अभी ऋषिकेश
प्रवास के दौरान मेरे कुछ अनुभव।
ठंड के
बावजूद हम प्राय: प्रात: 6.30 बजे गंगा किनारे सैर के लिए निकल जाते थे। उस दिन भी
सैर से जब वापस आ रहे थे तो देखा साइकिल पर एक घर में बनी पावरोटी-बिस्कुट वाला
सड़क किनारे चाय की दुकान पर बिस्कुट दे भी रहा था और गरम चाय भी पी रहा था। पत्नी
ने बिस्कुट का एक पैकेट उससे खरीद लिया। आगे बढ़े तो मैंने कहा कि सुबह की चाय के
साथ नमकीन पापड़ी वाली बिस्कुट अच्छी लगती है। लेकिन तब तक हम भी आगे बढ़ चुके थे और
वह भी अपनी साइकिल लेकर जा चुका था। घूमते हुए जब हम अपने आश्रम के दरवाजे पर पहुंचे
तो पाया कि वह वहीं अपनी साइकिल लेकर खड़ा है। पत्नी ने देखा और उससे बिस्कुट बदली
करने का अनुरोध किया। बिना किसी शिकन और प्रश्न के उसने तुरंत उसे बदली ही
नहीं किया, बल्कि बिना मांगे ही कुछ पैसे भी
वापस किए। हम शहर में रहने वालों के लिए यह
एक रोमांचित अनुभव था। शहर में शायद सामान फिर भी बदली कर दें, पैसे वापस तो हॉकर हो या दुकान वाला वापस करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
हमारा
ऋषिकेश से देवप्रयाग जाने का कार्यक्रम बना। टैक्सी वाले से बात हुई थी लेकिन तय
नहीं किया था। जाने के ठीक एक दिन पहले अचानक पेट गड़बड़ा गया और पतले दस्त लगने
लगे। दवा प्रारम्भ की और जल्द ही लगा अब ठीक है। अत: 11 बजे टैक्सी वाले को फोन कर
अगले दिन सुबह 6.30 आने का कह दिया। लेकिन अचानक दोपहर बाद परिस्थिति खराब होने
लगी। थोड़ा इंतजार किया शायद ठीक हो जाय। लेकिन उल्टा ही हो रहा था। आखिर शाम तक
कार्यक्रम रद्द करने का ही मन बनाया। पत्नी को इशारा किया कि टैक्सी वाले को मना
कर दे। पत्नी हिचकिचा रही थी कि वह चिल्ला-मिल्ली करेगा, और नुकसान की बात करेगा। लेकिन कोई उपाय नहीं था। उसने फोन किया और उसे
स्थिति से अवगत कराया। उसे बताया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं और पतले दस्त लग रहे हैं, इसलिए हम कार्यक्रम रद्द करना चाहते हैं। टैक्सी वाले ने तुरंत कहा ऐसी
अवस्था में तो दिन भर के लिए जाना ठीक नहीं। जाएंगे तो बाहर खाना पड़ेगा, तबीयत और खराब हो सकती है। आगे उसने पूछा कि डॉक्टर से बात की है? दवा वगैरह दी है? कोई दवा लानी है? ध्यान रखिएगा? पत्नी कुछ भी बोल सकने की अवस्था
में नहीं थी, उसकी आँखों में आँसू छलक आए।
पत्नी को
एक दुकान में एक पोशाक पसंद आई। लेने का मन तो बना लेकिन पहन कर देखने की सुविधा न
होने के कारण पेशो-पेश में थी कि क्या किया जाए। दुकानदार ने मुसीबत आसान कर दी।
कहा कि आप ले जाइए, आश्रम में पहन कर देख लीजिएगा और अगर नहीं जँचे तो वापस कर दीजिएगा, पैसे वापस मिल जाएंगे। पत्नी ने पूछा, “वापस करने
पर क्या आप पूरे पैसे वापस दे दीजिएगा?” दुकानदार ने विश्वास
दिलाया कि हाँ पूरे पैसे वापस मिल जाएंगे, बदली करने नहीं
कहा जाएगा। उसने अपना वादा निभाया।
शहर में
वादा-खिलाफी अपना हक समझा जाता है। शहरों में हमने बहुत पैसे खोये हैं। अग्रिम
दिया पैसा तक, माल न आने पर भी, लौटते नहीं बल्कि कुछ और खरीदने
के लिए या बार बार खबर लेने के लिए कहते हैं। शिक्षा ने हमें पतन के गर्त में धकेल
दिया है। शहर की शिक्षा ने दुर्भाग्यवश हमें धूर्त और चालक बना दिया है। इससे तो गाँव का अ-शिक्षित गँवार हमसे बेहतर है।
1909 में गांधी ने
हिन्द स्वराज की रचना की थी। पुस्तक में गांधी ने शिक्षा विशेष कर ग्रामीण लोगों
की साक्षरता अभियान की निंदा की थी। उन का मत था कि अमूमन ग्रामीण किसी भी शहरी की
तुलना में अपनी जिम्मेदारियाँ ज्यादा समझता है और उनका निर्वाह भी करता है। शिक्षा
उन्हें शिक्षित नहीं चालाक बनाती है। ऐसी शिक्षा का क्या उपयोग?
इससे पहले
लगभग 1830 में कैप्टन स्लीमन ने भी इसीसे मिलती जुलती बात कही थी। कैप्टन को भारत
का दौरा करना पड़ा था और अपने कार्य हेतु वह भारत के बड़े पैमाने पर आम आदमियों के
संपर्क में था। एक प्रश्न के उत्तर में उसने कहा था, ‘एक ग्रामीण भारतीय सच्चा और ईमानदार है। वह बिना शपथ लिए भी सत्य ही कहेगा भले ही उसे नुकसान उठाना पड़े। लेकिन एक
शहरी, अगर उसे नुकसान हो रहा हो तो,
शपथ लेने पर भी सत्य नहीं कहेगा।
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