एड्स की रोक थाम के बहाने मानवीय एवं नैतिक मूल्यों पर ज़ोर
यह
बड़े हर्ष का विषय है कि वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री ने एड्स की रोक थाम के लिए कंडोम
के प्रयोग के बदले नैतिक मूल्यों पर ज़ोर देने की बात की। विशेष ध्यान देने की बात है कि प्रशासन के शिखर से एक राजनेता नैतिकता की बात कर रहा है। यह टिप्पणी सराहनीय तो
है ही, चौंकाने वाली भी है। पिछले कुछ वर्षों में
बने माहौल में नैतिकता का जो पतन हुआ है वह शर्मनाक है। राजनीति का पर्याय ही
अनैतिकता, अपराध, भेद-भाव आदि हो गया है। आम आदमी ने भी “यथा राजा तथा प्रजा”
को सत्य प्रमाणित किया। ऐसी परिस्थितियों में अगर मंत्री नैतिकता एवं चरित्र निर्माण की बात कर रहे हैं, तो यह
आवश्यक है कि हम उनका साथ दें।
आज
सबसे बड़ी समस्या मानवीय संवेदना, नैतिकता एवं संस्कृति का विलोप
होना है। कहीं भी इनकी जानकारी नहीं दी जाती है और इनका सीधा संबंध धर्म से कर
दिया गया है। धर्म का हमने ऐसा हाल कर रखा है कि हम धर्म शब्द से ही घबड़ाने लगे हैं और इसे अछूत
समझने लगे हैं। कहीं भी कुछ भी हो, अगर हमें नुकसान
नहीं तो हमें मतलब नहीं।
लोग आहट से भी आ जाते थे गलियों में कभी,
अब जो चीखें भी तो कोई घर से निकलता ही नहीं।
एक
समय था जब हम यह मानते थे कि हमें अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए। लेकिन पिछले कुछ
वर्षों में यह पाठ ठोंक ठोंक कर पढ़ाया गया है कि किसी भी हालात में हम अपनी गलती स्वीकार न
करें। इसका परिणाम धीरे धीरे यह हुआ कि हम सर उठा कर गलतियाँ करते हैं, अपराध करते हैं। झूठ बोलना, घूस लेना, अपशब्द बोलना, नियमों को तोड़ना तो बहुत साधारण सी
बात हो गई है। हत्या, बलात्कार, बड़ी
हेराफेरी भी हम शान से करते हैं और जरा भी हिचक नहीं होती। ये घातक बीमारियाँ
हमारे समाज में इस तरह फैल गयी हैं जैसे एड्स। फर्क इतना ही है कि
एड्स की रोक थाम के लिए हम चिंतित हैं, लेकिन इस
नैतिक पतन से हमारा कोई सरोकार नहीं। सरकार एवं प्रशासन भी धर्म निरपेक्षता का जामा
पहन कर इस तरफ से उदासीन है। इसका परिणाम
यह हुआ कि बुरे ताकतवर होते चले गए और अच्छे कमजोर। दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की सहनशीलता ही बड़ी बुराई है। घने बादल
से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है। हमारे देश में यही हुआ। इस परिस्थिति को बदलना होगा। अच्छे की दुर्बलता दूर करनी होगी। इसके
लिए नैतिकता एवं चरित्र निर्माण की बात करनी होगी।
यह
किसी एक धर्म विशेष की धरोहर नहीं है। यह मानव धर्म है और इसका पाठ विद्यालयों एवं
विश्वविद्यालयों में पढ़ाना आवश्यक है। जैसे हम अपने घर, ऑफिस, सड़क, उद्यान को साफ तभी
रख सकते हैं जब हम उसे गंदा न होने दें। इन्हे साफ रखने के लिए तो हम बड़े बड़े अभियान
चलाते हैं। लेकिन समाज की सफाई? समाज गंदा न करने का पाठ? धार्मिक पंथो, मठों, धर्माचार्यों को तो हमने अपराधी बना कर कटघरे
में खड़ा कर दिया है। धर्म निरपेक्षता का इतना शोर मचाया है कि “धर्म” ही विलुप्त
हो गया। तब कौन हमें इसका पाठ पढ़ाएगा?? कहीं किसी को तो कदम उठाना ही होगा। अगर किसी मंत्री ने पहल की है तो हमें उसे पूरा समर्थन देना होगा।
किसी
भी प्रकार के नियम एवं कानून उतनी सफलता हासिल नहीं कर सकते जितना चरित्र एवं
नैतिकता की सजगता हासिल कर सकती है। आवश्यक है कि हम चरित्र, नैतिक, संस्कृति की ऐसी दीवार बनाएँ कि अपराधी
ही समाप्त हो जाएँ। अमन और शांति का वातावरण बने।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें