आओणी, पधारो म्हार देस रे!
अपने देश में आने की
गुजारिश करने वाले ये शब्द राजस्थान से आता निमंत्रण है। पहाड़ों और समुद्री तट से दूर बालुकामय रेगिस्तानी प्रदेश
है राजस्थान। रेगिस्तान होने के बावजूद सैलानियों की पसंदीदा जगह है। चमड़ी जलाने
वाली गर्मी और खून जमा देने की ठंड के बावजूद घुम्मकड़ों को राजस्थान पसंद है। देशी
ही नहीं विदेशी पर्यटकों का भी तांता लगा रहता है। बालू के टीले, ऊंट की
सवारी, हवेलियों की नक्काशी, सारंगी की
धुन पर कलबेलिया या घूमर नृत्य करती बालाएँ, गड़, दुर्ग, धार्मिक स्थलों से परिपूर्ण, चटख रंगों की पोशाक, उन्मुक्त व्यवहार, उत्तम भोजन लोगों को निरंतर आकर्षित करता है। हाइवे पर आते जाते दुर्ग की
दीवारें, छतरियाँ, बुर्ज के खंडहर जगह-जगह
ऐसे दीख पड़ते हैं जैसे कि बालू में उगने वाली वनस्पति हो। वैसे गौर किया जाए तो इसका
ऐतिहासिक एवं भौगोलिक कारण है। भारत में सब आक्रमण पश्चिम से हुए। सब आक्रान्ता
राजस्थान को ही रौंदते लूटते हुए भारत में आए। इनके अलावा भीतरी गणराज्यों, प्रदेशों, शासकों में भी निरंतर युद्ध चलता रहता
था। कभी भी कहीं भी युद्ध छिड़ जाए, आक्रमण हो जाए। हर समय
तैयार। शायद यही कारण रहा यहाँ के बेशुमार दुर्ग, छतरियाँ
तथा बुर्ज के निर्माण और साथ ही धार्मिक स्थलों की बहुलता और उनमें अटूट श्रद्धा
का। आज भी देश एवं विदेशों में बसने वाले अनेक राजस्थानी परिवार ऐसे मिल जाएंगे जो
प्रत्येक वर्ष या माह एक या कई राजस्थान के धार्मिक स्थल में दर्शन करने आते ही
हैं। यह उनका मासिक या वार्षिक नियम है।
लेकिन इस सब के बावजूद हमारी
यह यात्रा न धार्मिक थी और न ही ऐतिहासिक बल्कि जंगली यानि जंगलों की, प्रमुखत:
बाघ देखने की थी। राजस्थान में वन्य जीवन भी प्रचुर मात्र में है। हमारा पड़ाव
सवाईमाधोपुर के नजदीक रणथंभोर और अलवर के नजदीक सरिस्का राष्ट्रीय उद्द्यन था।
कोलकाता से आधीरात की फ्लाइट से सुबह-सुबह 1 बजे जयपुर पँहुचे। वहीं से रात का सफर
करते हुए गाड़ी से सुबह सुबह रणथंभोर में राजस्थान पर्यटन विभाग के होटल ‘झूमर बावरी’ में डेरा डाला और निकल पड़े जंगल सफारी
में। यह एकमात्र होटल जंगल में है, या बेहतर होगा कहना, था। प्रवेश के समय जरूर ऐसा लगता है कि जंगल में जा रहे हैं लेकिन इसके
अलावा जंगल जैसा कुछ रहा नहीं। अब शहर फैल गया है और जंगल सिकुड़ चुका है। इसके
चारों तरफ शहर ने अपने पैर पसार लिए हैं। दशकों पहले यहाँ के झरोखों, गलियारों से जानवर देखने मिलते थे, लेकिन अब सिर्फ मोर, बंदर और रंग बिरंगे पक्षी। शायद कभी कभी हरिण भी दीख पड़ें। बावरी की
बनावट भी पुराने जमाने की सी ही है लेकिन महलों-रजवाड़ों सी भव्यता नहीं है। थोड़ा
बहुत परिवर्तन किया गया है लेकिन फिर भी सकारात्मक छाप नहीं छोड़ता। अफ़सरों और
कर्मचारियों का व्यवहार भी “सरकारी” है। रख रखाव भोजन में भी इसकी झलक थी। खर्च के
अनुरूप न सुविधा है न सहूलियत। जंगल सफारी में नजर कुछ आया नहीं, जो आया वह बयान करने का नहीं क्योंकि हम वह देखने नहीं गए थे।
रणथंभौर राष्ट्रीय
उद्द्यान
जंगल में घूमने के लिए
सुबह और शाम वन विभाग से सफारी की व्यवस्था है, वन विभाग के कैंटर या जिप्सी से। इनका
आरक्षण ऑनलाइन www.rajasthanwildlife.in पर किया जा सकता है। वेब साइट पर भी सरकारी छाप है। आरक्षण रणथंभौर में भी
किया जा सकता है। विशेष भीड़ न हो तो जगह मिलने की गुंजाइश है। जंगल में घूमने के
अलग अलग 6 जोन हैं। वैसे तो पर्यटक की तकदीर है लेकिन कहते हैं कि प्रथम 3 जोन में
बाघ दिखने की संभावना ज्यादा है। यह भी कहा जाता है कि इस जंगल में बाघ दिखने कि
संभवना 90 प्रतिशत है। पर यह भी एक सत्य है कि मैं यहाँ दो बार हो आया लेकिन मुझे
दोनों बार ही बाघ नहीं दिखा। उसके पंजों के निशान, उसका मल, जानवरों की आती आवाज से बाघ के आस पास होने की संभावना पर दोनों बार बहुत ज़ोर दिया गया और
दिलासा दी गई कि बस अभी दिखेगा। और इस प्रकार सांत्वना प्रदान करने में कोई कसर
नहीं छोड़ी गई।
रणथंभौर का किला
रणथंभौर के दो भाग हैं। १ला
जंगल, ज्यादा सैलानी इसी लिए आते हैं, और २रा गणेशजी का मंदिर। हिंदुओं में इस गणेश मंदिर का विशिष्ट
स्थान है। किसी भी शुभ कार्य के प्रारम्भ में गणेशजी की ही पूजा की जाती है। उन्हे
विघ्नहर्ता, मंगलकर्ता भी कहते हैं। हर शुभ कार्य का पहला
निमंत्रण पत्र भी गणेशजी को ही देने की मन्यता है। भगवान गणेश का यह निमंत्रण पत्र
गणेशजी के इसी मंदिर में भेजा जाता है। देश विदेश से ऐसे ढेर निमंत्रण पत्र रोज इस
मंदिर में पहुँचते हैं। यह मंदिर इसी किले के अंतिम छोर पर है। किले के भग्नाविशेषों
को लांघते हुवे जब यहाँ पहुँचते हैं तो पूरी थकान मिट जाती है। दुर्ग दिखने के लिए
किले के दरवाजे पर गाइड मिलते हैं। उनके बिना इतिहास पूरा समझ नहीं आता लेकिन समय
और उन से मिली जानकारी कि तुलना में उनका शुक्ल ४५० रुपए बहुत ज्यादा हैं। उचित है
जाने के पहले गूगल कर लिया जाए, घुसते समय पुरातत्व विभाग के
बोर्ड और शिलालेखों को पढ़ लिया जाए या फिर मांगी गई रकम से आधी रकम में बात तय की
जाए। खैर आदतन हमने गाइड साथ लिया।
सामान्यत: अन्य दुर्गों की
तरह सुरक्षा के दृष्टिकोण से इस दुर्ग का निर्माण भी एक पहाड़ी पर किया गया। घुमावदार
रस्तों पर एक के बाद एक पाँच द्वार मिलते हैं। इनके नाम भगवानों के नाम पर हैं जिनमें
पहला द्वार “गणेश पोल” कहलाता है। खास बात यह है कि हर द्वार घुमावदार मोड़ पर है।इस कारण जब तक हम ठीक द्वार के सामने नहीं पहुँचते, इस बात का भ्रम बना रहता है
कि आगे चट्टानों का रास्ता ही है। विशालकाय
द्वार काठ के बने हैं जिन में
नुकीले मोटे कील लगे हैं। इन कीलों के कारण दरवाजों पर धक्का मारना कठिन होता है। बंद
दरवाजों को तोड़ने के दो ही साधन थे – मद पिला कर मस्त हुए हाथियों द्वारा धक्का मरवाना
या फिर लकड़ी के बड़े बड़े लट्ठो द्वारा प्रहार करना। घुमावदार रास्ते होने के कारण
बड़े लट्ठों का प्रयोग नहीं किया जा सकता था और हाथियों के लिए भी सीधे दौड़ते हुए धक्का
मारना संभव नहीं होता था। अत: प्रहार स्वत: धीमा हो जाता था। दरवाजों को तोड़ना
श्रमसाध्य होने के कारण या तो दुश्मन लौट जाता था या फिर समय ज्यादा लगने के कारण
थक जाता था और जोश ढीला पड़ जाता था।
अंतिम द्वार के दो नाम हैं
– शत्रुओं के लिए “भूल-भुलईय्या” और किले के वासियों के लिए “स्वागत” द्वार। शत्रुओं के लिए इस अंतिम द्वार
तक पहुंचना कठिन होता था और ऐसा मौका कम ही आया। प्राय: अपनी ही सेना विजय के बाद
इस द्वार तक लौटती थी। अत: रानियाँ एवं किले की अन्य औरतें इस द्वार पर विजयी सेना का आदर सत्कार
करती थीं। इस द्वार पर ऊंचे झरोखेदार
स्वागत पोल पर ऊंचा भवन |
भवन बने हुए हैं जहां से पुष्प वर्षा की जाती थी, विजयी सेना के दर्शन किए जाते थे, उनका स्वागत किया जाता था। लेकिन अगर आने वाली सेना शत्रु सेना हुई तो इन
झरोखों से पुष्प के बजाय शस्त्रों, पत्थरों, मिरचा आदि की वर्षा करना भी संभव था। शत्रु सेना का इस द्वार तक पहुंचना
खतरे की भी निशानी थी क्योंकि यह अंतिम द्वार था। यह भ्रमित द्वार ऐसा बनाया गया
है कि बंद अवस्था में खुले होने का भ्रम पैदा करता है। खुला द्वार समझकर, विजयी भाव से शत्रु विजयोन्मत्त हो दौड़ता हुआ आगे बढ़ता और संभलने के पहले
सामने अदृशय गहरी खाई में गिरता जाता है। इसके पहले कि सेना समझे और संभले जान की
काफी हानि हो चुकी होती है। संभलने के बाद ही दृष्टि घूमने पर दूसरा विशाल द्वार
नजर आता है। इसको पार करना एक प्रकार से किला फतह करना ही है। शत्रु सेना के लिए
भी और अब पर्यटकों के लिए भी क्योंकि इसके बाद चढ़ाई समाप्त हो जाती है और रास्ता
सुगम हो जाता है।
इस द्वार को पार करते ही मंदिर
के भग्नाविशेष हैं। जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं दुर्ग में कब्रगाह, सरोवर,
उद्यान आदि मिलने लगते हैं। इन्हे पार करने पर महल और रनिवास भी है जिस पर ताला
लगा है। भग्नाविशेष, रख रखाव तथा जीर्णोद्धार मांगता है।
पुरातत्व विभाग के लिए यह एक बहुत मंहगा सौदा है। पर्यटक भी इनसे छेड़ छाड़ किए बिना
बाज नहीं आते। अत: सबसे अच्छा विकल्प होता है द्वार पर मोटा सा ताला लगा कर
“प्रवेश निषेध” लगा देना। और यही किया है विभाग ने। अत: यह पूरा परिसर पहुँच के
बाहर है।
आगे बढ़ने पर मैदान में एक
के ऊपर एक पत्थरों को सजा कर छोटे बड़े
भवननुमा आकार दिखे। पता चला कि सौलनी यहाँ पत्थरों से “मकान” बनाते हैं और
अपना खुद का मकान बनने कि दुआ
जौहर स्थल, पत्थरों के मकान तथा झड़ियों में मन्नत |
मांगते हैं। इसकी उल्टी दिशा में झाड़ियों में मोली, रिंग, बालों के बंद बंधे दिखे। अपनी मनोकामना पूरी करने की मिन्नतें। हम यह भ्रम
पालते हैं कि ऐसा नजारा केवल भारत या
संसार के पिछड़े देशों में ही देखने को मिलता है। दृष्टि हो तो ऐसे नजारे विश्व के उन्नत
देशों में भी देखने को मिलते हैं। हमने ऐसा नजारा ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, इंग्लैंड, अमेरिका
में भी देखा है। यह इस बात को पुष्ट करता है
कि अपने आप को शक्ति सम्पन्न और पढ़ा लिखा समझने वाला इंसान भी कहीं न कहीं स्वयं को
मजबूर और अशक्त पाता है और तब उस अनजान शक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता अर्पित करता है,
अपने को समर्पित करता है, उसके सामने घुटने टेक देता है। आध्यात्मिक
उपदेश पर जाने अनजाने विश्वास कर फल उसके भरोसे छोड़ प्रार्थना करने लगता है।
इसके बाद है “जौहर” स्थल। ठीक
इसके पहले किले से बाहर निकलने के लिए गुप्त सुरंग भी बनी हुई थी। जौहर, राजस्थान
में आम बात थी। अब हम इसे कुरीति मानते हैं, लेकिन कभी यह
समय की विवशता थी। पुरुष अपनी जिंदगी हथेली पर लेकर चलता था। युद्ध कभी भी, कहीं भी छिड़ सकता था। जीवन- मृत्यु के बीच लुका-छिपी चलती रहती थी। पराजित
होने पर सबसे बड़ा अत्याचार किले की औरतों को ही झेलना पड़ता था। अमानवीय अत्याचार
और अपमान से बचने के लिए जौहर का चलन था, जिसमें किले की औरतें एक साथ अपने को उस नारकीय पीड़ा और जिल्लत से बचाने
के लिए धधकती आग में कूद पड़ती थीं।
गणेश मंदिर
इस भावुक स्थान से आगे बढ़ने
पर अचानक चट्टानों की खड़ी दीवार के बीच प्राकृतिक गहरी खाई नजर आती है। खंबे की
भांति खड़ी चट्टानों से उतरना और चढ़ना असंभव है। अत: इधर पीछे से हमला होने की गुंजाइश नहीं बनती, यह स्थान
प्रकृति द्वारा स्वत: सुरक्षित है। इसी छोर पर विराजमान हैं देश भर में पूजित
शिवसुत गणेशजी का मंदिर। श्रद्धालुओं का
तांता इनकी मान्यता की कहानी खुद बयान करती है। देखने में छोटा लेकिन मान्यता में
बड़ा। यह जगह लंगूरों से भरा पड़ा है। हथेलियों में चने रख कर उन्हे चने खिलाने का एक
अलग ही अनुभव हुआ। एक बार तो भय सा हुआ और इसी कारण सब चने उछाल दिये। लेकिन एक
बार भयहीन हो कर अपनी मुट्ठी खोलें तब पता चलता है कि इंसान कौन है – हम या लंगूर।
लंगूर जमा हो जाते हैं। कोई मार पीट नहीं, छीना झपटी नहीं, धीरे से अंगुलियों को पकड़ कर हथेली से चने उठा कर खाते हुए लंगूरों की
गणेश मंदिर के समीप लंगूर |
साफ
सुथरी बेहद नरम उंगलियों और हथेली का स्पर्श मन प्रफुल्लित कर देता है। शर्त है, ऐसा करने की हिम्मत जुटाने की। यह बात साफ समझ आती है कि यह चार पैरों
वाला बंदर ही इंसान था और अब दो पैरों वाला इंसान लंगूर है।
यही सोचता, इसी उधेड़ बुन
में कब किले से नीचे उतार आए पता ही नहीं चला।
भानगढ़
हमारा अगला पड़ाव था सरिस्का, लेकिन
रास्ते में पड़ता है भानगढ़। गूगल बाबा ने बताया कि भारत का सबसे हौंटेड (भुतहा)
स्थल यही है। अत: इसे भी देखने की इच्छा हुई। पहले दरवाजे से प्रवेश करने के बाद सड़क के दोनों
किनारे पत्थरों की छोटी बड़ी अनेक दुकानों की शृंखला नजर आई। किसी समय यहाँ जौहरी
बाजार लगता था। बड़े बड़े लाल पत्थरों से बना यह बाजार देखने लायक।
जौहरी बाजार, भानगढ़ एवं मंदिर |
अब पूरा खंडहर है
लेकिन अपने समय में इसकी भव्यता का अंदाज़ लगाया जा सकता है। पूरे बाजार को पार
करने के बाद है गढ़ का दूसरा दरवाजा। अंदर
प्रवेश करते ही दाहिनी तरफ ऊंचे चबूतरे पर उत्कृष्ट मंदिर का भग्नावशेष है। और भी मंदिर हैं, बाज़ार
हैं, छतरी है, भवन हैं और सब से अंत
में दुर्ग भी। लेकिन कहीं कोई गाईड नहीं हैं शिलालेख जरूर हैं। आस पास के गाँव के
पुरुष एवं महिलाएं गाईड का कार्य करती हैं और सब की अपनी अपनी कहानी हैं। रात को
भूत, प्रेत के लिए भी मतांतर हैं। पर्यटक को जो अच्छा लगे, मन को भाए उसे ही सत्य मान लें। यह निश्चित है की यह दुर्ग उपेक्षित
है।
सरिस्का राष्ट्रीय उदद्यान
भानगढ़ से निकल कर हम सीधे
पँहुचे अपने अंतिम पड़ाव पर सरिस्का, और जगह थी टाइगर हैवन, स्टरलिंग रिज़ॉर्ट। हाँ, जंगल घूमने के लिए हमने
ऑनलाइन सफारी का आरक्षण करवा लिया था। लेकिन आरक्षण ऑफिस पर सब कुछ अव्यवस्थित सा
लग रहा था। ठंड का मौसम और सुबह का समय होने के कारण कोई बताने वाला भी नहीं था
साथ ही किसी प्रकार की रौशनी न होने के कारण सब कुछ धुंधला सा ही नजर आ रहा था।
अंदाजन ही दुविधा से ही भटकते हुए ऑफिस और फिर खिड़की तक पहुंचे। धीरे-धीरे भीड़
होने लगी तो लगा कि सही जगह पर खड़े हैं।
यहाँ भी कई जोन हैं। बातें
कई हैं, सच्चाई यही है कि सब जोन एक ही हैं। तकदीर आपका कुछ दिखा या नहीं। आरक्षण
पर्ची में लिखा तो था कि एक दिन पहले बोर्डिंग पास लेना पड़ेगा लेकिन वैसा कुछ नहीं
था। ऑनलाइन आरक्षण करवाने का फायदा मिला। कारण, विशेष खिड़की
से हमें तुरंत पास मिल गया और उस दिन की जंगल में घुसने वाली पहली गाड़ी हमारी ही
थी। दर्द इस बात का
था कि इससे कोई लाभ नहीं हुआ।
जंगल में उल्लेखनीय कुछ नहीं दिखा, हमें भी दूसरों को
भी। लेकिन हाँ, यात्रा के मध्य में जहां हम रुके वहाँ काफी
पक्षी थे, निडर और निर्भय। हमारे सिरों पर आकर बैठ गए। ऐसा
नजारा हमने इसके पहले कभी नहीं देखा था। हम देखते रह गए और वे आकर हमारे सिरों पर
बैठते रहे।
रिज़ॉर्ट, स्टरलिंग
के अन्य रिज़ॉर्ट की ही तरह अच्छा, साफ सुथरा, खुला खुला और बड़ा सा था। लेकिन यहाँ का रेस्तरां अन्य जगहों की तुलना में
दब था। सुविधा में, सजावट में, व्यजनों
के चयन
स्टरलिंग रिज़ॉर्ट, टाइगर हैवन |
में तथा उन्हे पकाने में भी।
पूरी यात्रा में सबसे
महत्व की बात होती है आपकी टैक्सी का ड्राईवर। जानकार और अच्छा व्यक्ति हो तो आपकी
यात्रा में चार चाँद लग जाते हैं और अगर उलट हो गया तो ग्रहण। हमारी यात्रा को
चाँद नहीं लगा लेकिन ग्रहण भी नहीं।
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