(आज अचानक ज्ञानोदय का एक पुराना अंक हाथ लगा। उसमें ‘मुकेश कुमार’ का यह लेख पढ़ा। उसके कुछ अंश प्रस्तुत है आपके देखने और समझने के लिए।)
मीडिया की अति हो गई है। परम ब्रह्म की
तरह आकाश-पृथ्वी हर तरफ वही दिखलाई देता है। कोई उसे देखने से बच नहीं सकता। अगर
आंखें बन्द कर लेगा तब भी उसे मीडिया दिखाई देगा, क्योंकि पूरा वातावरण मीडियामय हो चुका
है।
लेकिन मीडिया की अति ही नहीं हुई है, वह अतिवादी भी हो गया है। दिन-रात इसी जुगत में लगा रहता है कि कैसे किस खबर में अति-रिक्त जोड़ दे। अति-रिक्त का मतलब रिक्तता की अति। वह खबरों को खोखला बना देता है। उसके जरूरी तत्त्वों को निकालकर उसमें हवा भर देता है। और फिर खबर गुब्बारे की तरह उड़ने लगती है।
अतियों की अति से मीडिया भ्रांतियों का ऐसा ताना-बाना बुनता चला जाता है कि सब भ्रमित हो जाते हैं। उन्हें हवा में उड़ते रंग-बिरंगे गुब्बारे दिखलाई देने लगते हैं, वह उन्हीं में खो जाता है। उन्हीं को वह सत्य मान लेता है भले ही उसमें कोई तत्त्व ही न बचा हो।
अगर मान लें कि ऐसा नहीं हुआ तो अत्यधिक सूचनाओं के इतने अधिक गुब्बारे उसकी आँखों के सामने तैरने लगते हैं कि सत्य को ढूँढना असम्भव हो जाता है। ऐसे में सत्य की तलाश वैसे ही शुरू हो जाती है जैसे भूसे के ढेर में से सुई तलाशना।
मिडियायुगीन सत्य तो यह है कि सत्य की खोज समाचारों के जंगल में जाकर गुम हो जाती है। समाचार सत्य भी होते हैं और असत्य भी, मगर यह पहचानना मुश्किल हो जाता है कि वास्तव में कौन सा क्या है। कई बार जिसे सत्य समझा जाता है वह असत्य निकलता है और जिसे हम असत्य मानकर दरकिनार कर देते हैं वह हमें सातवें आश्चर्य की तरह चौंकाता हुआ बताता है कि जनाब आप मुगालते में थे।
मीडिया सत्य और असत्य को ताश की पत्ती की तरह फेंटता रहता है और फिर बीच में से एक पत्ता फेंककर बोलता है – पहचान? ज़ाहीर है कि खेल दिलचस्प है और जब जेब से दमड़ी न जानी हो तो और भी रोमांचक हो जाता है। लिहाजा, हर कोई खेलने लगता है।
अब क्या है कि हिदुस्तान की आधी से अधिक आबादी के पास कोई काम-धाम तो है नहीं। निठल्ली बैठी रहती है, इसलिए वह भी मीडिया का यह खेल खेलती रहती है। वैसे उसे सच से ज्यादा लेना-देना ही नहीं है। वह तो कुछ ऐसा चाहती है जिसे जुगाली करती रहे और जब बेस्वाद हो जाए तो पिच्च से थूककर दूसरा बीड़ा दांतों के नीचे दबा ले। .......
.......... दास कबीर होते तो कहते मीडिया महाठगानी हम जानी। उनके पास ऐसी आँख थी कि वे मीडिया की माया को अच्छे से देख-समझ लेते। ये जरूर है कि उसे महठगनी कहने से प्रेस के स्वतंत्रतावादी गदा-तीर-कमान लेकर टूट पड़ते। मगर वे तब भी कहते, चुप नहीं रहते। आखिर जब वे उस दौर के बाम्हन-मुल्लों से नहीं डरे तो भले आज के कटमुल्लों से क्या डरते! हाँ, ये बात जरूर है कि इस बार वे बच नहीं पाते।
......... ठग्गू के लड्डू खरीदना है या नहीं, इस पर विचार किया जाए। इस फेंक और फेंकुओं के जमाने में सारी बुद्धि-विवेक इसी बात पर लगती है कि लड्डू खाना है या फेंकना है। ...........
(तब से अब गुब्बारों की संख्या भी बढ़ गई है। यही नहीं रंग व आकार भी अनेक हो गए हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि ठगुओं ने अपना-अपना एक नया आसमान भी रच डाला है। पहले तो ‘मीडिया’ अकेले थी अब तो उसके साथ ‘सोशल’ और जुड़ गया है। सच कहता हूँ, मैंने तो इन लड्डुओं को खरीदना बन्द कर दिया है और जब से बन्द किया है जीवन में शांति-और सुकून बढ़ गया है।)
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जाने माने पत्रकार गुलाब कोठारी
लिखते हैं-
“हमारे देश में प्रचार-प्रसार के लिये कथाएँ, लोक-नाटिकाएँ, गीत आदि का प्रचालन था। ये सारे किसी मन्दिर अथवा छोटे-छोटे ग्रामीण समूहों
में प्रदर्शन के रूप में चलते थे। दूसरा माध्यम धार्मिक संत होते थे। इसी तरह हमारे
ग्रंथ, संस्कृति और परम्पराएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ी हैं। शब्द
हृदय में अंकित होते थे, जिनसे संस्कार और व्यक्तित्व का निर्माण
होता था। आज सम्प्रेषण का यह धरातल पूर्णत: छूट गया। नई विधाओं के आने से पूरानापन
सिमट गया। अत: सम्प्रेषण के नाम पर हम भाषा में आकार ही अटक गए। यह भूल गए कि शब्द
स्वयं में विशेष अर्थ नहीं रखते। ये तो भावों
के वाहक हैं। इसलिए कहा जाता है की ‘क्या’ कहा गया है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है ‘क्यों’ कहा गया।
समाचारों में केवल सूचना एवं जानकारी होती है। प्रज्ञा नहीं होती। कोई व्यक्ति या पाठक पुराने अखबारों को किताबों की तरह दो-तीन बार नहीं पढ़ता। भावपूर्ण लेखन पत्रकारिता का अंग ही नहीं है। वहाँ तो केवल शिल्प है, शब्दों का शिल्प। ज्ञान के अभाव में, स्पर्धा के वातावरण में, वह भी अपनी विश्वनीयता खो रहा है। पत्रकार शब्दों में उलझकर रह जाते हैं। किसी भी नेता के वक्तव्य को लेकर शब्दों का जाल खड़ा कर देते हैं। किसी अध्यात्म-गुरु के प्रवचन से कुछ शब्द पकड़कर आक्रोश पैदा कर देते हैं।
सब मिलाकर एक बात सिद्ध हुई कि हमें नयेपन से भी जुड़ना है, आगे भी बढ़ते रहना है। जो हमारा अंश देश-काल के साथ नहीं बदलता, उससे संबंधित ज्ञान को भी बनाए रखना है। आज हम देख सकते हैं कि जो भी संत हमें पुरातन ज्ञान को ज्यों को त्यों परोसते हैं, वहाँ नई पीढ़ी नहीं जाती। जो भी व्यक्ति इस ज्ञान को समयानुकूल भाषा देता है, उसका सब अनुसरण करते हैं। उनका सम्मान संतों से कम नहीं होता। हमें ऐसे संतों की आवश्यकता है। हर काल को आवश्यकता होगी और ये ही शांति की मशाल लेकर नेतृत्व देने में सक्षम हो सकेंगे।
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