मेरा एक मित्र है, बल्कि सहपाठी। हम दोनों एक ही विद्यालय की एक ही कक्षा के छात्र थे। मेहनती है और लोगों से काम लेना भी आता है और दूसरों की सहायता करने में आगे भी। बागवानी का शौक है। छोटा सा बगीचा है जिसमें भांति-भांति के फल-फूल के पेड़ लगे हैं। एक दिन जब वह शहर के बाहर, किसी नर्सरी में पेड़-पौधे लेने जा रहा था, मैं भी उसके साथ हो लिया। नर्सरी क्या थी पूरा बगीचा था। छोटे-छोटे पौधों से लेकर आदम कद के पेड़ तक थे। पौधे की लंबाई के साथ-साथ उसके मूल्य में भी गुणात्मक वृद्धि। नर्सरी के मालिक ने बताया कि इन छोटे-बड़े पेड़ों को उखाड़कर नयी जगह लगाने तक का काम वे लोग करते हैं। आजकल यही काम ज्यादा हो रहा है। सोच रहा था कि इन्हें कौन और क्यों खरीदता होगा? उसने बताया कि विवाह आदि के अवसर पर कृत्रिमता को वास्तविकता का जामा पहनाने के लिए ये भाड़े पर दिये जाते है। सत्य और असत्य को पृथक करना अपने आप में एक चुनौती बन गई है। लेकिन मुख्य बात यह थी कि अब शहरी लोग छोटे पौधे के बजाय, पैसों की परवाह किए बिना इन बड़े पेड़ों को ही ज्यादा खरीदते हैं। क्यों? अब न तो किसी के पास धैर्य है न ही दुनिया-समाज की परवाह। और तो और अपने बच्चों तक की भी नहीं। अगर क्यारी लेते हैं तो उसके फल तो अगली पीढ़ी ही खाएगी, खुद को तो चखने भी नहीं मिलेंगे, उसका आनंद तो कोई और ही लेगा, क्या मतलब निकलता है इसका? अगर मैं कर रहा हूँ, तो इसका आनंद भी मुझे मिलना ही चाहिये, नहीं तो क्या ‘फायदा’? इतनी संकीर्ण सोच? मैं तो बुत बना खड़ा उसकी बातें सुनता रह गया।
और इसके विपरीत, ये दो छोटी घटनाएँ:
पहला - बालमन
बाल मन एक वैज्ञानिक होता
है। बात उन दिनों की है जब चीनी दस रुपए किलो थी। चाय पीने वालों के गुट में मेरा
परिवार भी शामिल था। उस समय का तौल भी पक्का, सामान भी अच्छा। आज के जैसे नहीं कि अगर चीनी चालीस रुपए प्रति किलो,
तो आधा किलो का इक्कीस रुपया और एक किलो का चालीस। यह
जनसाधारण के आर्थिक शोषण का व्यापारियों द्वारा अन्वेषित नई परंपरा है।
मुझे रोज सुबह एक रुपए का बड़ा-सा सिक्का मिलता था। मैं वह सिक्का लेकर दुकान पर
पहुंचता, एक रुपए की चीनी ले सीधे घर की तरफ चल पड़ता। जब अपने घर के पीछे,
जहां एक बगीची थी, के पास पहुंचता मुट्ठी में
चीनी भरकर, जैसे किसान खेतों में गेहूं और सरसों बोते हैं,
वैसे ही बो देता था। बाकी चीनी मां को दे देता। चीनी वास्तविक तौल
से कम होती थी। अतः शंका होना लाजिमी था। दुकानदार के पास शिकायत हुई। उसने साफ तौर
पर मना किया। उसने कहा, 'मेरा तौल पक्का है। आपका बच्चा चीनी
खा जाता होगा।' गुप्त रूप से तहकीकात हुई। मैं रंगे हाथों
पकड़ा गया। बड़े भाई ने पूछा, 'ये क्या कर रहे हो?' मेरा जवाब था, 'चीनी के पेड़ उगेंगे, परिवार की समस्या ही समाप्त हो जाएगी' सच बालमन
किसी वस्तु को कितनी अलग तरह से समझता है। कहाँ से ऐसे विचार उसके मन में पनपे
होंगे? परिवार के भविष्य के बारे में सोचना कहाँ से सीखा
होगा?
दूसरा - हम आजीवन ऋणी हैं
सारी
जमीन-जायदाद यहीं रह जाएगी, धन-दौलत,
गहने, कपड़े सब छूट जाएंगे। मेरे साथ जाएगा
केवल वह, जो स्वयं के देह को क्षत-विक्षत करके भी मुझे अपने
आगोश में लेगा, समा जाऊंगा उसी की गोद में, जब इस लोक की यात्रा पूर्ण करने के बाद परलोक के लिए जाऊंगा, केवल वही मेरे साथ जाएगा, वह 'वृक्ष'
जो अपनी टहनियां देकर मेरी चिता सजाएगा और मेरे साथ-साथ अपना
अस्तित्व भी मिटा डालेगा मुझे ईश्वर से 'मिलाने के लिए।'
ये विचार मेरे मन में बस
यूं ही अचानक नहीं आ गए, बल्कि ये सच्चाई है हमारे समाज,
घर-परिवार के बुजुर्गों की दूर-दृष्टि की, जिसने
मुझे इन पेड़-पौधों, वृक्षों के प्रति अलग नजरिये से देखना
सिखाया और इसके गवाह हैं हमारे आंगन में लगे हुए पेड़...।
मेरे पिता
द्वारा साठ के दशक में लगाए गए आम के पौधे, जो अब विशालकाय वृक्ष का आकार ले चुके हैं, जो अब
हमारे घर के सदस्य, हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा हैं। वे
आम के पेड़ आज भी मीठे फल दे रहे हैं, पूरे घर को छाया देकर
तन कर खड़े हैं किसी रखवाले की तरह। उस पेड़ के आम का स्वाद हमारे घर की 4थी पीढ़ी उठा रही है। कितनी दूर की सोच थी हमारे पुरखों की, उस समय न तो कोई पर्यावरण दिवस था, न ग्लोबल
वार्मिंग जैसे शब्द, लेकिन अपनी इस कृति के रूप में वे आज भी
जीवित हैं। हम आजीवन ऋणी हैं उनके इस अनमोल धरोहर के, उनके
आशीर्वाद के रूप में, जो हमें आज भी उनकी याद दिलाता है।
वृक्षों के रूप में मिला उनका अविस्मरणीय आशीर्वाद जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका
अस्तित्व जीवित रखेगा।
अपनी तो सब सोचते हैं। उससे दो कदम आगे चल कर बच्चों के भविष्य की, समाज की, दुनिया की भी सोचिये। हम बदलेंगे, युग बदलेगा।
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