बुधवार, 3 जनवरी 2018

सूतांजली, जनवरी २०१८

सूतांजली                                            ०१/०६                       ०१.०१.२०१८
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श्रद्धेय आचार्य श्री नवनीत
प्रश्न: देश के कई मंदिरों में दर्शन के लिए सैंकड़ों हजारों रुपयोंकी पर्चियाँ कटती हैं। यह व्यवस्था अनास्था उत्पन्न करती है।

उत्तर : जीवन में शत-प्रतिशत आदर्श अवस्था कहीं नहीं है। उनकी नाक टेढ़ी हैंमुझे उनको देख कर बात करने का मन नहीं करता। इनकी आँखें ऊँह:, उनके बाल देखो क्या एकदम रीछ की तरह। अनगिनत कारण हों सकते हैं जो मुझे पसंद नहीं और मुझे क्षुब्द  करते हैं। ‘मुझे नहीं चाहिए’ यह एक छोटे बच्चे को शोभा दे सकता है लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते हैं और हमारा विकास होता है जिसे भावनात्मक परिपक्वता कहते हैंऐसा नहीं रहता। हमें यह समझना चाहिए कि सब कुछ सही नहीं होता हैहमारे मन मुताबिक नहीं होता है। यह संसार हमारे नियंत्रण में नहीं है। अगर हम संसार के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भी होंअमेरिका के राष्ट्रपति भी  होंतब भी यह संसार हमारी इच्छानुसार नहीं चलता। तब अव्यवस्थाकमीखोट हो सकते हैं और उसके कारण भी हैं।

एक बार हम यह मान लें कि अगर वह पर्चियाँ नहीं कटे तो क्या होगाहमें पता है कि विश्व के कई प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में उनके वार्षिक उत्सव में क्या होता हैकई जगहों पर तो हर वर्ष होता है और सैकड़ों व्यक्तियों की जानें भी जाती हैं।  हमारे मंदिरों का निर्माण हजारों वर्ष पूर्व हुआ था। वे उस समय जैसे और जितने बड़े थे आज भी वैसे ही हैं। और हम यह भी जानते हैं कि हर प्रकार की प्रक्रियाओं के बावजूद वहाँ जगह बढ़ाई नहीं जा सकती है। लेकिन दर्शन करने वालों की  संख्या  दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। तब कोई व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी। या तो बंदर बाँट कर दो। मुझे यह पसंद नहीं कि दर्शन के लिए कोई टिकट खरीदनी पड़े। अत: य ह व्यवस्था बंद कर दी जाय। तब जरा विचार करें इससे कैसी अव्यवस्था होगीफिर वही होगा जिसमें बल है वह  दो चार बाहुबली को ले कर जाएगा और इच्छानुसार दर्शन कर आयेगा। तबया तो कुछ वैसी व्यवस्था के भरोसे छोड़ दिया जाए या फिर यह पैसों की पर्ची कटे। वैसे यह भी जानकारी होनी चाहिए कि लगभग देश के हर बड़े मंदिरतिरुपति वैष्णव देवी एवं अन्यमें  अगर आपके पास पर्ची के पैसे नहीं हैं तो पैसे या पर्ची के लिए अर्जी देने पर समुचित  व्यवस्था की जाती है।

कहने का मतलब है कि कई प्रकार की  व्यवस्था है और हम किसी को भी पूरी तरह सही और व्यवस्थित नहीं कर सकते। कई बार हम बच्चों की  तरह प्रतिक्रिया करते हैं। यह ऐसा है मुझे पसन्द नहींयह वैसा है मुझे पसंद नहीं। तुम्हारे अंदर क्या क्या है जो औरों को पसंद नहींहर कहींहर किसी में कहीं न कहीं कमियाँ है। कमियों को इतना व्यापक रूप दे देते हैं कि वह अनुपानित हो जाता है। हम यह क्यों नहीं कह सकते कि इसका यह उपाय होयह ज्यादा बेहतर हैयह ग्रहणीय भी है और विचारणीय भी। लेकिन इस कारण अगर किसी की आस्था कम हो जाती है तब यह उसकी मुसीबत है। इतनी सी गड़बड़ी से अगर कोई अव्यवस्थित हो जाता है तो गड़बड़ी कहाँ हैकहीं किसी की पूजा में एक चूहा आ गया और प्रसाद खा गया उसने पूजा बंद कर हवन अपना लिया। हवन की  सामाग्री में कीड़े निकल गए तो हवन भी बंद कर कुछ और पकड़ लिया। इस प्रकार अगर बंद करते चलें तो क्या क्या बंद करोगेदर असल हम कहीं किसी प्रकार की गलती निकालने में लगे हुवे हैं और दोषारोपण या एक के बाद दूसरे कार्य बंद करने में लगे हैं। इस सोच के कारण नए नए आधुनिक ‘विद्रोहीमत निकल पड़े।  लेकिन जिन आडंबरों एवं रीति रिवाजों के  विरोध या जिनको त्यागने के लिए उनकी स्थापना हुई थी क्रमश: वे भी वापस उन्ही  आडंबरों में पड़ गए। हम इस पर विचार करें और अपनी सोच का दायरा बढ़ाएँ। यह स्वीकार करें कि पूर्ण कुछ भी नहीं है। अत: हमें विचार करना चाहिए कि क्या उस देश-काल के अनुसार और बेहतर व्यवस्था हो सकती हैसुझाव देंउस पर चर्चा करेंउस विचार को फैलाएँ। हो सकता है इस नए प्रतिपादित व्यवस्था को स्वीकार कर लिया जाए। लेकिन यह भी हो सकता है कि वह स्वीकार न हो और उसे रद्द कर दिया जाए। तब उस सर्व स्वीकार्य  व्यवस्था  को अपनाएं – चलो वही ठीक है। दोष दृष्टि नहीं होनी चाहिए। शिकायत के साथ सुझाव आना चाहिए। अगर सुझाव नहीं है तब आप बच्चे हो क्योंकि बच्चे केवल शिकायत कर सकते हैं सुझाव नहीं दे सकते। अगर आपके पास वर्तमान से बढ़िया सुझाव नहीं है तब बुराई देखना बंद कर दें।
(श्री अरविंद आश्रम वन निवासनैनीतालजून २०१७)
                                                                                                                                   मैंने पढ़ा
माँ की ममता                                                                                        
माँआज मैं किसी काम से एम्सटर्डम आया था और अब आपसे मिलने गाँव आ रहा हूँ।” फोन के दूसरे हिस्से से आवाज आई, “बेटा आज तो मैं बहुत व्यस्त हूँ। मैंने पास के कस्बे के ब्युटि पारलर से समय ले रखा है। शाम को लौटने में देर हो जाएगीइसलिए बेहतर होगा कि तुम कल ही आओ।” माँ का यह जवाब सुनते ही बेटे ने कार सड़क किनारे खड़ी कर दी। वह सिर पकड़ कर सोचने लगा कि अब आगे क्या करूँहुआ ये कि मैं अपने मित्र लुकास के साथ जर्मनी के हनोवर शहर से एम्स्टर्डम किसी काम से आया था। उसका पैतृक घर नजदीक हीसाठ किलोमीटर दूर पर स्थित एक गाँव में था। काम खत्म होने के बाद वो अचानक घर पहुँच माँ को आश्कर्यचकित  कर देना चाहता था। हम दोनों ने एम्स्टर्डम से एक कार किराए पर ली और चल पड़े उसके गाँव की ओर। मैं भी नीदरलौंड्स का ग्राम्य जीवन देखने को लेकर बड़ा उत्साहित था।

आधे रास्ते तक पहुँच कर लुकास को सरप्राइज देने के बजाय फोन करना उचित लगाजिसका नतीजा सामने था। चूंकि उनकी बातचीत डच भाषा में हो रही थीइसलिए मुझे कुछ समझ में नहीं आया। एडी ने माँ के साथ हुई चर्चा के बारे में मुझे बताया और मुझसे पूछा कि यदि हिंदुस्तान में तुम्हारे साथ ये घटना होती तो क्या करतेमैं उसका दिल दुखाना नहीं चाहता थाफिर भी बताया कि हिंदुस्तना में कोई भी माँबेटे के विदेश से आने कि खबर सुनते हीएक सप्ताह पहले से सारे अपोइंटमेंट रद्द कर बेटे का पसंदीदा खाने का सामान बनाना शुरू कर देती है। दस मिनट तक हम दोनों सड़क किनारे यू हीं खड़े रहे। फिर जैसे कि हम हिंदुस्तानी मुफ्त की सलाह देने में पारंगत होते हैंमैंने भी उससे कहा कि एक बार और माँ को फोन लगाओ। लुकास ने कुछ सोचकर हिम्मत जुटाई और दुबारा फोन किया, “माँ मैं आपसे दूरकिसी दूसरे देश में रहता हूँ। आज छमहीने बाद मिलने आ रहा हूँऔर आप मुझे “ना” कर रही हैं। मेरे बजाय आपको ब्युटि पारलर वाले को ना करना चाहिएउसका अपोइंटमेंट तो फिर भी कभी मिल जाएगा। आज अगर मैं लौट गयाफिर न जाने आपसे मिलने कब आ पाऊँगा।

माँ ने जो जवाब दिया उसका अंदाज तो मुझे घर पहुँच कर ही लगाजब वह लुकास से लिपटकर बहुत देर तक रोती रही व माफी मांगती रही। फिर मुझ से बोली, “हम यूरोपियन लोग इतने मशीन हो चुके हैं कि एक रोबोट कि तरह व्यहवार करने लगे हैं। अगर इसने दोबारा फोन न किया होता तो मुझे अपनी भूल का एहसास तक  नहीं होता।

हिंदुस्तान की तरह हम यूरोप में अचानक किसी के यहाँ मिलने नहीं जा सकते हैं। चाहे वह हमारा कितना ही नजदीकी मित्र या रिश्तेदार क्यों न हो।      
विनोद जैन, अहा!जिंदगीअक्तूबर २०१७ पृ ३८
ममता - भावुकता पूरे विश्व में है। यही हमें पशु से इंसान बनाती हैं। कहीं मुक्त रूप में है कहीं गौण हैथोड़ा सा  कुरेदना पड़ता है। 

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ब्लॉग विशेष
१९१५ में दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद से गांधी अंग्रेजों के लिए जितनी बड़ी मुसीबत बने, उतनी ही बड़ी मुसीबत काँग्रेस के लिए भी बन गए। गांधी ने काँग्रेस की  भाषा बदल दी, भूषा बादल दी, संगठन की काया बदल दी, इसकी आत्मा बदल दी। पार्टी के आयोजनों के तरीके बदल गये, शब्दों के मानी बदल गए, लड़ाई के हथियार बदल गए, दुश्मन का मतलब बदल गया, दोस्ती के मानक बदल गए, आज और कल का तालमेल बदल गया और संघर्ष और रचना की दूरी पाट दी।
गांधी मार्ग, मार्च-अप्रैल २०१६, कुमार प्रशांत, पृ.५९
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