एक गाँव में एक बढ़ई रहता था। गाँव में काम-धंधा ज्यादा था नहीं, अतः काम की तलाश में वह दूर किसी शहर में पहुंचा। वहाँ उसकी मुलाक़ात एक सेठ से हुई और उसे उसके यहाँ काम मिल गया। एक दिन काम करते-करते अचानक उसकी आरी टूट गयी। बिना आरी के काम करना संभव नहीं था और अपना गाँव दूर होने के कारण वह वहाँ वापस लौटना नहीं चाहता था। वह शहर के नजदीक ही एक गाँव में पहुंचा। खोज-बीन करने से उसे एक लोहार का पता चला। उसने लोहार से एक अच्छी आरी बना देने की विनती की। लोहार सहर्ष तैयार हो गया, लेकिन उसने बताया कि इसमें थोड़ा वक्त लगेगा और उसे अगले दिन आने के लिये कहा। लेकिन बढ़ई को तो जल्दी थी। उसने कहा कि वह कुछ पैसे अधिक ले-ले मगर आरी अभी बना कर दे-दे। लेकिन लोहार ने मना कर दिया और उसे समझाया, “बात पैसे की नहीं है भाई…अगर मैं इतनी जल्दबाजी में औजार बनाऊंगा तो औज़ार बनने में कमी रह सकती है। मैं औजार बनाने में कभी भी कोई कमी नहीं रखता।"
बढ़ई को बात समझ आ गई वह तैयार हो गया। अगले
दिन आकर अपनी आरी ले गया। आरी बहुत अच्छी बनी थी। बढ़ई पहले की अपेक्षा आसानी से और
पहले से बेहतर काम करने लगा। बढ़ई ने ख़ुशी से ये बात अपने सेठ को भी बताई और लोहार
की खूब प्रशंसा की। सेठ ने आरी को करीब से देखा। उसे ज्यादा समझ तो नहीं थी लेकिन
वह यह समझ गया कि इसमें हुनर तो है।
“इसके कितने पैसे लिए उस लोहार ने?” सेठ ने बढ़ई से
पूछा।
“दस रुपये!”
सेठ ने मन-ही-मन
सोचा कि इतनी अच्छी आरी तो शहर में तीस रुपये में आसानी से बिक जायेगी। क्यों न उस
लोहार से ऐसी आरियाँ बनवा कर शहर में बेची जाये।
अगले ही दिन सेठ लोहार के पास पहुंचा और
बोला,
“मैं तुमसे ढेर सारी आरियाँ बनवाऊंगा और हर आरी के दस रुपये दूंगा,
लेकिन, आज के बाद तुम सिर्फ मेरे लिए काम
करोगे। किसी और को आरी बनाकर नहीं बेचोगे।” लेकिन लोहार ने
उसकी शर्त मानने से इंकार कर दिया। सेठ ने कुछ सोच कर कहा, “ठीक है, मैं तुम्हें हर आरी के पन्द्रह रूपये दूंगा और तुम जितनी भी आरी बनाओगे मैं सब खरीद
लूंगा, अब तो मेरी शर्त मंजूर है।”
लेकिन लोहार तब भी तैयार नहीं हुआ और कहा, “नहीं मैं अभी भी आपकी शर्त नहीं मान सकता। मैं अपनी मेहनत का मूल्य और
अपने ग्राहक खुद निर्धारित करूँगा। मैं आपके लिए काम नहीं कर सकता। मैं इस दाम और
काम से संतुष्ट हूँ। मुझे इससे ज्यादा कीमत नहीं चाहिए।”
“बड़े अजीब आदमी हो, भला कोई आती हुई लक्ष्मी को मना करता है?” व्यापारी
आश्चर्य से बोला।
लोहार से कहा,“आप मुझसे आरी लेंगे फिर मुंह मांगे दामों पर उसे बेचेंगे। लेकिन मैं
किसी के शोषण का माध्यम नहीं बन सकता। अगर लालच करूँगा तो मैं चैन से न सो
सकूँगा। किसी-न-किसी रूप में मुझे इसका दंड भी भोगना पड़ेगा। इसलिए आपका यह प्रस्ताव
मुझे स्वीकार नहीं है।”
सेठ समझ गया कि एक सच्चे और
ईमानदार व्यक्ति को दुनिया की कोई दौलत नहीं खरीद सकती। वह अपने सिद्धांतों पर
अडिग रहता है। वह वापस चला आया।
अपने हित से ऊपर उठ कर दूसरे लोगों
के बारे में सोचना इंसानियत है। लोहार चाहता तो आसानी से अच्छे पैसे कमा
सकता था पर वह जानता था कि उसका जरा सा लालच बहुत से ज़रूरतमंद लोगों के शोषण का
जरिया साबित होगा। शोषण करने वालों की शृंखला इसी प्रकार बनती है। वह सेठ के लालच
में नहीं पड़ा। हर शोषक कहीं-न-कहीं शोषित
भी है। अगर हम शोषण करना बंद करें तो शोषित होना भी बंद हो जाएंगे।
मुझे याद आ रही है बचपन में पढ़ी एक
कहानी। दो भोजनालय थे। पहले भोजनालय में भोजन करने का कोई मूल्य नहीं लगता था, लेकिन अंदर प्रवेश करने के पहले हथेली पर एक लंबी चम्मच इस प्रकार बांध दी
जाती थी कि चम्मच मुँह तक नहीं पहुंचती। स्वादिष्ट पकवान मेज पर पड़े होते, उससे निकलती सुगंध से भूख जाग्रत हो जाती और लोग खाने पर टूट पड़ते। चम्मच
भरते लेकिन यह क्या, चम्मच के लंबे होने के कारण पकवान उठा
तो लेते लेकिन कौर किसी भी तरह मुंह तक नहीं पहुँचता। लोग तरह-तरह से प्रयत्न करते, लेकिन किसी भी अवस्था में खा नहीं पाते। कोशिश करने के चक्कर में सब भोजन
वहीं मेज पर, जमीन पर गिर जाते। कई आसमान में, अगल-बगल उछाल कर मुंह में डालने की कोशिश करते, लेकिन
खाना कभी नाक पर, माथे पर, आँख पर, गालों पर, कपड़ों पर गिरता लेकिन मुंह में नहीं जाता।
कभी-कभी तो अपना उछला हुआ भोजन कोई और
अपने मुंह में लपक लेता, और बस फिर क्या था उन दोनों में मार-पीट
हो जाती। चारों तरफ शोर-शराबा, कलह, गंदगी, अफरा-तफरी मची थी और खाना किसी
को नहीं मिल रहा था।
बगल में ही एक और भोजनालय था। वहाँ भी
नियम वही था, और पैसे भी लगते। सब के हाथों में चम्मच बंधी होती। लेकिन यहाँ का
वातावरण एकदम भिन्न था। शांति थी, स्वच्छता थी, प्रेम-सौहार्द-आनंद और खुशी का माहौल था। सब शांति से भोजन कर रहे थे। बात यह थी कि यहाँ
कोई खुद नहीं खा रहा था सब एक दूसरे को खिला रहे थे। पहले कमरे में दानव थे दूसरे
में देव। पहले में ‘स्व’ था दूसरे में ‘सर्व’, पहले में ‘मैं’ था दूसरे में ‘हम’। दूसरों
को खिलाने से स्वयं को भी मिलता है।
आप शायद यही सोच रहे हैं कि सब अपनी-अपनी
सोचते हैं कोई दूसरे की परवाह नहीं करता। कोई
बात नहीं, दूसरों को सोचने दीजिये, आप प्रारम्भ कीजिये, थोड़ा धैर्य रखिए और फिर देखिये आपको दुनिया बदली-बदली नजर आएगी। आगे बढ़
कर दूसरों के बारे में सोचना प्रारम्भ कीजिये। शोषण करने के अनेक तरीके हैं, लेकिन सब का मूल है एक ही है लालच – मूल्य लेना ज्यादा-से-ज्यादा, देना कम-से-कम।
अगर ध्यान से देखा जाए तो लोहार की तरह
ही हम में से अधिकतर लोग जानते हैं कि कब हमारे ‘स्व’ की वजह से ‘सर्व’ का नुकसान होता है। पर यह जानते हुए भी हम दूसरों
को कष्ट में डालते हैं। यह शृंखला, कब और कैसे टूटेगी? कब तक हम दूसरों के और दूसरे
हमारे शोषण का कारण बनते रहेंगे? हमें अपना बर्ताव बदलना है।
‘कोई नहीं बदलता’ का साथ छोड़ उनका साथ
देना होगा जो ‘बदलते हैं’। बाकी लोग
क्या करते हैं इसकी परवाह किये बगैर हमें खुद ये निर्णय करना होगा – स्व के
बदले सर्व की भावना अपनानी पड़ेगी। ठंडी, शीतल बयार तो
सर्व से ही चलेगी स्व से तो लू और आँधी ही चलेगी। शोषण तो सर्व से ही रुकेगा स्व
से नहीं। शोषित होना बंद करना है तो शोषण करना बंद करें। To stop getting exploited, stop exploiting.
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