शुक्रवार, 19 जून 2020

माता या पिता?

माँ! माता! शक्ति स्वरूपा! वात्सल्य की अधिष्ठात्री देवी! प्रेम से परिपूर्ण! जन्म से मृत्यु पर्यन्त हमारे जीवन को स्पर्श करती-सजाती-संवारती।

माँ, हमें आँखों से देखती है – ममता भरी आँखों से, वात्सल्य से परिपूर्ण।

माँ, कानों से हमें सुनती है – हमारे दु:ख दर्द को।

माँ, हमें सूँघती है – हमारी आवश्यकता को, अनकहे कष्ट को, व्यथा को।

माँ, हमें लोरी सुनाती है, आशीर्वाद देती है, व्रत रखती है, ईश्वर से प्रार्थना करती है – हम कैसा भी व्यवहार करें उसका यह कार्य अनवरत रूप से चलता ही रहता है।

माँ, हमें अपनी बाहों में भरती है, अपनी छाती से लगाती है।

क्या नहीं करती है माँ?

माँ ९ महीने  हमारा बोझ उठाए रहती है, बिना किसी वेतन के निरंतर हमारा काम करती रहती है, हमारे लिये खाना पकाती है, व्यंजन बनाती है, हमारे कपड़ों का ध्यान रखती है, हमारे घर का ध्यान रखती है, हमारे बच्चों को संभालती है, हमारी गंदगी सफाई करती रहती है। माँ, तरल है, मृदु है, लचीली है। 


पिता! बाबा! बाप! बाबू! बापू! अभिभावाक! कर्मठ! शासक! प्रशासक! रक्षक! ज्ञानी!

पिता, न देखता हुए भी सब देखता है।

पिता, न सूंघता हुआ भी सब सूँघता है।

पिता, न बोलता हुआ भी सब बोलता  है।

पिता, न स्पर्श करता हुआ भी सब स्पर्श करता है।

पिता, न अनुभव करता हुआ भी सब अनुभव करता है।

पिता, शुष्क सा दिखता लेकिन रस से भरा।

पिता, रीढ़ की हड्डी की तरह व्यर्थ-सा, कठोर-सा, शुष्क-सा, बेजान-सा लेकिन पेड़ के तने की तरह वृक्ष  को सँभाले हुए।


क्या हमें माँ चाहिये? बाप नहीं! हमें पेड़ चाहिए, जो फल-फूल-पत्ते-छाँह-हवा-बसेरा दे? तना  नहीं,  जो पूरे पेड़ को पानी और भोजन दे!

माँ हमारी आँख है, कान है, नाक है, स्पर्श है, रस है, जीवन है; पिता शरीर के पिछले भाग में खामोश मजबूती से खड़ा रीढ़ की हड्डी है।

........ आखिर बेटे ने पिता को वृद्धाश्रम (ओल्ड एज होम) में छोड़ने का निश्चय किया। बेटा आश्रम में आवश्यक कार्यवाही पूरी कर रहा था, तब तक आश्रम के संचालक वहाँ पहुँच गए और पिता से बातें करने लगे। बेटे को आश्चर्य हुआ, क्या आप इन्हें जानते हैं”? पिता की तरफ इशारा करते हुए उसने पूछा। संचालक ने मुस्कुराते हुए कहा, “हाँ, आज इनसे लगभग तीस वर्षों के बाद मुलाक़ात हो रही है। ये सज्जन एक अनाथ बच्चे को हमारे यहाँ से गोद ले गए थे। .......


माता और पिता दोनों का अपना महत्व है। दरअसल हमें वह आँख, कान, नाक, स्पर्श और रस चाहिए  जो दोनों के योगदान को समझ सकें।

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4 टिप्‍पणियां:

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२० -०६-२०२०) को 'ख्वाहिशो को रास्ता दूँ' (चर्चा अंक-३७३८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर।

Rakesh ने कहा…

माता और पिता दोनों ही ईश्वर है किसी भी मानव के जीवन में
पठनीय लेख

Onkar ने कहा…

बहुत बढ़िया