सामाजिक अस्पताल
की दास्तान
मैं
भारत के चार महानगरों मे से एक, कोलकाता में रहता
हूँ। यहाँ समाज सेवी संस्थाओं के अस्पतालों की कमी नहीं है। कइयों मे कई बार काम
भी पड़ा। अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। सफाई एवं अनुशासन के अलावा रख रखाव, व्यवहार, रोगी की समुचित देख भाल में भी कमी नजर
आती है। इसके लिए डाक्टर तथा प्रशासन का बेरुखा व्यवहार तो दोषी है ही लेकिन इसके
साथ साथ जनता भी कम दोषी नहीं है। शांत वातावरण बनाए रखना तथा गंदगी न फैलाना जनता
के हाथ में है। सफाई तभी रखी जा सकती हैं जब गंदगी न की जाए। शांति भी शोर न मचाने से ही रहती है।
डॉक्टरों में अपनापन तथा प्रशासन में समर्पण की कमी है। जनता में धैर्य का अभाव
तथा हिंसा की प्रवृत्ति ज्यादा है।
मेरे
निवास के नजदीक ही एक ऐसी ही सामाजिक संस्था द्वारा संचालित वृहद अस्पताल है।
विशाल एवं स्वच्छ भी। रोगियों की अधिकता के कारण भीड़ तथा शोर का होना स्वाभाविक
है। कैंटीन तथा चाय-नाश्ता वालों की गंदगी एवं शोर अस्पताल के बाहर तक ही सीमित है।
अस्पताल की अपनी दवा की दुकान भी है जहां हर समय भीड़ लगी रहती है। व्यवस्था अच्छी
है। रोगी अधिकतर अनपढ़ या गरीब हैं। अत: लिखे पूरजे के अनुसार दवा निकालने के बाद
पहले एक व्यक्ति रोगी को दवा कैसे लेनी है, यह समझता है
तथा दवा का मूल्य बताता है। इसके बाद रोगी की
रजामन्दी पर बिल बनता है तथा भुगतान लिया जाता है।
मेरे
६ वर्ष के नाती ने खेलते हुए अपने हाथ के अंगूठे में स्टैप्लर की पिन घुसा ली। पिन
भी इस कदर घुसी कि उसे खींच कर निकालने का उपाय नहीं सूझ पड़ा। पास ही दवा की दुकान
पर ले गया कि शायद उनके पास ऐसा कोई मेडिकल औज़ार हो जिससे पकड़ कर उसे बाहर निकाल
दें। देखने के बाद उसने बगल के उसी सामाजिक अस्पताल में ले जाने की सलाह दी।
नैनीताल के सरकारी अस्पताल के ताजा सुखद अनुभव के कारण मैं बच्चे को लेकर वहीं
पहुँच गया। साफ सुथरे तथा लोगों से भरे प्रांगण को पार कर एमेरजेंसी में पहुंचा।
डाक्टर ने देखा लेकिन कुछ भी करने से इंकार कर दिया। मैं ठगा सा खड़ा रह गया। उसने
सुझाव दिया कि मैं उसका एक्स -रे करवा कर ओ. टी. में ले जाऊँ। वहाँ भी बेहोश कर ही निकालने का प्रयत्न किया जा सकता है। उसके
इस भारी भरकम सुझाव पर मन ही मन उसे कोसता बाहर निकला। कमरे के दरवाजे पर ही खड़े
व्यक्ति ने, शायद दरवान या सहायता कर्मचारी था, जिसने मुझे उस
डाक्टर तक पहुंचाया था, मुझे रोका,
“मैं कोशिश कर के देखूँ”। मेरे चेहरे के प्रश्न चिन्ह को पढ़ते हुए आगे बोला, “खींच कर निकाल दूँगा। अगर पिन अंदर से मुड़ी नहीं होगी तो आराम से निकल
जाएगी। लेकिन अगर मुड़ी होगी तो दिक्कत हो सकती है। मेरा ख्याल था कि पिन मुड़ी नहीं
है। मैं तुरंत तैयार हो गया। उसने स्पिरिट
से बच्चे के अंगूठे को साफ किया तथा भोथरी कैंची से पिन को खींच कर बाहर निकाल दिया।
एक दवा लगा कर पट्टी कर दी तथा टिटेनस की सूई दिलवाने की सलाह दी। मैंने कृतज्ञता
वश उसे कुछ रुपए दिये और मिनटों में हँसते खेलते बच्चे को लेकर वापस आ गया।
लेकिन
इधर मेरे दिमाग में अभी तक कई प्रश्न उथल पुथल मचा रहे हैं, जिनका उत्तर मुझे नहीं मिल रहा है। डाकटर ने इतनी लम्बी-चौड़ी सलाह क्यों
दी? ऐसे सामाजिक अस्पताल में लाया गया रोगी क्या इतना खर्च
वहन कर सकता है? उसने किसी भी प्रकार की सहायता करने से साफ
इंकार क्यों किया? क्या इतनी सावधानी बरतना लजामी था? या वह सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारी को टाल रहा था? ऐसे
लोग हों तो स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का धंधा तो बड़े ज़ोर शोर से चलेगा।
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