चिंतन
कर्ज का अर्थ जानते हैं? क्या इसका अर्थ सिर्फ ऋण या उधार या लोन में मिल धन ही है? चलिये, एक बार आपके मतानुसार इसका अर्थ सिर्फ यहीं तक सीमित भी कर दें तो आपको कर्ज मिला कैसे? देने वाले ने आपको कर्ज क्यों दिया? आप इस काबिल कैसे हुए कि दुनिया ने आपको कर्ज दिया?
जब हम इस दुनिया
में आए थे उस समय हम खुद खा-पी नहीं सकते
थे, चल और खड़े नहीं हो पाते थे, और-तो-और बैठ भी नहीं सकते थे। न कपड़े पहनना आता था न खाना-पीना, मल-मूत्र का त्याग भी बिस्तर में ही कपड़ों में किया करते थे। न अक्षर
ज्ञान था न कोई उपाधि। अगर हम वैसे ही रहे
होते तो हमें कर्ज मिलता? कर्ज मिलना तो दूर शायद भीख भी
नहीं मिलती। लोग दुत्कार कर दूर भगा देते। यह तो कोई और ही था जिसने हमें खाना, पीना, बैठना, चलना, दौड़ना सिखाया। कपड़े दिये और उन्हें पहनना भी सिखाया। पढ़ाया-लिखाया-सिखाया
और इस काबिल बनाया कि आज हम समाज में उठ-बैठ सकते हैं।
हमें बहुत कुछ मिला, अनेक सफलताएँ हासिल कीं। हाँ, ऐसा भी
कुछ है जो हम हासिल नहीं कर सके, हमें नहीं मिला। लेकिन वे
शायद हमारी काबिलीयत से ज्यादा रहीं हों या हमने उसे हासिल करने के लिए आवश्यक और
उचित कर्म ही नहीं किया! प्रारम्भिक लालन-पालन के बाद हमारे जीवन
में अनेक लोग आते रहे जिनका हमारे जीवन को बनाने, सँवारने और
निखारने में योगदान रहा। हमने बहुत कुछ पढ़ा, सुना, देखा। आज हमें पता भी नहीं किससे क्या सीखा? किसका
लिखा, किसका पढ़ा, किसका सुना वह क्या
था जो हमारे दिमाग में आया और हमारा यह स्वरूप गढ़ता गया और हम आज जैसे हैं वैसे
बने। उन सब ने हमारे वर्तमान स्वरूप को बनाने में अपना-अपने ढंग से सहयोग दिया।
जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं ने
बुरी आदतें बदल डालीं,
अच्छे संस्कारों से संस्कारित किया:
1) नन्ही बिटिया के प्रश्न “पापा क्या हम महीने में एक दिन
अच्छे होटल में खाना नहीं खा सकते?” ने पिता को उसका उत्तरदायित्व समझाया,
2) देर रात लोगों को घर आते-जाते देख पड़ोसी समझ गए कोई दिक्कत
है और सहायता के लिए बिन-बुलाये पहुंचे तो पड़ोसी धर्म समझ आया,
3) अपने दोस्त से
पार्क में बात कर रहा थे तो अचानक एक अंजान व्यक्ति हाथ जोड़ खड़ा हो गया “आपकी बात
सुन आज मेरी एक समस्या हल हो गई”, क्यों अच्छी बातें ही करनी चाहिए समझ आई,
4) विद्यालय की एक
प्रधानाध्यापक (प्रिन्सिपल) ने कहा “आपकी लिखी एक सलाह मानी तो मेरी दुनिया बदल गई, मुझे विश्वास ही नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है।” अच्छा ही क्यों लिखते-पढ़ते
रहना चाहिए,
समझे,
5) दुर्घटना हुई, होश ही नहीं रहा, न जाने किसने उठाया
हॉस्पिटल तक पहुंचाया, घर पर खबर की,
जान बची, अपाहिज होने से बच गये। कौन थे वे लोग पता ही नहीं! अनजानों की भी सहायता करनी चाहिए,
6) जब सड़क पर पटक कर गुंडे पीट रहे थे एक अंजान महिला बीच में
कूदी और गुंडों से छुड़ाया। कौन थी वह महिला आज तक पता नहीं। राहगीर के कर्तव्य का पाठ पढ़ा,
7) ट्रेन में सफर के दौरान दाल का दोना हाथ से गिरा और पूरी दाल
फर्श पर फैल गई। इसके पहले समझें कि क्या करें, सामने की बर्थ की महिला ने तुरंत अखबार से पोंछ
कर साफ कर दिया। सहयात्री क्या होता है समझ आई।
ऐसी ही अनेक बातें-घटनाएँ हमारे साथ घटीं-पढ़ीं-सुनीं जिसने
हमें प्रभावित किया,
हमें शिक्षा दी।
इनमें से कइयों को हमने उस समय के मुताबिक ‘कुछ’ दिया, बहुतों को कुछ भी नहीं दिया। न हमें पता है कि हमने क्या लिया और न देने वालों
को पता है कि उन्होंने क्या दिया। हमारे लिये उसका क्या महत्व था, क्या
मूल्य था, क्या भूमिका थी इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
ऐसे भी अनेक थे जिन्हें हमने कुछ दिया ही नहीं क्योंकि हमें पता ही नहीं चला कि उसने
कुछ दिया है। इस बात पर हमें चिंतन करना है कि आप-हम जो हैं उसकी तुलना में हमने
उन्हें कितना दिया? क्या हमें जो मिला उस के अनुरूप उन्हें
दिया गया? उनमें से कितनों को तो आपके माता-पिता-अभिभावकों
ने अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार ही
दिया होगा न? क्या वह समुचित था? क्या
उनका बकाया किसी ने चुकाया?
इन में केवल हमारे माता-पिता, भाई-बहन,
आस-पड़ोस, परिवार-संबंधी, दोस्त-सहपाठी, शिक्षक-गुरु ही नहीं बल्कि इनसे इतर सहयात्री,
पुस्तक, लेख, कहानी, कविता, फिल्म, पोस्टर, विज्ञापन, प्रकृति, पशु-पक्षी
और भी न जाने किस-किस ने और किन-किन ने हमारे स्वरूप को प्रभावित किया। और-तो-और
दुश्मन ने भी सिखाया। क्या आप यह सोच रहे हैं कि यह तो उनका कर्तव्य था, उनका कार्य था, जिसे उन्हें निभाना ही था। बहुत खूब, सही कहा आपने। लेकिन जिसने आपको
बताया कि यह उनका कर्तव्य था क्या उन्होंने आपको आपका कर्तव्य भी बताया? क्या हमें अपना कर्तव्य पता है? या अपने कर्तव्य को
बांध कर रद्दी की टोकरी में फेंक आए हैं?
ऐसे लोग जिन्होंने हमारे व्यक्तित्व
को बनाने में, जाने-अनजाने
में जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनका कर्ज हमारे ऊपर बाकी
है। जिन्हें हम जानते हैं उनका भी और जिन्हें नहीं जानते उनका भी। हमें उनके ऋण चुकाने
हैं, उन्हें चुकायें। हम अपने आप को उ-ऋण करें। और जिन्हें हम नहीं जानते
उनके बदले समाज को, प्रकृति को, पशु-पक्षी
को, शिक्षक को, लेखक-कवि को और ऐसे
अनेक अनजान मानव के ऋण से अपने को मुक्त करें।
जैसे-जैसे हम देते जाएंगे, उन्हें जिन्हें हम जानते हैं और उन्हें भी
जिन्हें हम नहीं जानते तो पुष्पित-पल्लवित होते रहेंगे। अगर हम देते रहेंगे, अपने कर्ज को चुकाते रहेंगे तो हम फलते-फूलते रहेंगे। यह आवश्यक नहीं कि
धन देकर ही इन ऋणों को चुकाया जाये। वही दीजिये, जो आपके पास
है। वही दें जो पाया। अपना समय दें, प्यार दें, स्नेह दें, मुस्कुराहट दें,
शिक्षा दें, सेवा दें। फेहरिस्त बहुत लंबी है, हम इसमें अपने सामर्थ्य अनुसार जोड़ते रहें, देते
रहें। यह एक परम्परा है जिसे अपने लिये, अपने लोगों के लिए
जीवित रखिये, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाते रहिये।
किसी समय हमने अपने आँगन में
एक पौधा लगाया। जब लगाया तब वह मात्र एक बीज था। उसे खाद देते रहे, पानी देते रहे,
अंधी-तूफान से बचाते रहे। हवा-धूप की व्यवस्था करते रहे। उसकी देख भाल करते रहे।
शनैः-शनैः पौधा बढ़ने लगा, पौधे से पेड़ बना गया। अब उसकी उतने
देख-भाल की जरूरत नहीं रही। कुछ खाद, हवा, पानी की व्यवस्था वह खुद करने में सक्षम हो गया,
लेकिन फिर भी उसे हमारी निरंतर आवश्यकता बनी रही। धीरे-धीरे उसमें बढ़िया पत्ते, फल, फूल आ गए। हमें प्रसन्नता के साथ-साथ सुंदर
सुगंधित फूल मिलने लगे, स्वादिष्ट फल मिलने लगे, हवा, शीतलता, छाँह, औषधियाँ मिलने लगीं। अब अगर हम यह सोचने लगें कि इस पौधे को तो हमने बहुत
कुछ दिया है अब और देने की क्या जरूरत है? अब हमारा अधिकार
है लेने का और उसका देना का! उसे देना बंद कर दें, उसकी
देख-भाल बंद कर दें। धीरे-धीरे हमें भी मिलना बंद हो जाएगा। डटे रहेंगे तो हमें ही
नहीं हमारी पीढ़ियों को भी मिलेगा।
उनसे मिलने वाले फल-फूल का
स्वाद लेते रहिए। चरित्र हमारा निखरेगा, सुवास हमारा फैलेगा। जिस प्रकार आपने जितना दिया था उससे कहीं
ज्यादा मिला। वैसे ही आप जितना देंगे आपको उससे कहीं ज्यादा मिलेगा।
याद रखिए – देना ही पाना
है।
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