अभी कुछ समय पहले की बात है, मैं अपने छोटे भाई के घर पर, जो दूसरे शहर में रहता है, गया हुआ था। कमरे में मैं, पिताजी, माताजी, भाई और उसकी पत्नी बैठे थे। माता-पिता अधिकतर छोटे भाई के साथ रहते थे। बहू कुछ उखड़ी-उखड़ी नजर आ रही थी। बातों बातों में मुझसे मुखातिब हुई और अपनी नाराजगी बताने लगी। माँ और भाई उसे टोकने लगे; लेकिन उसके हाव-भाव से लगा कि वह रुकने वाली नहीं। मैंने उन्हें रोका और बहू को अपनी बात कहने की अनुमति दे दी। भाई, माता-पिता मेरी इज्जत करते हैं। अत: उन्हें अच्छा तो नहीं लगा लेकिन कुछ बोले नहीं। बहू ने अपनी व्यथा बयान की। उसकी व्यथा थी कि वहाँ सब उसमें और बेटियों में ‘दो भाँत’ करते हैं, यह उसे अच्छा नहीं लगता। प्रमुखत: - पहनावे, रीति-रिवाजों को मानने और घर का काम करने में। हाँ, वह सही कह रही थी। फिर मैंने पूछा ‘क्या उसके पीहर और ससुराल में सब रीति-रिवाज शत-प्रतिशत एक जैसे माने और मनाए जाते हैं? क्या दोनों जगहों के विचार पूरी तरह आपस में मिलते हैं? वह खुद अब अपने पीहर और ससुराल में से किनके विचारों और रीति रिवाजों को मनाती है? यह घर उसका है या उसकी ननद का? इसी प्रकार उसके भाई का घर उसकी भाभी का है या उसका?’ उसने बताया वह उन्हीं रीति रिवाजों और परम्पराओं को निभाती और भली भांति जानती है जिसकी मान्यता ससुराल में है। यह घर ननदों का नहीं उसका है और इसी प्रकार भाई का घर भाभी का है उसका नहीं। मैंने बताया कि माँ-बाप का यह फर्ज बनता है कि वह अपनी बेटी को इस प्रकार तैयार करे कि विवाह के बाद बदले हुए माहौल को समझने और अपनाने में उसे तकलीफ न हो। मानवीय-आध्यात्मिक संस्कार गहरे हों लेकिन पारिवारिक रीति रिवाजों की जानकारी हो ताकि नए परिवेश में खुद को ढालने में उसे तकलीफ न हो। और वहीं बहू को इस प्रकार सिखाये की परिवार के संस्कार, रीति रिवाज, परंपरा को अच्छी तरह से समझ ले ताकि वह उनका निर्वाह भी कर सके और अगली पीढ़ी को उसके अनुरूप तैयार कर सके। इसमें कहीं कोई नियम-कानून, संविधान, महिला अधिकार-स्वतन्त्रता आड़े नहीं आती बल्कि भावनाओं और परिवार का ही महत्त्व है। किसी को बीच में न लाकर अपने ‘घर’ का ही ध्यान रखा जाता है। बहू का यह भी फर्ज है कि इस सीखने और सिखाने में नए–पुराने का हिसाब न रख, सही और गलत का हिसाब रखे। सड़े-गले को काट-छाँट कर अलग करना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है उसमें नवीन को जोड़ते जाना या उसका नवीनीकरण करना भी। जिससे परिवार हर समय नवीन लगे, उन्नति करे और सुगंध फैलाये। पूरी प्रक्रिया थोपने की नहीं सीखने-सिखाने की है और इसे उसी अंदाज में लेना चाहिए। यह नहीं समझना चाहिए की यह प्रक्रिया केवल महिलाओं के साथ होती है। पुरुषों के साथ भी होती है। फर्क है, केवल ‘घर’ बदलने का। इस कारण जहां पुरुषों को सीखने-सिखाने का कार्य बचपन से चलता है, महिलाओं में विवाह के बाद एक बड़ा बदलाव आ जाता है। मुझे संतोष हुआ जब मैंने देखा कि हमारे वार्तालाप के बाद वहाँ उपस्थित सब लोगों के चेहरों से तनाव हट चुका था और सब सहज हो चुके थे। सब समझ गए थे कि महत्त्व भावनाओं का है, अधिकार-नियम-कानून का नहीं।
श्री चैतन्यमहाप्रभु जंगलों में घूमने जाया करते थे। एक दिन उन्होंने वहाँ एक ब्राह्मण को देखा जो आसन लगाए बड़े ही प्रेम से गदगद कण्ठ से गीता का पाठ कर रहा था। वह श्लोकों का अशुद्ध उच्चारण कर रहा था लेकिन पाठ करते समय वह ऐसा तल्लीन था कि उसे बाह्य संसार का पता ही नहीं था। महाप्रभु देर तक उसका पाठ सुनते रहे। जब ब्राह्मण पाठ करके उठा तब महाप्रभु ने उससे पूछा, ‘अरे भाई, तुम्हें उस पाठ में ऐसा क्या आनंद मिलता है जिसके कारण तुम्हारी ऐसी अद्भुत अवस्था हो जाती है। इतने ऊंचे प्रेम भाव तो अच्छे-अच्छे भक्तों के शरीर में प्रकट नहीं होते, तुम अपनी प्र्सन्नता का ठीक-ठीक कारण बताओ’।
ब्राह्मण ने कहा, ‘भगवान, मैं एक बुद्धिहीन, ब्राह्मण-वंश में उत्पन्न हुआ निरक्षर ब्राह्मण हूँ। मुझे शुद्ध-अशुद्ध कुछ भी बोध नहीं। मेरे गुरुदेव ने मुझे आदेश दिया था कि तू गीता का नित्य पाठ किया कर। भगवन! मैं गीता का अर्थ भी नहीं जानता। मैं गीता का पाठ करते समय इसी बात का ध्यान करता हूँ कि सफ़ेद रंग के चार घोड़ों से जुता हुआ एक स्वर्ण जड़ित सुंदर रथ खड़ा है। उस रथ की विशाल ध्वजा पर हनुमान विराजमान हैं। खुले हुए रथ में अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित अर्जुन शोक भाव से धनुष को नीचे रखे बैठा है। भगवान श्री कृष्ण हाथों में घोड़ों की रास लिए सारथी के स्थान पर बैठे मंद मुस्कान से साथ अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं। बस, भगवान के इसी रूपमाधुरी का पान करते-करते मैं अपने आप को भूल जाता हूँ। भगवान की वह त्रिलोकपावनी मूर्ति मेरे नेत्रों के सामने नृत्य करने लगती है। उसी के दर्शनों से मैं पागल-सा बन जाता हूँ। मैं इसी भाव से पाठ करता रहता हूँ। महाप्रभु ने कहा, ‘विप्रवर, तुम धन्य हो, यथार्थ में गीता का असली अर्थ तो तुमने ही समझा है’। भावों की शुद्धि ही अत्यंत आवश्यक है।
बेटे का वैवाहिक संबंध तय होते ही, माँ ने बहू को बाहों में भर कर घोषणा की ‘ये मेरी बहू नहीं बेटी है’। आधुनिकता की चाशनी में ओत-प्रोत यह घोषणा बड़ी आम बात हो गई है। यह बात किसी की बेटी को अपनी बेटी तुल्य मानना और बेटी को बहू से बड़ा घोषित करने की कोशिश भर है। लेकिन इस आधुनिकता के दिखावे में हम यह भूल जाते हैं कि बहू का अधिकार, उत्तरदायित्व, गरिमा और सम्मान बेटी से ज्यादा है। बहू को बेटी बनाना, सही माने में उसके दर्जे को बढ़ाना नहीं, कम करना है। बहू का अधिकार बहू के रूप में ही है, बेटी बनते ही वह अपना बहू का अधिकार, गरिमा और सम्मान खो देती है। बहू को बेटी कहना केवल आधुनिकता और प्रतिष्ठा का सूचक भर है। यह समझने की जरूरत है कि तमाम आधुनिकता के बावजूद ‘बेटी नहीं, बहू ही अपनी’ है।
मेरे घर की पहचान, मेरी बहू है। मेरे वंश को बढ़ाने वाली, बहू है। मेरे रिश्ते, परिवार, पास-पड़ोस, मित्र, अतिथि उसके ही इर्द-गिर्द घूमते हैं। इन सबों से बनाना-बिगाड़ना, बहू के हाथ में है। ये सब बहू के बल बूते पर फलते-फूलते हैं। मेरे परिवार का फैलाव, बहू ही करती है। मेरे बुढ़ापे में भी बेटे से ज्यादा भूमिका, बहू की ही है। हाँ, यह सही है कि भावनात्मक दृष्टिकोण से बेटी ज्यादा नजदीक है, उसमें मेरा अंश है, उसमें मेरा खून है, हमने उसे पाला है, वह हमारा दु:ख दर्द समझती है। लेकिन यह बहू की कला है, होशियारी है, कौशल है, समझ है जिससे एक बेटी अचानक एक अनजान, पराए घर में आ कर उसे अपना बना लेती है, हमारा मन जीत लेती है। जब तक वह बेटी थी उसके पास ऐसा उत्तरदायित्व नहीं था। बहू बन कर ही वह परिपक्व होती है। यहाँ भी बहू, बेटी से आगे है। बेटी का संबंध कुछ वर्षों तक ही रहता है जबकि बहू, मृत्युपर्यंत हमारे साथ है। बल्कि, सही मायने में मृत्यु के बाद भी हमारे परिवार का अंग बहू ही है।
बुढ़ापे में बहू के बजाय बेटे-बेटी पर भरोसा करना ही हमारी भूल है। आधुनिकता के चक्कर में बेटी यह मानती है कि माता-पिता की देखभाल उसका उत्तरदायित्व है। उत्तरदायित्व कभी अकेला नहीं होता। उत्तरदायित्व को निभाने के लिए अधिकार की जरूरत होती है। इस चक्कर में बेवजह अधिकारों का अतिक्रमण पारिवारिक परेशानियाँ पैदा करता है। बहू को बहू मानें, यही नहीं, बेटी को भी बहू बनने दें । याद रखें जिस प्रकार माता-पिता-बेटी के बीच मनमुटाव-स्नेह-नाराजगी-खुशामद, प्यार और तकरार होते रहते हैं लेकिन रिश्ता यथावत बना रहता है, वैसे ही सास-श्वसुर-बहू के बीच भी ऐसे वाकिए होते रहते हैं – उन्हें तूल न दें। बल्कि अगर उनके बीच तकरार नहीं, मनमुटाव नहीं, नाराजगी नहीं, खुशामद नहीं तो समझ लें कि रिश्ता अभी तक सामान्य नहीं हुआ है। प्रेम के बजाय, तकरार और तकरार के बाद प्रेम ही रिश्तों को सामान्य बनाता है। बीती बातों को बिसार कर फिर से रिश्तों को सामान्य करें और यही शिक्षा अपनी बेटी को भी दें। तकरार को अहमियत न दें, भावनाओं का मोल समझें। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी।
अपने भावों को शुद्ध रखें, बेटी को बेटी और बहू को बहू का दर्जा दें। उन्हें उनके अधिकार और उत्तरदायित्व प्रदान करें। अपना और बेटी, दोनों का घर सँवारें और सँवरने दें।
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