे बच्चे की तरह। अपनी जिद नहीं छोड़ता और अपना कार्य करवाने के सब गुर जानता है। उसे डांट कर या मार कर नहीं समझाया जा सकता है। जैसे छोटे बच्चे को समझा-बुझा कर ही मनाया जा सकता है वैसे ही उसे समझाना होता है।

          इसे ही आजमाने का निश्चय किया, और मैंने एक छोटे बच्चे की तरह उसे समझाना शुरू किया – चल उठ खड़ा हो, नीचे चल।

 ऊँह, नहीं जाना, बहुत दर्द है, ठंड भी है और अभी तो दिन भी नहीं हुआ है। उसने तीन-तीन कारण गिना दिये। लगा स्थिति जटिल है, लेकिन आज मैं भी हारने के लिये तैयार नहीं था। धीरे-धीरे प्यार से समझाना शुरू किया, दर्द मिटाना है न, बिस्तर में पड़े रहने से दर्द कम नहीं ज्यादा हो जायेगा। तब चल-फिर और बैठ भी नहीं पाओगे। उठ गरम जैकेट पहन ले ठंड नहीं लगेगी और तैयार होते-होते दिन भी निकल आयेगा।

नहीं, आज नहीं कल’, उसने बहाना बनाया।   

आज नहीं जाओगे तो कल भी नहीं जाने सकोगे। दर्द बढ़ जायेगा, थोड़ा चलोगे तो दर्द कम हो जायेगा।

          लेकिन, शरीर किसी भी तरह उठने को तैयार नहीं हो रहा था। लेकिन आज मैं भी जिद पर था। तरह-तरह से समझाता रहा, अंत में उसके पसंदीदा रेस्टुरेंट में ले जाने का प्रलोभन दिया, तब शरीर कुछ हिला, तुम बहुत लंबा घुमाते हो, उतना नहीं घूम सकूँगा। इतने चक्कर नहीं लगाऊँगा।

अच्छा ठीक है आधा चक्कर ही लगाएंगे।

पक्का?’

हाँ पक्का’, मैंने वचन दे दिया।

आखिर शरीर मान ही गया। और हम घूमने उतर गये। लेकिन आधी दूरी पूरी हुई ही नहीं थी कि वह फिर से उठ खड़ा हुआ, आधा हो गया, अब वापस चलो।

नहीं’, मैंने अंगुली से दिखाया, वहाँ पहुंचने पर आधा होगा न।

चलो, अब लौटो, आधा हो गया। कुछ ही देर बाद उसने फिर से कहा।

हमलोग गोल-गोल घूम रहे हैं, आधी दूर आ गये, अब वापस जाएँ या आगे चलें बात तो एक ही है, तब आगे ही चलें’, मैंने समझाया।

उसे बात पसंद तो नहीं आई, षड्यंत्र की गंध आई  लेकिन मान गया। पूरा होने पर मैंने जैसे ही कदम आगे बढ़ाया, ये क्या! हो गया अब आगे नहीं।

अरे घूमने नहीं जा रहे हैं सामने श्री अरविंद को प्रणाम करके लौटेंगे। और इस प्रकार समाधि, फूल, तुलसी, मोर और सूर्योदय का लालच देकर मैंने दो चक्कर लगवा ही लिये।

          मन बहुत प्रसन्न था। अच्छा भी लग रहा था – शरीर और मन दोनों को। कल की पढ़ाई आज ही काम आ गई। संकल्प लिया मुझे आज ही ठीक होना है, सोच-विचार कर सुबह-सुबह दो-तीन उपचार किया और बात बन गई। सारी पीड़ा रफू-चक्कर हो चुकी थी और पूर्ण स्वस्थ्य महसूस करने लगा। दोपहर में भोजन-कक्ष में दीदी से मुलाक़ात हुई, मैंने चहकते हुए पूछा, दीदी, आज कैसा लग रहा हूँ।

अभी तो आप ठीक लग रहे हैं भैया।

अपने ही तो ठीक किया है

‘…….’ दीदी मुझे देखने लगी, मैंने पूरा वाकिया सुनाया।

मैंने नहीं, माँ ने ठीक किया है।

हाँ, लेकिन वे आईं तो आपके ही रूप में न।

मेरा रूपान्तरण हो चुका था।

         पढ़ने से, सुनने से, सोचने से कुछ नहीं होता। संकल्प लेकर पूरी सच्चाई और अभीप्सा से अध्यवसाय करने से ही फल की प्राप्ति होती है।

यह प्रत्यक्ष अनुभव था।

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https://youtu.be/0UcNBQz7HNs

शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

अराजकता के मध्य कैसे रहें शांत

( यह मेरे अपने जीवन के अनुभव हैं, कहीं सुनी या पढ़ी हुई नहीं। आप भी आजमा कर देखें। मैंने पहले से शुरू किया था बाकी एक के बाद एक स्वतः जीवन में उतरते चले गए, जीवन शांत होता चला गया।)

जिधर नजर घुमायें, उधर ही अशांति, मारकाट, तबाही, तनाव, अराजकता, हत्यायें, धर्मांधता, गणतन्त्र के  वेश में तानाशाही, नागरिक स्वतंत्रता और अधिकार का हनन, एक-के-बाद-एक, पूरे विश्व में।  अफगानिस्तान में तालिबन का कहर, सीरिया में अलग विक्षोभ, कोरोन की तबाही, यूक्रेन का न समाप्त होने वाला युद्ध स्पष्ट नहीं है कि यह कब और कैसे समाप्त होगा, पर्यावरण की दुर्दशा, दुनिया का अपेक्षा से कहीं अधिक तेजी से गर्म होना, बढ़ती घृणा और ईर्ष्या इन सब के प्रभाव से अनियंत्रित मंहगाई, अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई, असीमित लालच, अविश्वास का साम्राज्य - कहाँ तक गिनायें। मन को भले ही तसल्ली दें कि अब वापस सब यथावत हो गया / रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है। समय-असमय पर यह अशांत वातावरण बार-बार अपना सर उठा कर अपनी उपस्थिती दर्ज कराता रहता है। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां कुछ भी निश्चित नहीं है। भले ही कोविड अपने अंतिम खेल में हो, लेकिन इसका प्रभाव, दाग, घाव हर जगह दृष्टिगोचर है। हमारे लिए, आस-पास की अशांत दुनिया से अप्रभावित रहना मुश्किल है।



          बात यह है कि हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां अनिश्चितता ही एकमात्र निश्चितता है। हर किसी के मन के किसी कोने में एक अनजाना भय, डर, अशांति, असुरक्षा, चिंता, बेबसी, उदासी, असंतुलन …….  के एहसास ने अपना एक स्थायी स्थान बना लिया है। तब इस सब के मध्य हम कैसे शांत और सकारात्मक रह सकते हैं। अलग-अलग जगह से मैंने कई चीजें उठाईं और अपनाया। मैं अब पहले की तुलना में बहुत शांत हूँ, अप्रभावित हूँ, संतुलित हूँ। ये बहुत ही कठिन हैं, अगर आप में निश्चय की कमी है। लेकिन बहुत ही सरल हैं, अगर निश्चय कर लें, क्योंकि ये आप के खुद के वश में हैं किसी दूसरे पर आश्रित नहीं।

1.    मीडिया से बचें - हमारी अधिकतर मीडिया उत्तेजित लहजा और भाषा, तीखी बहस, दुष्प्रचार और घृणास्पद समाचारों और असंतुलित विचारों को ही प्रस्तुत करती हैं।  समाचार के नाम पर अपने विचार हम पर थोपने का प्रयत्न करती हैं। ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया को "बेवकूफों के लिए एम्पलीफायर" कहा जाता है। वे मुफ़्त हैं, क्योंकि हम ही उनके उत्पाद हैं। लगभग दो साल पहले, मैंने टीवी देखना बंद करने और सोशल मीडिया से अपने आप को अलग करने का फैसला किया। यह सुझाव मुझे भी मेरे एक मित्र ने दिया जब उसने मुझे कभी-कभी अप्रत्याशित रूप से तनाव या विषाद में देखा। मुझे उसका यह सुझाव बड़ा अजीब और अव्यावहारिक लगा। लेकिन उसकी दृड़ता के कारण, बतौर प्रयोग, एक सप्ताह के लिये मैंने यह सब बंद कर किया था। अब उसे बंद किए दो वर्ष हो चुके हैं। मुझे बाद में यह जानकार सुखद आश्चर्य हुआ कि मेरे जैसे अनेक लोगों ने मीडिया का बहिष्कार कर रखा है और सुखी हैं। यहाँ मैं मार्क ट्वेन की उक्ति भी उद्धृत करना चाहूँगा, जब हम अखबार नहीं पढ़ते तब हमारे पास खबरें नहीं होतीं लेकिन जब हम अखबार पढ़ते हैं तब हमारे पास गलत खबरें रहती हैं

2.    अपना समस्त ध्यान अपने प्रभाव क्षेत्र तक ही सीमित रखें – हम उन बातों पर, खबर पर, क्षेत्रों पर अत्यधिक ध्यान देते हैं जो हो सकता है हमें प्रभावित करती हों लेकिन वे हमारे अधिकार क्षेत्र या सामर्थ्य के बाहर हो। बहुत कुछ हो रहा है, जो नहीं होना चाहिए और बहुत कुछ नहीं हो रहा है लेकिन होना चाहिए। दुनिया में कोई कुछ भी कर रहा हो या न कर रहा हो उसकी चिंता मत कीजिये। न तो इसकी चिंता कीजिये और न ही इसकी परवाह कीजिये कि मेरे अकेला के करने से क्या होगा। यह अपनी सोच के अनुसार करना और न करना आपको अवसाद से बाहर निकाल कर सुखद, संतोष और आत्मानन्द के संसार में ले जाएगा। आप दूसरे को नियंत्रित नहीं कर सकते, लेकिन अपने आप को कर सकते हैं। सेवेन हैबिट्स ऑफ हाईली इफेक्टिव पीपल के लेखक स्टीफन कोव भी अपनी पुस्तक में यही सुझाव देते हैं कि हम उन चीजों पर ध्यान केंद्रित करें जिन्हें हम नियंत्रित ...... प्रभावित कर सकते हैं। इसके साथ-साथ मैं गांधी जी की सलाह को भी जोड़ना चाहूँगा हम दुनिया में जो बदलाव देखना चाहते हैं, हम खुद वैसे बनेंयह केवल आप को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को बदलने की ऊर्जा रखती है। मैं यूक्रेन, अफगानिस्तान, अमेरिका, रूस, मंहगाई के बारे में बहुत चिंतित नहीं हूं. मैं इनके बारे में नहीं बल्कि इस बारे में बहुत कुछ सोचता हूं कि मेरे पास साप्ताहिक ब्लॉग या मासिक सूतांजली के लिए आवश्यक सामग्री है या नहीं। मेरा लेख लिपिबद्ध तैयार है या नहीं। मैं यह नहीं सोचता कि कोई मेरे पोसटिंग्स देख रहा है या नहीं, कितनों ने इसे लाइक किया या सबस्क्राइब किया। मुझे लगता है मुझे करना चाहिए और मैं कर रहा हूँ। मैं उन लोगों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर सकता जो नफरत फैला रहे हैं लेकिन मैं प्यार फैलाना और अपने आस-पास के विभाजन को ठीक करने का प्रयत्न कर सकता हूं और कर रहा हूँ। मैंने इसके  प्रभाव को भी महसूस किया है। मैं अपने बारे में बेहतर महसूस करता हूं। मुझे छोटी-छोटी हरकतों से ऊर्जा मिलती है और धीरे-धीरे मेरे प्रभाव का दायरा भी बढ़ रहा है।

3.   सही साथियों को चुनिये – जिनके साथ आप अधिक समय बिताते हैं। आपके आस-पास के लोगों का आपके विचारों, भावनाओं, व्यवहारों आदि पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। अतः इस बात का ध्यान रखें कि जिनके साथ आप उठते-बैठते हैं वे सकारात्मक सोच के लोग हों, सहृदय हों, विचारवान हों, प्रेम से भरे हों। इनके विपरीत जिनमें नकारात्मकता हो और विचारों में कडुआहट हो, विष हो उनकी संगत छोड़ दीजिये। उनके सोशल पोसटिंग्स मत देखिये, ऐसे व्हाट्सएप्प ग्रुप या तो छोड़ दीजिये या ऐसी पोसटिंग्स करने वालों को ब्लॉक कर दीजिये।

4.    नियमित ध्यान करें -  हाँ, यह अत्यावश्यक है। जहाँ असाधारण समय में, हमारे चारों ओर सब स्थायित्व पिघलता जा रहा है, जहां घटनाएं आवाज की गति से घट रही हैं, क्या सही है और क्या गलत यह समझने का अवसर ही नहीं मिलता है, ऐसे समय में सचेत रहने और परिवर्तनों से निपटने की कुंजी हमारे अन्तर्मन में ही है। दार्शनिकों का मानना है कि हमारी खुशी में सबसे बड़ी बाधा यही है कि हम में से अधिकांश के लिए अपने विचारों, मन की निरंतर ऊहापोह, बाहरी शोरगुल के बीच हमारी अपनी पहचान का गुल हो जाना। जब हम ध्यान में  बैठते हैं तब हम अपने आप को, अपने विचारों को एक अलग आसमान में उड़ते बादल की तरह अलग से देख और परख पाते हैं। हमारी अपने से, जो कहीं खो गया था, मुलाक़ात हो जाती हैहम जैसे दिखते हैं उसकी तुलना में  हम बेहतर हैं, ध्यान में हम इस हम से मिलते हैं।  हमारा आत्म साक्षात्कार होता है। अपने से अपनी यह मुलाक़ात हमें सुकून देती है।

5.     आध्यात्मिक जीवन का विकास करें – हमें यह सिद्दत से महसूस करना चाहिए कि हम  आध्यात्मिक अनुभव रखने वाले मानव नहीं, हम आध्यात्मिक जीव हैं जो मानवता का अनुभव रखते हैं। समय-समय पर हमें किसी बड़ी चीज की झलक मिलती है, जो हमें यह अहसास कराती है कि हम एक बड़े खेल का एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं। उस क्षण में, हमारी सारी चुनौतियाँ, जो कुछ भी चल रहा है, वह सब महत्वहीन हो जाती है। उस पल में हम जानते हैं कि यह सब क्षणिक है, यह ज्यादा समय नहीं रहेगा और सब कुछ ठीक हो जाएगा। आप किसी भी धर्म को मनाने वाले हों या किसी भी धर्म को नहीं मानते हों, आप किसी भी ईश्वर या प्रकृति या अदृश्य शक्ति या तकदीर या कर्म को मनाने वाले हों, युक्ति यह है कि आप जो भी आध्यात्मिक अभ्यास उपयोगी पाते हैं, उनके माध्यम से इन क्षणों को बार-बार अधिक बार अनुभव करने में अपने को सक्षम बनाएँ।

यह आवश्यक नहीं है कि इन पांचों बातें को एक साथ अपनाएं। आपको इनमें जो भी सबसे ज्यादा सरल अनुभव होता है वहीं से शुरू करें।  निरंतर अपनी अशांति का कारण ढूंढिये और उसका उपचार करते चलिये। फिर अगर लगता है कि आपके जीवन में शांति कुछ बढ़ी है, संतुलित हुई है तब एक-के-बाद एक अपनाते जाएँ और बदलते जीवन को अनुभव करें।

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शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

दोषी कौन?

बुधवार, 3 नवंबर 2021। रोज की तरह एक नई सुबह, फर्क केवल इतना है कि इस वर्ष आज छोटी दीवाली भी है। आज भी, माधुरी सुबह-सुबह फिर सैर पर निकली। सुबह बस हुई ही है। गर्मी जा रही है ठंड दस्तक दे रही है। मौसम सुहावना है, सुहाती ठंडी बयार चल रही है। हमारा कोलकाता जल्दी उठने वाले शहरों में है। उस पर भी श्यामनगर, बांगुड़ के इलाके में दिन जल्दी हो जाता है। लोग घूमते-फ़िरते दिखते हैं। इलाका सुनसान नहीं रहता।

          माधुरी के कई संगी-साथी हैं जो साथ-साथ घूमते हैं। लेकिन आज वह अकेली है, उसकी एक भी संगी-साथी उसके साथ नहीं है। लेकिन ऐसा कई बार होता है। माधुरी नि:शंक प्रसन्नचित्त सैर करती है, दशकों से। त्यौहार पर बहुत व्यस्तता है, दिन भर क्या-क्या करना है इस पर चिंतन चल रहा है। तभी, एक मोटर साइकिल उसके समीप आती है, उस पर सवार सिरफिरे युवा उसके हाथ से फोन छिन लेते हैं। जैसे ही वे भागने को उद्यत होते हैं, माधुरी उनसे हाथापाई करने लगती है। उनमें से एक माधुरी को ज़ोरों का धक्का देता है, वह गिर पड़ती है। लेकिन फिर तुरंत खड़ी होकर उनकी मोटर साइकिल का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती है। सवार तेजी से उसकी तरफ अपनी मोटर साइकिल बढ़ाता है। माधुरी रास्ता नहीं छोड़ती। मोटर साइकिल उसके नजदीक आती जा रही है और उसकी गति  (स्पीड) भी बढ़ती जा रही है। माधुरी समझ लेती है कि अगर वह नहीं हटी तो वे उसे मोटर साइकिल से कुचलते हुए भागेंगे। वह हट जाती है, पूरे ज़ोर से चिल्लाती भी है लेकिन किसी के भी कानों पर जूँ नहीं रेंगती। न कोई उसे उठाने आया, न किसी ने भी सहायता की, न किसी ने भागते मोटर साइकिल को रोकने की चेष्टा की। सब निर्विकार बुत बने खड़े रहे।

          माधुरी थाने पर पहुँचती है। अधिकारी उसे ज्ञान देते हैं - उनसे हाथापाई नहीं करनी चाहिए, वे जो मांगे दे देना चाहिए। ऐसी घटनाएँ बहुत हो रही हैं, फोन हाथ में नहीं रखना चाहिए, अकेले नहीं घूमना चाहिए……… । और अंत में FIR में खो जाने (लॉस्ट) की बात दर्ज करते है, छिनताई (स्नैचिंग) दर्ज से मना कर देते हैं। माधुरी मगजपच्ची कर, हल्ला मचाकर चली आती है, थाने वाले टस-से-मस नहीं होते। और इस प्रकार हुआ पटाक्षेप इस घटना का।

          लेकिन बात यहाँ समाप्त नहीं होती। सही बात तो यह है कि बात यहाँ से शुरू होती है। यह घटना तो सिर्फ उसके बाद का परिणाम मात्र है। केवल पत्तों, डालों, काँटों को काटने-उखाड़ने से कुछ हासिल नहीं होता। पेड़ को जड़ समेत उखाड़ना होगा। हमें पहुँचना होगा इसकी जड़ तक और उपचार वहाँ करना होगा। चेष्टा करें जड़ तक पहुँचने की। कहाँ और कौन है जड़:

मोटर साइकिल में सवार युवा? : नहीं, समाज ने उन्हें न सुरक्षा दी न सही शिक्षा

प्रशासन?                            : नहीं, जैसे विधायक हैं, समाज है वैसा ही प्रशासन

तब क्या विधायक?               : नहीं, उन्हें चुना तो समाज के लोगों ने ही

हम / समाज?                       : विचार करें, शायद ये ही हों  



घटना के बाद मित्र, परिचित, सम्बन्धी जिसको भी इसकी जानकारी मिली  सब ने एक ही बात कही  समय बहुत खराब, तकदीर अच्छा है केवल एक फोन पर संकट टला, वे लोग छुरा मार सकते थे, गोली चला सकते थे, हड्डी-वड्डी टूट सकती थी, ये अकेले-दुकेले नहीं होते, इनका पूरा गैंग होता है, प्रतिरोध तो करना ही नहीं चाहिए, जो मांगे चुपचाप देकर जान छूटा लेनी चाहिए.......। पूरे डरपोक और नपुंसक समाज ने मिल कर फिर एक बार:

राम, कृष्ण, अर्जुन का पक्ष त्याग दिया

रावण, कंस, दुर्योधन के पक्ष में खड़ा हो गया

भगत सिंह, चंद्र शेखर आजाद, नेताजी, गांधी को भुला दिया

हम जब डरपोक और निष्क्रिय हो जाते हैं, समाज में ऐसे लोग ही बहादुर और सक्रिय हो जाते हैं। भले ही हम करोड़ हों और वे लाख। 

यह प्रसन्नता की  बात है कि सिर्फ माधुरी के पति ने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की, बल्कि उसने कहा कि ऐसी अवस्था में उसकी आँखों पर हमला करना चाहिए, परिणाम चाहे जो हो। 

क्या ये लोग 47 के पहले के प्रशासकों-विधायकों से ज्यादा ताकतवर हैं?

या हम, उस समय के लोगों के जैसे ताकतवर नहीं रहे?

या हम कमजोर हो गए?

या फिर स्वार्थी हो गए हैं?

कहाँ है इसकी जड़?

कौन है दोषी?

क्या हम उपचार करना चाहते हैं?

(आइए अब एक सपना देखते हैं – “फोन छिन कर भागने पर माधुरी चिल्लाई उन्हें पकड़ो-पकड़ो। कोई नहीं हिला। एक अधेड़ – बुजुर्ग सब देख रहा था। किसी को कुछ भी न करते देख उसने तुरंत झुक कर हाथों में पत्थर उठा लिए और डट कर खड़ा हो गया। मोटर साइकिल सवारों को कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उन्होंने मोटर साइकिल की गति और तेज कर दी। अधेड़ ने अंदाज से पूरे ताकत से पत्थर उठा कर उन पर मारा, चालक को लगा, डगमगाया, पिछली सवारी गिर पड़ी। अधेड़ ने एक और पत्थर दे मारा। इस बार निशाना तो चूक गया लेकिन अब दर्शकों में जान आई और चालक भाग खड़ा हुआ, सवार भीड़ के हत्थे चढ़ गया। जनता ने पहले उसकी धुनाई की, फिर थाने पहुँचे, फोन मिल गया और छिनताई (स्नैचिंग) की कोशिश की FIR दर्ज कर ली गई। न विधायक आड़े आया न प्रशासन। कार्य किया जागरूक समाज ने। सपना यहाँ समाप्त नहीं हुआ, डरपोक लोगों ने पूछना शुरू किया इसके बाद क्या हुआ? उन्हें तो तभी संतोष होगा जब गुनहगार जीतेगा और निरपराधी भोगेगा। आप विरोध नहीं कर सकते हैं तो कम-से-कम पाप का विरोध करने वालों का साथ तो दीजिये! )

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अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको कैसा लगा और क्यों? आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।

 यू ट्यूब लिंक -> https://youtu.be/lTScgAV7CXk


शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

कोरोना काल में यात्रा

 किसी भी बीमारी के लिए अगर यह पूछा जाए कि उसका प्रकोप कब प्रारम्भ हुई, तो इसकी एक तिथि नहीं बताई जा सकती। लगभग .......... समय प्रारम्भ हुई – ऐसा ही कहा जा सकता है। दुनिया में कोरोना के प्रारम्भ होने का समय अलग है भारत का अलग। कोरोना भारत में कब प्रारम्भ हुआ? अलग-अलग तर्क हैं, समय हैं और अगर उन तर्कों को सुनें तो सब अपनी-अपनी जगह सही भी हैं। यहाँ हम अपनी सुविधा के लिए यह मान लेते हैं कि भारत में कोरोना कि यात्रा उस समय प्रारम्भ हुई जिस दिन पहली बार हमारे प्रधान मंत्री ने कुछ घंटों का और फिर सप्ताहों का देश व्यापी बंद या कर्फ़्यू का ऐलान किया। ठीक इसके पहले मैं ऑस्ट्रेलिया में था और उसकी धमक हम ने अपनी वापसी यात्रा में  महसूस कर ली थी। एयरलाइन्स ने हमारी यात्रा में बड़ा बदलाव कर दिया था और सिडनी से कोलकाता तक की यात्रा में हमें दो जगहों पर अपना विमान बदली करना पड़ा था और हर जगह कोरोना का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर था।

          खैर, हम सही सलामत कोलकाता पहुँच गए और उसके बाद भी, भागवत कृपा से, सही रहे। कोलकाता पहुँचने के पहले से ही हमने एक-के-बाद एक तीन यात्राएं निर्धारित कर रखी थीं, जिन्हें कोलकाता पहुँचने के बाद बड़े भारी दिल से रद्द करना पड़ा था। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबन्धों में ढील मिलनी प्रारम्भ हुई – सीमित संख्या में हवाई, रेल और सड़क मार्ग को खोलने का कार्य आरंभ हुआ। जैसे-जैसे ये प्रतिबंध कम होने लगे मैं फिर से बाहर जाने के लिए छटपटाने लगा। आखिर जनवरी 2021 के अंतिम सप्ताह में कोलकाता के बाहर पहला कदम रखा। तब से अब तक मैं दिल्ली, ऋषिकेश, उत्तराखंड में – देवप्रयाग, तिलवारा, गुप्तकाशी, उखीमठ, जोशिमठ, रुद्रप्रयाग – एवं इंदौर की यात्रा  कर चुका हूँ। ये यात्राएँ कई चरणों में हुई और इस दौरान मैं ने हवाई, रेल और सड़क मार्गों का उपयोग किया।  कोरोना काल में लोग हवाई यात्रा को सबसे सुरक्षित एवं सुविधापूर्ण मानते हैं। इन यात्राओं के दौरान मेरा अनुभव कुछ अलग ही रहा। कौन-सी निरापद है और क्यों, कौन-सी सुखद है और क्यों इसका निर्णय तो आप खुद ही अपनी सुविधानुसार कीजिये। हाँ प्रारम्भ करने के पहले मैं यह बता दूँ कि यात्रा खर्च हमारे लिए प्रमुख नहीं रहा। प्रमुखता थी सुखद एवं निरापद। तब आइए, ले चलता हूँ अपनी यात्रा के अनुभवों पर:

 

हवाई यात्रा

ये यात्राएं ऋषिकेश से कोलकाता, दिल्ली होते हुए, दिल्ली से इंदौर और वापस तथा दिल्ली से कोलकाता की हुईं। ये यात्राएं इंडिगो से हुईं सिर्फ अंतिम यात्रा, दिल्ली से कोलकाता तक की एयर इंडिया से हुई। एयर इंडिया के सामने इंडोगों कहीं नहीं ठहरती – बैठने के लिए ज्यादा जगह, पैर फैलाने की जगह, 25 किलो समान बिना अतिरिक्त खर्च के, भाड़ा इंडिगो के बराबर, भोजन में चावल के अतिरिक्त रोटी / पराठा भी उपलब्ध।  

हवाई यात्रा, समय की बचत के लिए सही हो सकती है, लेकिन सुविधा और निरापद तो है ही नहीं। बैगेज़ ड्रॉप तक हमें ट्रॉली मिली,  लेकिन ट्रॉली हमें ही लेनी और ले जानी पड़ी, चेक-इन तक और फिर उसे बेल्ट पर चढ़ाया भी हमी ने, उसके बाद वहाँ से विमान में ओवर हैड तक ले जाना और चढ़ना भी हमें ही पड़ा। बीच में सुरक्षा जाँच पर भी पूरी जद्दोजहद भी हमें ही झेलनी पड़ेगी। यही हाल गंतव्य स्थल पर है। विमान से लेकर टैक्सी तक हमारा ही सर-दर्द है। बैगेज ड्रॉप से लेकर विमान तक की यात्रा भी अनेक बार काफी लंबी रही। विमान में खाना इतना की भूख शांत हो जाए लेकिन मिटे नहीं। वरिष्ठ नागरिक होने के कारण कहीं-कहीं थोड़ी सुविधा थी, यानि पंक्ति को पार कर आगे जाने मिला – अत: ज्यादा खड़ा नहीं रहना पड़ा, सहायता के लिए अन्य यात्रियों या विमान कर्मचारियों ने – विमान के अंदर और एयरपोर्ट पर - अपने हाथ बढ़ाये।  

          और निरापद! ऐसी मारामारी और एक-दूसरे पर चढ़ना, भगवान बचाए –लगा कि विमान नहीं स्थानीय सरकारी बस में चढ़ने और अपनी सीट रोकने का तमाशा चल रहा है। एयरपोर्ट में प्रवेश के लिए, एक्स-रे के लिए अगर जरूरत है तो, चेक-इन या बैगेज़ ड्रॉप के लिए, सुरक्षा जाँच के लिए, विमान में चढ़ाने के लिए और अंत में अपनी आरक्षित कुर्सी तक पहुँचने के लिए, हर जगह लोग एक दूसरे पर चढ़े हुए। बस धकेल-धकेल कर बढ़ते जाइए और तमाशा देखते रहिए, कुछ नहीं कर सकते। इन सब यात्राओं में इसी दौर से गुजरा। 1 या 2 जगह छोड़ कर आप पंक्ति के समाप्त होने का इंतजार भी नहीं कर सकते हैं, हर जगह अंत-हीन लोग हैं। और मैं यह तो लिखना ही भूल गया की अंत में अपनी कुर्सी पर पहुँचने के बाद भी शांति नहीं, अगल-बगल वाले के साथ सट कर ही  बैठना है। है तो मजेदार बात?

 

रेल-यात्रा

यह यात्रा मैंने दो बार की, दोनों बार कोलकाता से दिल्ली जाने के लिए, राजधानी एक्सप्रेस से। अपने घर के कमरे से लेकर रेल की सीट तक सहयोगियों ने पूरा सामान सही ढंग से व्यवस्थित कर दिया। स्वेच्छा से मैंने कुछ सामान उठा लिया अन्यथा आवश्यकता नहीं थी। वैसे ही गंतव्य स्थान पर रेल की सीट से लेकर टैक्सी में व्यवस्थित करने तक मुझे कोई सामान छूने की भी जरूरत नहीं पड़ी।  रेल में बिस्तर एवं पकाया खाना नहीं मिला। लेकिन हमारे साथ बिछाने-ओढ़ने की चद्दरें थीं, एसी ज्यादा ठंडा नहीं था – सुहावना था, खाने की पर्याप्त सामग्री हमारे साथ थी। गरम एवं ठंडा पेय तथा पैकेज्ड भोजन उपलब्ध था। सैनीटाइजर साथ था, जिसका बिना मोह-माया का हमने प्रयोग किया, हैंडल-सीट-दरवाजे-टॉइलेट-एवं अन्य हर कुछ को साफ करने के लिए। यात्रियों की आवाजाही नहीं के बराबर थी। सब अपनी अपनी सीट पर व्यवस्थित थे। किसी से भी न सटने की जरूरत थी न ही मजबूरी। मुझे काफी निरापद और आराम दायक यात्रा महसूस हुई।

 

सड़क-मार्ग – बस

यह यात्रा दिल्ली से ऋषिकेश के मध्य सरकारी वॉल्वो बस में, अपने एक परिचित के सुझाव पर किया। यात्री कम थे अत: आवाजाही कम थी। लेकिन वॉल्वो बस का आभास और आराम नहीं मिला, शायद बस का रख-रखाव सही नहीं था। निरापद और सुविधा पूर्ण नहीं थी।

 

सड़क-मार्ग – गाड़ी (टॅक्सी)

अगर उत्तराखंड में पहाड़ों पर यात्रा कर रहे हैं तो इसका हमारे पास इसका विकल्प है ही नहीं। ऐसी यात्रा में सुखद और आरामदायक का होना तो निर्भर करता है अपने साथी और गाड़ी चालक पर। साथी हमारे मस्त थे, खुशहाल, खिलखिलाती हँसी हँसने, बातूनी और जानकार भी। चालक फिफ्टी-फिफ्टी। निरापदता तो अपने हाथ में थी। इस समय तक रोग का भय समाप्त प्राय: था, उत्तराखंड वैसे भी निरापद था, अत: हमारा ध्यान इस पर ज्यादा नहीं था। यात्रा भी बड़ी आनंददायक रही।

 

निष्कर्ष

हमें तो  हवाई मार्ग की तुलना में रेल मार्ग ज्यादा निरापद, आरामदायक और सुखद लगी। न कहीं रेलम-पेल, न कहीं सामान की चिंता, न लोगों का सट-सट कर चलना-उठना-बैठना, न कोई बोझ उठाना-न किसी से मतलब। सैनीटाइज़र की शीशी हाथ में, जहाँ मन हुआ छिड़क लिया। लंबे होकर सो लिया, मन-मुताबिक सामान बाँध लिया – सब यात्राएँ लंबी होने के कारण ज्यादा सामान की कोई कटाई-छाँटाई भी नहीं करनी पड़ी।   

          आप और किसी भी प्रकार की जानकारी चाहते हैं तो मुझ से संपर्क कर सकते हैं। आप का स्वागत है। इस विवरण को लिखने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि यात्राओं की कठिनाई और सुविधा से पाठकों को अवगत कराना। अगर आप को इससे जरा भी सुविधा या जानकारी मिली तो मेरा यह लेखन सफल रहा।

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आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से बाँटना चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं। हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।

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शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

फकीरी...की ...अमीरी ...की... फकीरी

इस आश्रम में आने की इच्छा तो 2020 के मार्च से ही थी लेकिन कभी कोरोना और कभी व्यक्तिगत कारणों से आना न हो सका। आखिर सब नकारात्मक विचारों को दरकिनार कर जुलाई, 2021 की गर्मी में हम यहाँ पहुँच ही गए। सूर्य देव ने पूरे उत्साह से हमारा स्वागत किया। हमने भी आत्मसमर्पण करते हुए उनके स्वागत को स्वीकार किया। शीघ्र ही  वरुण देव को हमारे स्वागत में लगा, सूर्य देव ने खुद भी साँस ली और हमें भी थोड़ी राहत दी।  



किसी भी आश्रम में, बिना किसी विशेष प्रयोजन के इतने लंबे समय तक रहने का पहला अनुभव है। इसके पहले पूना के नजदीक चिन्मय मिशन के चिन्मय विभूति में भी लंबे समय तक ठहरने का मौका मिला। लेकिन वहाँ गीता-ज्ञान-यज्ञ और फिर सम्पूर्ण-मानस के आयोजन में गया था। लेकिन यहाँ आने का प्रयोजन केवल आश्रम में रहना और यहाँ के कार्यों में हाथ बँटाना है। 

अब नाम में आश्रम है तो आश्रम तो कहना ही पड़ेगा। लेकिन एक आम भारतीय के मन में आश्रम के नाम से जो छवि उभरती है वैसा कुछ नहीं है। न कोई भजन-कीर्तन, न प्रवचन-गोष्ठी, न कोई मंदिर-पुजारी, न कोई विशेष वेश-भूषा, न कोई विशेष सम्बोधन। उम्र चाहे जो भी हो, चाहे जो पद हो, ट्रस्टी हो या सफाई पर्मचारी, सब या तो भैया हैं या दीदी। प्रत्येक आश्रमवासी अपनी योग्यतानुसार किसी-न-किसी प्रकार का सहयोग करता रहता है और आश्रम का काम बढ़ता रहता है। प्रात:, सूर्योदय के साथ-साथ उठकर कमरे से बाहर आश्रम के उद्यान में आयें तो प्रशिक्षण के लिए आए हुए बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों और आश्रमवासियों के दर्शन होंगे। आश्रम के खेतों में, बगीचे में, समाधि पर, भवन में सब मिलकर एक साथ श्रमदान करते हैं। इससे परिसर स्वच्छ और परिष्कृत बना रहता है। विशेष अवसरों, तिथियों एवं त्यौहारों पर ये सब ही मिलकर सजावट करते हैं और सुंदर, मनमोहक, आध्यात्मिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत करते हैं। तत्पश्चात सब अपने-अपने दैनिक कार्य, शिक्षण-प्रशिक्षण और उत्तरदायित्व के निर्वाह में तल्लीन हो जाते हैं।  

बड़े भू-खंड पर प्रकृति की छटा बिखरी हुई है। न जाने कितने किस्म के फल-फूल, सब्जी की हरियाली, सुगंध और सुंदरता हर वक्त चारों तरफ बिखरी रहती है। आपका मन, आपकी आत्मा के अनुसार जिसे पसंद करता है उठा लेता है, उसी में सरोबार हो जाता है, उसी का आनंद लेता है। सादगी पूर्ण सीधा-सादा जीवन। आश्रम भरा रहता है लोगों से, लेकिन किसी की आवाज़ नहीं सुन पड़ती। नहीं, गलत कह गया, आश्रम में बहुत शोर है।  दिन भर मोर, तोते, कोयल, मैना, गिलहरी और न जाने कितने पशु-पक्षियों के दर्शन होते रहे हैं और उनका संगीत कानों में पड़ता रहता है। जब सब एक साथ बोल उठते हैं तब तो ऐसा लगता है जैसे कई साज़ एक साथ बज उठे हों, संगीतज्ञों की महफिल सजी हो। कभी-कभी तो युगलबंदी भी सुनने को मिलती है। पूरी तरह से स्वच्छंद, उन्मुक्त, स्वतंत्र खुले आसमान के नीचे एक पक्षी-गृह। किसी एक जगह बैठ कर दत्तचित्त हो कर गिलहरियों या पक्षियों की भाग-दौड़, चुहुल-बाजी, अटखेलियाँ देखिये। तुरंत आपको इसमें एक लय-बद्धता नजर आयेगी। रूसा-रूसी, मान-मुनव्वल, प्यार-मुहब्बत, दौड़ा-दौड़ी, पकड़ा-पकड़ी, खेल-कूद ही नहीं मार-पीट और झगड़े भी दृष्टिगोचर होंगे। सृष्टि के सिद्धांत के अनुसार सृष्टिकर्ता ने मानव के पहले पशु-पक्षी का निर्माण किया था। अत: यह निश्चित है कि मानव नहीं ये पशु-पक्षी ही मानव के शिक्षक रहे हैं।  

                  वह फकीर फकीर नहीं, जो दिल का अमीर नहीं,

                        वह अमीर अमीर नहीं, जो दिल का फकीर नहीं।

अमीर और फकीर शब्द का इससे बढ़िया प्रयोग मैंने न देखा और न सुना। आपने अनेक अमीरों का नाम सुना है जो फकीर नहीं हैं, अनेक फकीर हुए हैं जो अमीर नहीं हैं। वहीं ऐसे अमीर भी हैं जिन्होंने फकीरी की है तो ऐसे फकीर भी हैं जो अमीर हैं। देशी अमीर, जिन्होंने फकीरी भी की, हैं - टाटा, मूर्थी, अजीमजी आदि। तो विदेशियों में बिल गेट्स, मार्क जुकरबर्ग, वारेन बुफ़्फ़ेत्त, जॉर्ज सोरोस आदि का नाम ले सकते हैं। इन्होंने मिलियन-बिलियन का दान दिया लेकिन मिलियन-बिलियन रख भी लिया। अपना सर्वस्व देने वाले कितने और कौन हैं? ऐसा नहीं है कि नहीं हैं लेकिन उन्हें दुनिया कम जानती है। सर्वस्व यानि – अपना सब कुछ – तन, मन, धन – बल्कि इससे भी आगे बढ़ कर खुद को ही नहीं बल्कि अपने परिवार और बच्चों तक को दान में दे दिया। खोजिए, शायद कोई- न-कोई मिल ही जाएगा।  

अभी, पिछले एक महीने से मैं ऐसे ही एक अमीर-फकीर द्वारा दान में दी गई संपत्ति, जिसे आज हम श्री अरविंद आश्रम-दिल्ली शाखा  के नाम से जानते हैं, में रह रहा हूँ। और जिस फकीर की बात कर रहा हूँ वे थे श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर, जिन्हें सब चाचाजी के नाम से जानते हैं। कब, कहाँ, कैसे प्रेरणा मिली और 

उन्होंने अपना सर्वस्व श्रीमाँ के चरणों में अर्पित कर दिया! जब-जब बच्चे हुए, उन्हें भी श्रीमाँ की गोद में दे आए। उनकी इच्छा थी कि दिल्ली छोड़ कर पांडिचेरी चले जाएँ, लेकिन श्रीमाँ ने ही उन्हें रोका, दिल्ली में शाखा प्रारम्भ करने कहा। और व्यापार? श्रीमाँ ने साफ शब्दों में कहा, यह पूरा कारोबार अब से मेरा (श्रीमाँ का) है और वे (चाचाजी) उनके व्यापस्थापक के रूप में कार्य संभालेंगे। उसके बाद से सभी अहम फैसले श्रीमाँ की जानकारी नहीं अनुमति से ही लिए जाते थे। और तो और पदाधिकारियों की नियुक्ति भी श्रीमाँ की मंजूरी से ही होती थी। कई व्यापारिक फैसले, जिन्हें चाचाजी ले चुके थे, को श्रीमाँ ने अनुमति नहीं दी। फलत: चाचाजी को अपना फैसला बदलना पड़ा। कुछ समय बाद चाचाजी को अनुभव हुआ कि वे फैसले गलत थे और उन्हें रद्द कर देने के कारण वे बहुत बड़े घाटे / धोखे से बच गए। 

पहले किसी से बात होती थी तो मैं कहता था कि मैं दिल्ली में हूँ। लेकिन अब नहीं कहता, बताता हूँ कि में श्री अरविंद आश्रम में हूँ।  दोबारा पूछने पर बताता हूँ कि यह आश्रम दिल्ली की सहरद में है लेकिन दिल्ली में नहीं। यहाँ न दिल्ली का शोरगुल है, न प्रदूषण, न दिल्ली की भाषा, न दिल्ली की संस्कृति। यहाँ पूरे भारत के लोग आते हैं, रहते हैं, पूरा भारत बसता है। विदेशियों की भी कमी नहीं रहती। फिलहाल अभी कोरोना के चलते विदेशी नहीं दिखते।  



सच, अगर आगमन के साथ ही सूर्यदेव के स्वागत से डर कर हम पलायन कर जाते तो जीवन के इस एक अप्रतिम अनुभव से वंचित रह जाते। चाचाजी, श्रीमाँ और श्री अरविंद को सत-सत प्रणाम।  श्रीअरविंद का दर्शन, श्रीमाँ का आशीर्वाद और  चाचाजी की फकीरी को श्रद्धा सुमन।

                जगत की जननी जगत की माता, नमस्ते पहुँचे तुम्हें हमारा |

                                जगत के आधार विश्वकर्त्ता, नमस्ते पहुँचे तुम्हें हमारा ||

-        सुरेन्द्रनाथ जोहर 'फ़क़ीर'

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