प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा की। मीडिया ने इसे
बहुत अहमियत दी एवं इस घटना को प्रचारित एवं प्रकाशित भी किया। भारतीय संसद तक इसकी
गूंज सुनाई दी। विपक्ष ने मोदी की “पूजा”
पर अंगुली उठाई और टिप्पणी की कि उनके पास पशुपतिनाथ में लंबी पूजा के लिए तो समय
था लेकिन वे एक भी इफ्तार पार्टी के लिए समय नहीं निकाल सके।
यह हर्ष का विषय है की सांसदों के इस प्रश्न का मुस्लिम
सांसदों ने ही विरोध किया एवं संसद के पास इससे ज्यादा महत्वपूर्ण विषय हैं, अत: इस “व्यक्तिगत’ विषय पर चर्चा कर संसद का समय
नष्ट न करने का अनुरोध किया। उन्हों ने यह भी कहा की राजनेताओं का इफ्तार पार्टी
में भाग लेना महज एक राजनीतिक कदम है। इस की शुरुवात 1970 में उत्तर प्रदेश के
मुख्य मंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा ने की थी और काँग्रेस के साथ यह दिल्ली तक
पहुँच गई। इन्दिरा गांधी ने इसे खूब हवा दी। 2009 में तो ऐसी राजनीतिक पार्टियों
की इफ्तार पार्टियों के विरुद्ध फतवा भी जारी किया गया।
यह बड़े दुख एवं दर्द का विषय है की धर्म, रीति – रिवाज एवं त्योहारों में राजनीतिक पहल बढ़ती जा रही है। भाई बहन के
पवित्र रिश्तों के त्योहार, रक्षा बंधन पर अब राजनीतिक
पार्टी की नजर है। यह एक सामाजिक व्यवस्था है, रीति रिवाज है, त्योहार है। इसमें कहीं भी राजनीति नहीं है। राजनीतिक दलों से यह अनुरोध है की इसे राजनीति
का जमा न पहनाएं। इसे घर परिवार तक ही
सीमित रहने दें।
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