सूतांजली ०१/०८ ०१.०३.२०१८
नव
वर्ष - नव संकल्प - नव संवत्सर
चैत्र
शुक्ल प्रतिपदा २०७५,
तदनुसार १८ मार्च २०१८
आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:
- (ऋग्वेद १-८९-१)
जहां कहीं से श्रेष्ठ विचार मिलें, ग्रहण करना चाहिए।
नव
वर्ष का सूर्योदय हम बिस्तर पर न गवायें।
न ही सिर्फ घूमने-फिरने, नाचने- कूदने, पकवान-मिष्ठान्न खाने में व्यर्थ
करें। नव वर्ष के प्रारम्भ में हम पुरानी भूलों को अवश्य याद करें। उन भूलों पर
विचार करें और तब आगे की मंजिल देखें। इस बात पर गौर करें कि सामने वाले ने कम
दिया या हमरी अपेक्षाएँ ज्यादा थीं? हरीन्द्र दवे के अनुसार,’किसी का प्रेम कम नहीं होता, हमारी अपेक्षाएँ ज्यादा
होती हैं।’ इस सत्य को स्वीकार करें कि इस जीवन में सब कुछ
नहीं पाया जा सकता लेकिन अपनी समझ एवं सकर्म के मेल से बहुत कुछ पाया जा सकता है। जो हासिल नहीं कर पाये हैं उसके मिलने की
संभावना बनी हुई है। पाने का यत्न ही गतिशीलता है और गतिशीलता ही हमारी विजय है। गलतियाँ
तो उसी से होंगी जो कार्य करेगा। या तो उन
गलतियों का सुधार कर लिया जाय या फिर छोड़ दिया जाए। भाषा में, कर्म में, कहीं भी चूक हो तो हम उसे समझें और उसका
निदान भी निकालें। यह इंसान से ही संभव है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हम अपनी
गलतियों – भूलों को समझते हैं? क्या हमारे पास इतनी फुर्सत
है कि हम अपने आप को निहार सकें? क्या हमारा संवाद हम से
होता है? क्या हमारी व्यस्तता महज भागमभाग है, संबंध औपचारिकता मात्र, धर्म केवल अनुष्ठान हैं? सत्य अनेक आयामी भ्रम हो गए हैं, प्रगति अनिश्चित गंतव्य
हो गया है, प्रेम मृग मरीचिका बन गई है, ज्ञान कुतर्क और संवाद हठधर्मिता बन गई है। द्रव्य की इस अंधी दौड़ में
हमें यह पता नहीं है कि हमें कितना धन चाहिए, किस लिए चाहिए? हमारी चाह
क्या है और उस चाह की पूर्ति के लिए कितना
द्रव्य चाहिए? अत: निराशा आनी स्वाभाविक है।
पिछले
वर्ष भी सबों ने योजनाएँ बनाई होंगी। किसी की पूरी हुई, किसी की नहीं। यह संभव है कि योजना को पूरा करने के लिए और कुछ समय
चाहिए। विभिन्न कारणों से कार्य पूरा नहीं हुआ, लेकिन व्यर्थ
भी तो नहीं गया। कुछ तो सीखा? यदि हम कुछ सीखेंगे तभी औरों
को कुछ सीखा पाएंगे। हमारी आत्मा सबसे पहले हमें सावधान करती है। इसका संकेत करती
है। हमारे हर गलत कार्य पर वह अलार्म बजती
है। लेकिन हम अनसुना कर देते हैं। स्वप्न को कभी व्यर्थ न जाने दें, उसे यथार्थ बनाएँ। कुछ सपने तो कभी साकार नहीं होते लेकिन जिन्हें पूरा
करना संभव है उन्हे करें या फिर करने का प्रयास करें। यही हमारा पुरुषार्थ है। कला
व जीवन दोनों को आत्मीयता से रचा जा सकता है। समझदार लोग कला को जीवन तथा जीवन को
कला बना लेते हैं। हमारे सम्मुख हमारा
भविष्य है और पीछे भूतकाल। दोनों हमारी पकड़ के बाहर है। अत: वर्तमान को गहराई से
साधें। हर क्षण को विशिष्ट माने। विशिष्टता हमारे कौशल और दृष्टि में है, यही पारस है, लोहे को सोना बना सकती है। कठिनाइयाँ हमारे लिए अच्छी राह बना सकती हैं। इनका उपयोग करना सीखें। अपने
श्रम, कल्पना, बुद्धि, मनोभाव को तरल बनाएँ। उनको स्नेह भरा बनाएँ तभी दीया जलेगा। यह दीया
हमारे साथ साथ दुनिया को भी प्रकाशित करेगा।
(परिचय दास से अनुप्रेरित)
दूसरों के त्योहारों को मनाना, संस्कृति को
अपनाना उत्थान का द्योतक है। लेकिन उसकी
चकाचौंध में अपनी भूल जाना पतन की निशानी
है।
मैंने पढ़ा
इसी
उम्मीद में है इंतजार होली का
‘होली’ शब्द के उच्चारण मात्र से मन में हिलोरें उठने लगती हैं और पूरा अस्तित्व
सब कुछ भूलकर बचपन की यादों में डूबने
उतराने लगता है। सात-आठ बरस की रही होऊँगी – यानि १९४२-४३ के समय की याद आती है।
तब पिताजी लखनऊ के जुबली कॉलेज में हिन्दी पढ़ाते थे। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब के
बीच पल रहे थे हम। पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था। खां साहब हमारे ताऊ जी थे
और उनकी बेगम हमारी ताई। हर बरस उनके घर से सुबह-सुबह हमारे घर बड़ी स्वादिष्ट
सिवईयाँ आतीं और शाम को साज-धज कर अपनी ईदी वसूलने जाते हम भाई-बहन। और होली के
दिन सबसे पहली पिचकारी खां ताऊ को भिगोती। अस्मत और इफ़्फ़त आपा कितना भी भागें या
छुपें हम उनके गालों पर गुलाल मले बिना उनका पीछा नहीं छोड़ते। शाम को हम खूब सारे
होली के पकवान लेकर उनसे होली मिलने जाते। वे लोग हमारे लाए लड्डू, पपड़ी, खुरमे, शक्करपारे और
खासतौर से मावे भरी गुझियाँ बहुत स्वाद ले-लेकर खाते और असीसते। ताई बेगम की
मैं सबसे लाड़ली थी। हर होली पर वे अपने
हाथों से बनाई कपड़े की गुड़िया जरूर देती थीं। गुड्डा इफ़्फ़त झटक लेती थी। फिर सावन में हम दोनों उनका ब्याह
रचाते थे। ओह! रे मीठे प्यारे बचपन! होली आने के पाँच दिन पहले घर के दो शरारती
बच्चे एक तो मैं और दूसरा मेरा छोटा भाई,
हम दोनों सुबह-सुबह निकल जाते थे और मोहल्ले भर का चक्कर लगा कर गाय का
गोबर इकट्ठा करके घर लाते थे। हम तीनों बहनें गोबर की चपटी लोइयाँ बनाकर अंगुली से
बीच में छेद बनाकर धूप में सूखने रख देतीं। हम तीनों बहनें अपने भाइयों का नाम
ले-लेकर गीत गातीं और उनके ढाल और तलवार की शक्ल की लोइयाँ बनातीं । सूखने के बाद
होली दहन वाले दिन इस छेदों के बीच से सुतली पिरोकर छोटी-बड़ी मालाएँ बनाई जाती
थीं। रात को आँगन में अम्मा एक चौकोर अल्पना बनतीं और विधिवत पूजन के बाद सबसे
पहले बड़ी वाली माला गोलाकार बिछाई जाती और क्रमानुसार उससे छोटी मालाएँ एक-एक करके
एक-दूसरी के ऊपर टिकाई जातीं और इन मालाओं का एक पिरामिड जैसा बन जाता। फिर
मंत्रोच्चारण के साथ पिताजी होलिका दहन करते। हमारा भरा-पूरा घर परिक्रमा लगाता।
हम गन्ने और हरे चने के होराहे उन लपटों में भूनते।
और
फिर वह क्षण आता, जब हम छोटे बच्चों का गहन इंतजार खत्म होता और
मुंह में पानी भर आता। कई दिन से अम्मा गुझियाँ तथा अन्य पकवान बना-बनाकर कलसों में भरकर रखती जाती थीं
और कहती थीं, ‘होली जलाने के बाद रोज
खाने को मिलेंगे।’ अब थके मांदे सब सोने जाते, पर नींद कहाँ आती थी। सुबह से ही रंग-गुलाल से होली जो खेलनी थी।
..........
कैसी
मनोहारी परम्पराएँ थीं। पहली रात में होली के साथ सारी दुशमनी जला दी जाती थीं।
दूसरे दिन मन के बचे-खुचे मैल रंगों से धो
दिए जाते थे और शाम को खुले मन से प्रेम-प्यार के वातवरण में सब एक-दूसरे से गले
मिलते थे। धीरे-धीरे हमारे देखते-देखते पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में लोग यह सब
भूलते गए और अब तो “हैप्पी होली” कह दिया और हो ली ‘होली’।
साभार
– पुष्पा भारती, आहा!जिंदगी मार्च २०१७
जरा ठहरें, और विचार करें। सांप्रदायिक
सौहार्द की इस ऊंचाई से हम इस खड्डे में क्यों
और कैसे गिर गए? औरों के दोष ढूँढने के बदले पहले हम खुद में
ढूँढे।
किसी
के हम काम न आए, न कोई अपने काम आया,
ताज्जुब
है कि तो भी, जुमर-ए-इनसा१ में नाम आया।
१ मनुष्य की श्रेणी में
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