अभी, कुछ समय पहले टाइम्स अखबार में एक खबर पढ़ी ‘अब इंजीनियरिंग की शिक्षा हिन्दी, बंगाली एवं अन्य 6 भाषाओं में’। कई वाकिए एक साथ आँखों के सामने से गुजर गए।
अपने
सम्बन्धों के कारण हम विदेशों से आए मेहमानों को अपने घर पर ठहरने की सुविधा
प्रदान करते थे। प्रारम्भ में यह विचार था कि ये मेहमान ज़्यादातर आस्ट्रेलिया से
आएंगे, लेकिन जैसे-जैसे समय
गुजरता गया हमने पाया कि आस्ट्रेलिया के बजाय यूरोप से हर देश से लोग आ रहे हैं, बल्कि उन्हीं की संख्या ज्यादा है इसके अलावा चीन और जापान से भी आ रहे
हैं। घर पर ही ठहरने के कारण उन से अंतरंगता हो जाती थी और कइयों से बहुत बातें भी
होती थीं। हमें यह देख कर बड़ा आश्चर्य होता था कि इनमें से ज़्यादातर लोगों को
अँग्रेजी नहीं आती थी या बस काम चलाऊ। इनमें से कई लोग उच्च पदों पर नियुक्त सरकारी या निजी
कर्मचारी और उच्च शिक्षा प्राप्त मेडिकल-इंजीनियरिंग-कम्पुटर के क्षेत्र से जुड़े तकनीशियन
भी थे। जिनसे अंतरंगता हुई उनसे हमने जिज्ञासा की कि बिना अँग्रेजी के वे कैसे इन
पदों और डिग्री को हासिल कर पाये? उनसे जो उत्तर प्राप्त हुए
उसका निचोड़ यह निकला –
‘इन
विशेष शिक्षा या उच्च पदों का भाषा और वह भी एक विदेशी भाषा से क्या संबंध है? हमारे पास अपनी भाषा में पठन-पाठन की
पूरी सामग्री उपलब्ध है और हमें उन्हें पढ़ने और समझने में कोई परेशानी नहीं होती। हर
तकनीकी (टेक्निकल) शब्द का या तो हमारी भाषा में उसका समानार्थी शब्द है या फिर हम
उस शब्द को वैसे-का-वैसा अपना लेते हैं। जिन्हें विदेश जाना हो,
पढ़ाई या नौकरी के लिए जहाँ अँग्रेजी का ज्ञान होना आवश्यक है उनके लिए जरूरत के
अनुसार उसी प्रकार की व्यावहारिक अँग्रेजी सीखने के एक से बारह महीने के क्रैश
कोर्स उपलब्ध हैं। यह कहाँ की समझदारी है कि मुट्ठी भर लोगों के लिए पूरे देश
वासियों को अपनी भाषा छोड़कर एक विदेशी भाषा सीखने के लिए मजबूर किया जाए?’
दक्षिण अमेरिका के एक देश से, जो कभी स्पेन का उपनिवेश रह चुका था,
आए एक युवा जोड़े से पता चला कि वे एक सिविल इंजीनियर और दूसरी इंटिरियर डिज़ाइनर
हैं। उन्हें टूटी-फूटी अँग्रेजी भी नहीं आती थी, केवल कुछ
शब्द। उन्होंने हमें हमारे विचारों का मर्म समझाया –‘हम चूंकि ब्रिटिश
उपनिवेश रह चुके हैं हम ऐसा सोचते हैं कि बिना अँग्रेजी के काम नहीं हो सकता, लेकिन
सच्चाई वैसी नहीं है। उनका देश स्पेन का उपनिवेश था,
अत: वहाँ अँग्रेजी नहीं स्पैनिश है। उनके लिए तो ‘स्पेनिश’ एक मजबूरी है क्योंकि वहाँ के स्थानीय लोगों की ’हत्या’ कर दी गई थी। उनकी अपनी भाषा को जानने वाले केवल कुछ हजार लोग ही बचे हैं
और उसे उन कुछ लोगों के अलावा और कोई समझ नहीं पाता। अत: अब साल-दर-साल उस भाषा को
बोलने वाले कम होते जा रहे हैं और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। फिर भी कोशिश जारी
है लेकिन उम्मीद बहुत कम है।‘
चीन
से एक युवा बच्ची, जो शायद 20-25 वर्ष की
ही थी, अकेली आई थी। उसे न अँग्रेजी आती थी, न हिन्दी। फिर भी अकेली आने का साहस जुटाया था। उससे तो किसी भी प्रकार
का वार्तालाप संभव ही नहीं था। वह ठीक दोपहर के भोजन के पहले आई थी। हमने उसे भोजन
के लिए निमंत्रित किया लेकिन वह समझ नहीं सकी और सिर हिलाकर ‘ना’ ही करती रही। हम खाने बैठे तब हमने देखा कि वह
बार-बार चक्कर लगा रही है, हमने समझा कि शायद उसे भूख लग रही
है, लेकिन उसने फिर सिर हिलाकर मना कर दिया। फिर उसके किसी
भारतीय दोस्त, जो चाइनीज़ जानता था, का
फोन आया तब पता चला कि उसे बहुत ज़ोर की भूख लगी है उसे खाने को कुछ दिया जाए। इस
युवती ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की, और अच्छी नौकरी मिलने
के बाद लेकिन कार्य आरंभ करने के पहले भारत निकल पड़ी – बोध गया - भगवान बुद्ध के
स्थान के दर्शन के लिए।
क्या
आपको पता है कि हिब्रू, इज़राइल की राष्ट्र भाषा, जो अपना अस्तित्व खोने के कगार पर
पहुँच गई थी, को 1900 में फिर से स्थापित कर लिया गया। यह वही भाषा है जिसे
शताब्दियों तक बोला नहीं गया था। इस महत कार्य को किया था वहाँ के शिक्षाविदों ने
जिन्हें सरकारी सहयोग भी प्राप्त हुआ। इसी प्रकार एक ऐसा समय आया था जब ब्रिटेन से
‘अँग्रेजी’ साफ होने के कगार पर पहुँच गई थी, फ्रेंच भाषा ने पूरी तरह ब्रिटेन पर कब्जा जमा लिया था। इसे सरकारी, उच्च अफसर, और धनवानों का भी पूरा समर्थन प्राप्त
था। अँग्रेजी बोलना, पढ़ना हेय दृष्टि से देखा जाता था। फिर
वहाँ की आम जनता और शिक्षाविद, साहित्यकारों में जागृति फैली, वे उठ खड़े हुए और फ्रेंच भाषा को अपदस्थ कर बिना सरकारी सहयोग के, अँग्रेजी को उसका दर्जा और सम्मान दिलाया।
इन
घटनाओं और इस इतिहास के परिप्रेक्ष्य में जब मैंने टाइम्स की इस खबर को पढ़ा
तब आँखों में पानी आना स्वाभाविक था। देश
की जनता बे-खबर भेड़ चाल चल रही है, धनाड्य और उच्च अधिकारी वर्ग
अँग्रेजी भाषा की सहायता से अपनी विशिष्टता बचाए रखे हैं,
शिक्षाविद भी पता नहीं किस प्रलोभन में अपनी भाषा को स्थापित करने में रोड़े अटकाना
ही अपनी विशिष्टता समझ रहे हैं। ऐसे माहौल
में यह निर्णय जिससे देश की आम जनता को अपना हुनर-ज्ञान सीखने का मौका मिलेगा, जानकर अतीव हर्ष हुआ। इस वर्ग का खेल-कूद की दुनिया में योगदान किसी से
छिपा नहीं है। हमें चाहिए कि हम इसका समर्थन करें और अपनी भाषा को प्रोत्साहित
करें।
अभी, जब एक लंबे समय तक बड़े शहरों से इतर
छोटे गाँव, कस्बे से आए बालक-बालिकाओं के संग रहा तब पता चला
कि इन्हें अँग्रेजी का ज्ञान नहीं है, दूसरी कोई भाषा हम
गंभीरता से सीखाते नहीं, अत: इन्हें किसी भी भाषा का सही
ज्ञान नहीं है, लेकिन
भाषा के इतर इनका ज्ञान और समझ किसी भी शहरी और शहर के तथाकथित ‘अच्छे’ विद्यालय के बच्चों से ज्यादा है। केवल भाषा
का अल्प ज्ञान होने के कारण इन में हीन भावना आ जाती है। अपनी भाषा और पहनावे के
कारण ये कम पढ़े-लिखे प्रतीत होते हैं। उन्हें अगर समुचित सुविधा और अवसर प्रदान की
जाए तो इनमें देश को बदलने की क्षमता है। यहाँ के संपर्क से यह भी ज्ञात हुआ कि
सरकारी सहयोग एवं प्रोत्साहन से क्षेत्रीय, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में
पुस्तक, पत्र, पत्रिका एवं अनुवाद के
छपने-छपाने के कार्य में अभूतपूर्व वृद्धि
हुई है। यह वास्तव में बड़े हर्ष का विषय है।
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हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।
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