समाचार पत्रों की कहें या टेलीविज़न की, कोई दिन ऐसा नहीं होता जिस दिन किसी
बलात्कार का समाचार पढ़ने या सुनने को नहीं मिलता।
- साधारणतया एक ही समाचार होता है।
- तो क्या वर्ष में ३६५ घटनाएँ ही होती हैं।
- नहीं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सूचित अपराधों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है और असूचित की तो और भी ज्यादा।
- अच्छा! तो मीडिया ने शायद कोटा निर्धारित कर रखा है। एक दिन में एक।
- लेकिन फिर इस प्रकार के वारदातों पर हमारी अदालतों से भी तो रोज कम से कम एक फैसला आता ही होगा?
- शायद इन फैसलों का समाचार बिकाऊ नहीं होगा!
- यह भी हो सकता है कि ज़्यादातर फैसले अपराधी के पक्ष मे हों !
- या फिर अपराधी “इज्जतदार” या “पहुँच” वाला हो?
- ऐसा कुछ नहीं है, ऐसे मामलों में फैसले आते ही नहीं।
- क्यों नहीं आते?
- या तो “तारीख” पर “तारीख” पड़ती रहती है या पीड़ित पक्ष से बलात समझौता करवा लिया जाता है।
- मतलब?
- अभिभावक या पीड़िता को डरा-धमका कर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है या “नगद” भुगतान कर दिया जाता है।
- लेकिन यह दोनों ही तो गैर कानूनी है और इससे तो अपराधी और अपराध को दोनों बढ़ावा ही मिलेगा।
- तब भी दो दिन में एक फैसला तो आना ही चाहिए।
- अगर फैसले नहीं आते तो दोष प्रशासन का है या न्याय व्यवस्था का।
- अगर फैसले आते हैं तो दोषी मीडिया है।
- मीडिया दोषी क्यों?
- अगर आप वारदात की खबर देते हैं लेकिन अंतिम अंजाम की नहीं तो आप वारदात को बढ़ावा देते हैं।
- वारदात के साथ-साथ एक फैसले का समाचार भी क्या मीडिया नहीं बता सकती?
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