एक सरकारी
अस्पताल की दास्तान
नैनीताल के
मल्लीताल से बारा पत्थर की तरफ आगे बढ़ें। बारा पत्थर पर बाईं तरफ एक तीखे घुमाव पर
ऊपर चढ़ना शुरू करें। थोड़ी सी चड़ाई के बाद फिर एक तीखा घुमाव दाहिनी तरफ, फिर सीधे चड़ते चलें। मल्लीताल से
लगभग ३ किलोमीटर आगे और नैनीताल से और ११००
फीट की ऊंचाई पर है श्री अरविंद आश्रम-दिल्ली शाखा का “वन निवास”। एक रमणीक,
शांत, सात्विक स्थान। जून महीने में कई वर्षों से हम करीब ४०
व्यक्तियों का दल, पूरे भारत से यहाँ पहुंचता है। हमारे इस
दल के अलावा और लोग भी आते हैं। इस वर्ष मेरी पत्नी की तबीयत वहाँ कुछ नासाज हो
गई। गले में दर्द तथा हल्का बुखार। कुछ दिन इंतजार किया कि शायद लाभ हो जाए लेकिन
नहीं होना था सो नहीं हुआ। दल की एक और
महिला को सर्दी, खांसी और जुखाम परेशान कर रही थी। अत: आश्रम
के निवासियों से पूछ ताछ कर मल्लीताल के बी.डी.पांडे अस्पताल में डाक्टर को
दिखाने पहुंचे। टॅक्सी वाले ने जिस अस्पताल के सामने हमें छोड़ा
उसका नाम था ‘राजकीय बी.डी.पांडे जिला चिकित्सालय’। समझ आ गया कि यह तो कोई सरकारी
अस्पताल है।
कुछ देर
ऊहा-पोह में खड़े रहे कि अंदर जाएं या नहीं। लेकिन दरवाजे पर किसी भी प्रकाए की
सरकारी छाप नहीं थी। न कोई गंदगी, न पान का पीक, न शोर गुल, न लोगों का बेवजह जमावड़ा। न चाय वालों
की टर्र टर्र, न लोगों की टें टें। अत: आगे बढ़ने लगे। जैसे
जैसे आगे बढ़े हम जल्दी ही सहज हो गए। अस्पताल के परिसर में कदम रखा। साफ सुथरा। लेकिन कहीं कोई दिखा नहीं जिससे पूछूं कि कहाँ
और किधर जाना है। एक कमरा दिखा, पड़दा लगा था। अंदर झाँका। जैसे मैंने बाहर से अंदर देखा, वैसे ही अंदर वालों ने हमें बाहर देखा। फुर्ती से एक सज्जन बाहर आए और
हमसे जानकरी लेने के बाद हमें कमरे के अंदर ले गए, “आइए, अंदर आइए। डाक्टर हैं”। पहले मैं
अपनी पत्नी के साथ प्रविष्ट हुआ। डॉक्टर तुरंत उन्हे देखने लगे और उनके साथ बैठे
सज्जन ने मुझसे पूछ कर एक खाते में प्रविष्टियाँ कर खानापूर्ति समाप्त की। तब तक
डाक्टर का काम समाप्त हो चुका था। उसने पूर्जा तैयार किया तथा हिदायत दी कि अगर
इससे लाभ न हो तो अगले दिन प्रथमार्द्ध में आकर ‘ई एन टी’ विशेषज्ञ को दिखा लें।
जब यह
कार्यवाही चल रही थी तब तक कुछ लोग एक आहत
व्यक्ति को लिए अंदर घुसे। गिरने के कारण सर पर चोट लगी थी तथा रक्त बह रहा था।
घाव पोंछने पर दिखा कि घाव गहरा है तथा टांके लगाने पड़ेंगे। डाक्टर के कहने पर तुरंत
कुछ व्यक्ति उस रोगी की देखभाल में व्यस्त हो गए तथा टांका लगाने की व्यवस्था करने लगे। इस बीच डाक्टर ने मेरे साथ आई महिला को भी देखा
लिया तथा उसका भी पूर्जा बना दिया। हमें बताया गया कि सरकारी अस्पताल होने के कारण
पूरी व्यवस्था नि:शुक्ल है, हमें कुछ भी देना नहीं है। न ही कोई बक्शीष लेने को आतुर दिखा। कुल दस
मिनट के अंदर हम दोनों डाक्टर को दिखा कर
बाहर निकल चुके थे। यही नहीं इसी मध्य दूसरे आहत व्यक्ति के माथे पर टांके लगाने की
व्यवस्था भी तैयार हो चुकी थी।
हमने सोचा
कि इधर-उधर न घूम कर अस्पताल की ही दुकान से दवा ले ली जाय। हम दो मरीजों के पूर्जे
के अनुसार कुल ३ दिन की ८ प्रकार की गोलियाँ थी, जिसमें अंटीबाओटिक्
(antibiotic) भी थीं। वहाँ से हमें जेनेरिक दवाएं मिली। बिल
मिला। हम भौंचक्के रह गए। दो मरीजों के तीन दिन की दवा का मूल्य १०३ रुपए मात्र।
किसी भी निजी अस्पताल में यह काम इतने कम समय और मूल्य पर होना असंभव है। इसी भारत
में ऐसा भी होता है! यह सोचते हुए एक सुखद आश्चर्य और सुकून को
दिल में सँजोये हम चारों बाहर आ गए। दो दिनों में दोनों महिलाएं पूर्ण स्वस्स्थ हो
गईं। हमारे अनुभव के सत्यापन के लिए अन्य एक सज्जन दो दिनों के बाद वहाँ पहुंचे। वे
भी हमारी ही तरह के अनुभव से अभिभूत हो कर लौटे।
मैं जो
नहीं समझ सका वह यह कि यह चमत्कार किस का है? इस अस्पताल का, नैनीताल का या उत्तराखंड का, यहाँ के निवासियों का या
यहाँ के प्रशासन का? क्या पूरे नैनीताल या उत्तराखंड में ऐसी
ही व्यवस्था तथा लोग हैं? मेरी समझ में तो यह प्रशासन एवं
जनता की मिली भगत है। दोनों समान रूप से दोषी हैं। क्यों आप सहमत हैं ना? ऐसे लोग और व्यवस्था हो तो आप ही बताइये धंधे (health is big business) का क्या होगा?
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