शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

ये जीवन है ......

यह कोई कहानी नहीं, जीवन है। पति-पत्नी के चार सन्तानें थी। तीन पुत्र और एक पुत्री। पति ने बड़ी मेहनत की, चारों संतानों को किसी बात की कोई कमी नहीं होने दी। हैसियत से बढ़ कर चारों बच्चों को विदेशों में भेज उच्च शिक्षा दिलवाई। चारों को विश्व के चार अलग अलग देशों में, अमेरिका-इंग्लैंड-जर्मनी-फ्रांस भेजा। तीनों बेटों ने उच्च शिक्षा पाई, वहीं विवाह किया और वहीं बस गए यानि सेटेल हो गए। बेटी ने विवाह तो स्वदेश आकर किया लेकिन विवाह पश्चात वह भी विदेश ही चली गई और वहीं की होकर रह गई।

इधर अपने देश में पति-पत्नी सुख चैन से थे और अपनी सूझ-बूझ की चर्चा करते और संतानों पर गर्व।  पति के लिए धीरे-धीरे कारोबार का तनाव संभालना भारी पड़ने लगा। बच्चे वापस नहीं आना चाहते थे। पिता को व्यवसाय के तनाव झेलते देख, बच्चों ने व्यवसाय को बंद या कम करने की सलाह दी। लेकिन वैश्विक बाजार इसकी इजाजत नहीं देता। बंद करना ही एकमात्र विकल्प है। बच्चों की सलाह और व्यापार के तनाव के मद्देनजर पिता ने धीरे धीरे व्यवसाय समेट लिया। एक-एक कर वे सब बच्चों के पास रह आए। लेकिन कहीं टिक न सके। बच्चे चाहते थे कि पिता घर पर शांति से बैठे रहें और घर के काम संभाले। जिंदगी भर कर्मठ रहे पिता के लिए यह संभव नहीं था। घर के छुट-पुट काम करने में उन्हें असुविधा नहीं थी। लेकिन उसके बाद दिन भर चुप-चाप बैठे रहना, उद्देश्यहीन घूमना, टीवी देखना उन्हें रास नहीं आया। वे वापस लौट आये, अपने कर्म क्षेत्र में। लेकिन उनका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा। अकेलापन, उन्हें बार-बार अवसाद की तरफ धकेल देता था।

इसी बीच, एक रात, अचानक पत्नी को दिल का दौरा पड़ा और उसे तुरंत अस्पताल में भरती करना पड़ा। बाप ने एक-एक कर तीनों बेटों को फोन किया और तुरंत आने का अनुरोध किया। लेकिन तीनों ने मना कर दिया। एक को छुट्टी नहीं मिली, दूसरा कुछ समय पहले ही आ कर गया था, तीसरे की पत्नी गर्भवती थी। सभी के कारण अलग-अलग थे लेकिन बात एक ही थी, “प्लीज, किसी तरह आप संभाल लीजिये या बड़े-मँझले-छोटे को बुलवा लीजिये, मैं नहीं आ पाऊँगा”।  टूटे दिल से उसने बेटी को भी खबर की। खबर सुनते ही, पिता के मना करने पर भी बेटी-जवाँई दोनो तुरंत आ गये और जब तक पत्नी स्वास्थ्य लाभ कर वापस घर न आई वहीं साथ ही रहे। उन्हों ने सोचा,  बेटियाँ ही काम आती हैं? बेटियाँ ही प्यारी होती हैं? वाह रे बेटियाँ? लेकिन बात अभी समाप्त नहीं हुई है।

कुछ समय के अंतराल के बाद इसी घटना का पुनरावर्तन हुआ, पात्रों में थोड़े से उलट-फेर के साथ। इस बार बेटी के ससुराल से उसकी सास की तबीयत खराब होने की खबर गई, और एक बार आने की गुजारिश की गई। बेटे ने जाने का मन बनाया, और आने की बात भी कही। लेकिन पत्नी ने उसे तैयार कर लिया  व्यस्तता के कारण नहीं आ सकेंगे कहने के लिए और माता-पिता को खुद परिस्थिति संभालने के सलाह दे दी गई।  अपनी ही जिस बेटी पर साल भर पहले गर्व हुआ था, उसी बेटी का ही यह दूसरा रूप भी है।

(बेटों के इस व्यवहार के लिए कौन जिम्मेदार है? अगर हम अपनी संतान को विदेशों में भेज रहे हैं तो उसके पहले हमें खुद अपनी मानसिकता उस प्रदेश के जैसी बनानी चाहिए। इसमें बच्चों का कोई दोष नहीं है। हमने बच्चों को तो बदल दिया लेकिन खुद को बदल नहीं सके। यह भी नहीं समझ सके कि देश और विदेश की परिस्थितियों, मान्यताओं, संसाधनों में फर्क है।  हम यह मान कर चलते हैं कि भविष्य विदेशों में ही बनता है अपने देश में नहीं! यही नहीं हमने अपने माता, पिता, चाचा, ताउ, भुआ, भाई, बहन के बजाय सास, ससुर, साले, साली, मामा, मामी, दोस्तों को ज्यादा महत्व दिया। बच्चों ने जो देखा वही सीखा। फल मीठा होगा या कडुआ, वह तो बीज पर निर्भर करता है। जैसा बोया वैसा काटा। विचार बीज बोते समय करना है, फसल काटने के समय नहीं।)

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