नरेन्द्र कोहली
(महासमर)
जो अपने मन में होता
है, वही सारे संसार में भासित होने लगता है.
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स्थापित सत्य को
चुपचाप मान लेना धर्म है या अधिकार के औचित्य का प्रश्न उठाना धर्म है? ........
धर्म कि गाति अति सूक्ष्म है.
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अपनी भूल के लिए क्षमा
नहीं, दण्ड मांगना सीखो. न्याय और सत्य का सिद्धांत यह कहता है कि यदि हम अपने
धनात्मक कार्य के लिए पुरस्कार कि अपेक्षा रखते हैं, तो अपने ऋणात्मक कार्य के लिए
दण्ड कि अवग्या नहीं करनी चाहिए.
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पुरुष पर उसकी माँ से
अधिक उसकी पत्नी का नियंत्रण होता है. माँ बनकर स्त्री प्रतिद्वंद्विता में सदा
हांरी है.
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पुरुष स्वयं को कितना
ही शक्तिशाली माने, कितना संकल्पवान और दृढप्रतिग्य माने ..... वह सब तभी तक है,
जब नारी उसे विजय करने के अभियान पर नहीं निकलती.
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ऋषियों ने जो नियम
बनाये हैं, वे समाज का हित ध्यान में रखकर बनाये हैं; और वे लोग आज भी उस पर दृढ़
हैं. ..... उसमें उनका निजी स्वार्थ नहीं है. ...... किन्तु राज समाज जो नियम बना
रहा है, वह अपने स्वार्थ और अहंकार के अधार पर बना रहा है. उसमें व्यक्तिगत दृष्टि
ही है .....समाज का हित उनके ध्यान में नहीं है.
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जब कभी शत्रुभाव
रखनेवाला कोई व्यक्ति बहुत आत्मीयता जताए तो उसे शंका कि दृष्टि से ही देखना
चाहिए.
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बुढापे कि सबसे बड़ी
पीड़ा, अपने अंगों के शिथिल होने कि नहीं है, अपने संबंधों के शिथिल होने से होती
है. अपने ही परिवार में अनावश्यक और उपेक्षित हो जाने कि पीड़ा वृद्धावस्था को
असह्य कटुता से भर देती है.
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ऋषि का पुत्र स्वत: ही
ऋषि नहीं बन जाता. उसे ऋषि बनने के लिए वह सारी साधना करनी पड़ती है, जो उसके पिता
ने कि थी. किन्तु राजा का पुत्र स्वत: ही राजा बन जाता है. उसे कोई श्रम नहीं करना
पडता, स्वयं को किसी योग्य सिद्ध नहीं करना पडता, कुछ अर्जित नहीं करना पडता. ग्यान
से शुन्य होने पर भी वह ग्यानियों में श्रेष्ठ माना जाता है; बुद्धिहीन होकर भी बुद्धिमान
माना जाता है; वीरत्व से रिक्त होकर भी वीर होने का सम्मान पाता है.
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