आपसी प्रेम, सौहार्द, भाईचारा
और रंगों के महापर्व होली की
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
रंगों का यह त्यौहार आप सभी के
जीवन को
सुख, समृद्धि और अपार खुशियों
के रंग से भर दे।
धन की
शक्ति
एक कहानी है, बहुत पुरानी। आपने भी जरूर सुनी या पढ़ी
होगी। कहानी इस प्रकार है :
किसी जमाने में एक धर्मपरायण, सत्यनिष्ठ, धार्मिक, न्यायप्रिय राजा था। उसकी प्रजा उसे बहुत प्यार करती थी और राजा भी
उन्हें अपने बच्चों के समान ही प्यार करता था, उनके
दुःख-दर्द का ध्यान रखता था। राजा को अपने गुरु पर भी अगाध श्रद्धा थी और आये दिन
वह उनके आश्रम में, जो उसके शहर के बाहर ही था, सलाह मशविरा करने चला जाया करता था। उसे आश्रम का वातावरण सात्विक, शांत और मनमोहक लगता। धीरे-धीरे उसके मन में वैराग्य पैदा होने लगा और
राज-पाट छोड़ कर गुरु के पास उसी आश्रम में रहने का मन होने लगा। लेकिन इसके पहले, आवश्यकता थी
एक योग्य व्यक्ति की जो उसके राज्य और प्रजा को सँभाल ले और उसी की तरह प्रजा को
प्यार करे। राजकुमार अभी छोटा था और अन्य किसी को भी इस पद के उपयुक्त नहीं पा रहा
था। उसकी चिंता बढ़ती जा रही थी। आखिर उसने निश्चय किया कि इस संबंध में अपने गुरु
से ही चर्चा करूँ और तुरंत वह उनके आश्रम में पहुँच गया।
राजा को
देखते ही गुरु समझ गये कि राजा किसी उलझन में हैं। गुरु के पूछने पर राजा ने मन की
बात बताई और पूछा,
‘मैं एक योग्य व्यक्ति कहाँ से लाऊं?”
गुरु ने मुसकुराते हुए पूछा, “तुम्हें कोई योग्य व्यक्ति
नहीं मिल रहा?”
“नहीं गुरुदेव।”
“मेरी नजर में एक व्यक्ति है”, गुरु ने कहा।
“कौन है गुरुदेव,
तुरंत बताएं। आपका बताया हुआ व्यक्ति निश्चित रूप से इस कार्य के लिए उपयुक्त होगा, मैं उसे अविलंब राजा बना कर आपके पास आ जाऊंगा”।
गुरु ने कहा,
“विचार कर लो, अगर तुमको लगता है कि मैं तुम्हारे राज्य और
प्रजा को अच्छी तरह संभाल सकता हूँ, तो मैं इस कार्य के लिए
तैयार हूँ।”
राजा को सहसा अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ और बोल पड़ा, “आप!, आप सँभालेंगे
इस राज्य को?”
“नहीं! अगर तुमको लगता है कि मैं नहीं सँभाल पाऊँगा तो कोई
बात नहीं......”, गुरु ने कहा।
राजा बीच में ही बोल पड़ा, “नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। मुझे इससे बढ़िया
व्यक्ति कहाँ मिलेगा। लेकिन आप इसे संभालेंगे कैसे?”
गुरु ने कहा,
“मेरी छोड़ो तुम बताओ, तुम क्या करोगे?”
अब राजा सोच में पड़ गया और थोड़ा विचार कर बोला कि मैं कोई
भी व्यापार कर लूँगा।
“लेकिन उसके लिए धन कहाँ से लाओगे?”
“मैं राज कोश से कुछ धन ले लूँगा।”
“अरे वाह! ऐसे कैसे ले लोगे, मैं तो तुम्हें कुछ भी नहीं दूँगा।”
“मैं कहीं नौकरी कर लूँगा”, राजा ने कहा।
गुरु ने फिर पूछा,
“तुम राजा थे, एक राजा को नौकरी देने की हिम्मत कौन करेगा?”
राजा को इसका उत्तर नहीं मिला, वह मौन हो गया।
तब गुरु ने कहा,
“मेरे पास एक नौकरी है, राजा की, करोगे?”
राजा मुसकुरा उठा। उसे गुरु की बात समझ आ गई। अब वह मालिक नहीं कर्मचारी था।
उसे अब अपने कंधों पर बोझ महसूस नहीं हो रहा था। और अब वह निश्चिंत होकर राज्य का
सारा कार्य गुरु की सलाह से चलाने लगा।
यह तो थी कहानी, लेकिन ऐसी सत्य घटनाएँ भी हैं। ऐसे लोगों से आप भी मिले होंगे
और सुने भी होंगे। क्या आप कभी इसकी चर्चा किसी से करते हैं?
अगर नहीं, तो नियम बनाइये, सकारात्मक
बातें-घटनाओं की चर्चा कीजिये। खैर मैं अपने सीमित परिचय में परिचित हूँ ऐसी एक
आत्मा से, आपलोगों में से कई लोग उससे परिचित भी होंगे, उन्हीं की चर्चा करता हूँ-
आजादी के
पूर्व। उनका बड़ा व्यापार था। देश के अनेक शहरों में उनका व्यापार फैला हुआ था। दिल्ली, कलकत्ता, पटना, इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, कानपुर, मेरठ, आगरा, देहरादून, सतना, कटनी, मैहर आदि में
उनका कार्यालय था। एक बार भारत भ्रमण पर निकले। जब वे दक्षिण भारत में घूम रहे थे
और पांडिचेरी के पास से गुजरे तो किसी ने बताया कि वहाँ एक बड़ा और अच्छा आश्रम है, जाना चाहिए। और बस वे पहुँच गए पांडिचेरी के श्रीअरविंद आश्रम में। इसके
पहले उन्होंने उसका नाम नहीं सुना था और-तो-और उसे चला भी रही है एक विदेशी महिला, उनका पूरा जोश ही समाप्त हो गया। अनिच्छा से ध्यान-कक्ष में पहुंचे और
वहाँ उन्हें दर्शन हुए श्रीमाँ के। और श्रीमाँ के प्रति ऐसे आकर्षित हुए कि
बार-बार उनसे मिलने दिल्ली से पांडिचेरी जाने लगे। आखिर उनसे रहा नहीं गया और
निश्चय किया कि पूरे व्यापार को समेट-बेच कर पांडिचेरी श्रीमाँ के पास ही चला
जाऊँ। विचार किया ऐसा करने के पहले माँ को बता तो दूँ? पहुँच
गए पांडिचेरी माँ के सामने और अपनी मंशा बताई। उसके बाद का वाकया उन्हीं के शब्दों
में -
माताजी ने ज़ोर से कहा- "नहीं
! भगवान के काम के लिए धन एक बहुत बड़ी शक्ति है । इस समय लाचारी से संसार का सब
व्यापार और धन आसुरिक शक्तियों के हाथ में है और तुम जो एक छोटा-सा व्यापार चला
रहे हो, बेच देने के
बाद वह भी आसुरिक शक्तियों के हाथ में चला जायेगा । यदि तुम इसे नहीं चला सकते तो
इसे मैं स्वयं चलाऊँगी।"
उसके बाद
फिर वह व्यापार नहीं बेचा गया, श्रीमाँ की
सलाह से वे पूरे व्यापार का संचालन करने लगे। आज, उसी धन की
शक्ति से श्रीअरविंद आश्रम दिल्ली शाखा, मदर्स इंटरनेशनल
स्कूल और मिराम्बिका जैसे प्रतिष्ठान खड़े हैं।
जैसा कि श्रीमाँ ने कहा ‘धन एक बहुत बड़ी शक्ति है’ आज हम कुछ पैसों के लालच में इस शक्ति को असुरों के हाथ
में देने में नहीं हिचकते। हम यह नहीं समझते कि इस प्रकार हम ही असुरों को
शक्तिशाली बना रहे हैं। मौके के फायदा उठा कर, कमजोरों से, धन का लालच देकर, ये असुर उन शक्तियों को बटोर रहे हैं। धन के बजाय अगर वे बाहुबल दिखाकर
आपसे लें तो क्या आप दे देंगे? ये असुर अब समझ गए हैं कि
बाहुबल के बदले धन-बल से शक्ति जल्दी और आसानी से बटोरी जा सकती है। एक बार ये शक्तियां
बटोर कर जब बलवान हो जाएंगे तब फिर आप इन्हें कैसे रोकेंगे? आज
तो आप कह रहे हैं कि वे हमें ज्यादा धन दे रहे हैं, देवता
उतना नहीं देते, हमें क्या? क्या आप
अपनी संपत्ति अपने बेटे को छोड़ किसी दूसरे के बेटे को केवल इसलिए देंगे क्योंकि वह
ज्यादा धन देने तैयार है? लेकिन कल जब वे ही इसी शक्ति से
बलवान होकर आपकी मान-मर्यादा-लक्ष्मी-पद-इज्जत-धन-संपत्ति सब लूट ले जाएंगे तब आपको बचाने कौन आयेगा? असुरों के हाथ में शक्ति मत जाने दीजिये, अगर कोई
लाचार है तो उसकी कैसे मदद हो सकती है? इस बात पर विचार
कीजिये कि कैसे उनकी मदद की जा सकती है, और उसे मदद कीजिये। देते
समय सुपात्र और कुपात्र का ध्यान रखें, हर समय इस पर विचार
कीजिये। इस शक्ति के हस्तांतरण को न सरकार रोक सकती है, न
कानून, न पुलिस। इसे एक और केवल एक ही व्यक्ति रोक सकता है
और वह और कोई नहीं बल्कि वे हैं : ‘आप खुद’
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