(कुछ तो होती हैं कहानियाँ, कुछ घटनाएँ और कुछ आपबीती। अब कही गई बात इन तीनों में से क्या है यह पूरी तरह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या आपने वैसा क्षण जिया है या आपने ऐसा देखा है या आपको इसका कोई अहसास ही नहीं है। तो फिर, अब यह ‘प्रीति’ की आपबीती है, या घटना है, या कहानी है? यह तो या तो प्रीति ही बता सकती है या शायद आप ही तय कर करें, मैं नहीं बता सकता। लेकिन हाँ मैं यह जरूर कह सकता हूँ कि मैंने इसे एक लंबे समय तक होते देखा है, और आज भी देख रहा हूँ, लेकिन क्या अब आगे देख सकूँगा.......?)
माँ अक्सर
ही अपनी रोटियां जल्दी में बनाया करती थीं। सब को गरमागरम, मुलायम, घी लगी रोटियां
परोसने के बाद कभी अध-सिकी,
अध-पकी, कभी जली हुई, कभी दो तो कभी उतने ही आटे से बनी एक मोटी रोटी पास ही
तश्तरी में रख ली जाती। उसके बाद चूल्हा साफ किया जाता, फिर प्लेटफॉर्म,
उसके बाद आंचल से हाथ पोंछते हुए उसी तश्तरी में सब्जी, चटनी, सलाद सारी घिच्च-पिच्च
करके और एक कटोरी में दाल ले, जैसे-तैसे खाना
निबटाया जाता। पापड़ अपने लिए तो कभी सेका ही नहीं, किसी-न-किसी का बचा हुआ, ढीला, सीला खाकर ही संतुष्ट हो जातीं। बहुत चिढ़ हुआ करती थी मुझे
कितनी बार गुस्सा भी किया,
कई बार उठकर उनके लिए दूसरी रोटी बना लाती, पर वो हमेशा यही कहतीं, 'अरे... मेरा तो चलता है, स्वाद तो वही है
न।'
मैं पलटकर कहती... अगर स्वाद वही है, तो कल से हम सभी को भी वैसी ही रोटी बनाकर दो।' वो निरुत्तर हो जाती,
गर्दन को एक झटका दे हंसने लगतीं। कभी-कभी मुस्कुराकर कह भी देती थीं, जब माँ बनोगी, तब समझोगी।'
मैं झुंझला जाती और चिल्लाती।'
पर चिल्लाने
से क्या होता है... शादी हुई, ससुराल आई। आम
भारतीय नारी की तरह जीवन चलने लगा। पूज्य ससुर जी के निधन के बाद हम सासू-माँ के
साथ हमारे शहर में रहने लगे। एक दिन अचानक ही कुछ बात चली और उन्होंने मुझे कहा...
'तू मेरे लिए कुछ स्पेशल न बनाया कर, मैं तो सुबह का बचा भी खा लेती हूँ। उस दिन बहुत दिल दुखा
मेरा,
और मैंने उन्हें कहा... 'आप घर की सबसे बड़ी हैं और विशिष्ट भी आपके लिए कुछ करना मुझे अच्छा लगता है, करने दीजिए।' वो हैरान हो मेरा चेहरा देख रही थीं, पर उन्हें ये सुनकर कहीं प्रसन्नता भी हुई थी, उनकी आंखों की नम कोरें इसका प्रमाण थीं।
उन्हीं
दिनों मेरा भाभी जी (जेठानी जी) के यहाँ भी जाना हुआ। वहाँ भी मिलता-जुलता दृश्य...
भाभी बच्चों की प्लेट में ही अपना खाना लगा लिया करतीं और उनके प्लेट में बचे-खुचे
के साथ थोड़ा और परोसकर भोजन शुरू कर देतीं। कई बार ऐसा भी होता कि कुछ बचा
होता... तो बच्चों को कहतीं... इधर दे जाओ, मैं खा लूंगी।'
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने तुरंत ही कहा... 'भाभी, आपका खाना तो हो
गया था,
फिर आपने क्यों लिया?' उनका जवाब था,
'अरे,
फेंकना पड़ता, बेकार जाता,
सो... खा लिया।' मैंने सवाल किया.... 'आप डस्टबिन हो, जो सब का बचा-खुचा आपको ही समेटना है, आपको स्वास्थ्य की परवाह नहीं?' वो सोच में पड़ गई थीं। पर एक वर्ष बाद जब हम मिले, तो उन्होंने कहा कि... 'मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था इस बात पर, मेरे बढ़ते हुए वजन का एक कारण ये भी था। उन्हें खुश देख मैं और भी खुश
हो गई थी। समय बीतता गया।
पर आज कुछ
ऐसा हुआ कि ये सभी यादें एक साथ ताजा हो गई। मैं खाना लेकर बैठी ही थी, बेटी जिद पर थी कि आपके ही साथ खाऊंगी। मेरे आते ही उसने
रोटियां बदल लीं। मैंने उसके हाथों से छीनने की बहुत कोशिश की, पर वो नहीं मानी। उसके चेहरे पर वही चिढ़ थी और आंखों में
वैसा ही दुख! सच में बहुत ही बुरा लगा मुझे! आंखें नम हैं, वक्त के साथ पता ही नहीं चला कि कब मेरी बेटी बड़ी हो गई और
मैं 'माँ'
जैसी!
यह केवल
खुद रूखा-सूखा खा कर परिवार को अच्छा गरम खाना देना तक सीमित नहीं है बल्कि यह
है खुद कष्ट उठा कर भी दूसरे के सुख का ध्यान रखना है।
(पिछली
बार मैंने लिखा था ‘अपना कर्ज चुकाया’,
यही है अपना असली कर्ज चुकाना और इसकी शिक्षा उपदेश से नहीं उदाहरण से ही दी जा
सकती है। याद रखिये आपने दिया तभी आपने पाया।
(प्रीति एक गुजरात में रहने वाली एक सामाजिक कार्यकर्ता व ब्लॉगर हैं)
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