शुक्रवार, 20 मार्च 2020

शरणम - नरेंद्र कोहली


शरणम
लेखक            : नरेंद्र कोहली
प्रकाशक         : वाणी प्रकशन
संस्करण         : 2015
मूल्य             : 395 रुपए
पृष्ट               : 223
रामायण और महाभारत, हमारे दो प्राचीन ग्रंथ हैं। इन पर और इनमें वर्णित पात्रों तथा घटनाओं पर अनगिनत उपन्यास और कहानियाँ लिखी गई हैं तथा और निरंतर नई रचनाओं का लेखन हो  रहा है। और तो और, नरेंद्र कोहली द्वारा भी इन दो ग्रन्थों और इनकी अनेक घटनाओं पर कई रचनाएँ हैं।

महाभारत में अर्जुन-कृष्ण संवाद एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है जहां श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के मैदान में उपदेश दिया है जिसे हम गीता के नाम से जानते हैं। इस गीता पर असंख्य टीकाएँ और ग्रंथ की रचनाएँ हुई हैं। बेशुमार प्रवचनों  और वक्तृताओं का भी लगातार आयोजन होता रहता है। ये आयोजन धार्मिक और बौद्धिक दोनों स्तर पर होती हैं।  लेकिन इस घटना पर कोई उपन्यास? मेरी जानकारी में तो नहीं है। शायद गीता पर आधारित यह अपने आप में अपना एक अनोखा प्रयोग और रचना है। गीता के दुरूह विषय पर उपन्यास की रचना करना एक दुष्कर कार्य  था। मुझे कहना पड़ेगा कि लेखक ने इसका निर्वाह पूरे उत्तरदायित्व के साथ किया है।

अपने प्रक्थन में लेखक लिखता है कि गीता में कोई घटना नहीं है सिवाय विराट रूप दर्शन के। इसके अलावा जो है वे हैं केवल प्रश्नोत्तर, सिद्धान्त, चिंतन और दर्शन। लेकिन उपन्यासकार ने इसे एक उपन्यास के रूप में पिरो दिया है। गीता में पात्र केवल श्री कृष्ण, अर्जुन, संजय और धृतराष्ट्र हैं। लेकिन उपन्यास में इनके अलावा और भी अनेक पत्रों का समावेश हुआ है। इन सब के बावजूद गीता के मूल रूप में परिवर्तन नहीं किया है। पाठक इसे उपन्यास समझ कर ही पढ़ें, यह न तो गीता की  व्याख्या है और न ही उस पर लिखी गई टीका।

धर्म के नाश से कुल का नाश होता है। धर्म बचा रहा तो कुल फिर से पनप सकता है लेकिन धर्म का नाश हुआ तो अधर्म उस रिक्त स्थान को भरकर कुल को डस लेता है। वैसे ही अधर्म का नाश कर दिया जाय तो धर्म खुद अपने को स्थापित कर लेता है। रोकना है तो युद्ध को नहीं अधर्म को रोको। दोष अधर्म से न लड़ने वालों का है। संन्यासी को यज्ञ, तप और दान का त्याग नहीं करना चाहिए। सात्विक, राजसी और तामसिक त्याग के अलावा तीन और प्रकार के त्याग होते है – कर्म फल का त्याग, संग-त्याग और कर्त्तृत्व भाव का त्याग।

गीता जैसे दार्शनिक ग्रंथ पर लिखे उपन्यास में दर्शन का समावेश तो विषयानुकूल है लेकिन लेखक ने इसका प्रवाह बनाए रखा है और यह ध्यान रखा है कि पाठक उपन्यास का पाठक है दार्शनिक ग्रंथ का नहीं।

आपकी गीता में रुचि हो या नहीं, पुस्तक पठनीय है।

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