शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

विदेशी नागरिकता

  “झुटपुटा होते ही खेलका मैदान मनुष्यों का सागर बन गया। कोने कोने में आस-पास की इमारतों के कमरे पर सिर-ही-सिर दिखायी दे रहे थे। ऐसा लगता था कि बालूका एक कण भी जमीन तक न पहुँच पायेगा, बीचके सिर ही उसे थाम लेंगे। इधर-उधर चारों ओर ऊँचे-ऊंचे लाउडस्पीकर तैनात थे। ऐसा लगता था कि उनके अन्दर भी जान आ गयी है। वे भी अपने महत्व को पहचान गये हैं और उसके अनुकूल बनना चाहते हैं।

ठीक निश्चित समय पर पासके एक कमरे का दरवाजा खुला और एक मानव आकृति बाहर आयी। यह मानव देह थी या शुभ्र ज्योत्स्ना ने मानव आकार ले लिया था ? चारों ओर के वातावरण में, ठोस नीरवता को चीरती हुई एक मधुर गंभीर शब्द-लहरी गूँज उठी:

"मैं इस दिन के साथ अपनी एक चिर-पोषित अभिलाषा की अभिव्यक्ति जोड़ देना चाहती हूँ-वह है भारतीय नागरिक बनने की अभिलाषा। सन् १९१४ से ही, जब मैं पहली बार भारत में आयी, मैंने अनुभव किया कि भारत ही मेरा असली देश है, यही मेरी आत्मा और अन्तःकरण का देश है। मैंने निश्चय किया था कि ज्यों ही भारत स्वतंत्र होगा, मैं अपनी यह अभिलाषा पूरी करूंगी। लेकिन मुझे उसके बाद भी यहाँ पांडिचेरी के आश्रम के प्रति अपने भारी उत्तरदायित्व के कारण बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी। अब समय आ गया है जब कि मैं अपने विषय में यह घोषणा कर सकती हूँ।

लेकिन, श्रीअरविन्दके आदर्श के अनुसार, मेरा ध्येय यह दिखाना है कि सत्य एकत्व में है, न कि विभाजन में। एक राष्ट्रीयता प्राप्त करने के लिये दूसरी को छोड़ना कोई आदर्श समाधान नहीं है, इसलिये मैं आशा करती हूँ कि मुझे दोहरी राष्ट्रीयता अपनाने की छूट रहेगी, अर्थात्, भारतीय हो जानेपर भी मैं फ्रेंच बनी रहूँगी।



          जन्म और प्रारंभिक शिक्षा से मैं फ्रेंच हूँ। अपनी इच्छा और रुचि से मैं भारतीय हूँ। मेरी चेतना में इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। इसके विपरीत, वे एक-दूसरे से भली प्रकार मेल खाती हैं और एक दूसरे की पूरक हैं। मैं यह भी जानती हूँ कि मैं दोनों देशों की समान रूपसे सेवा कर सकती हूँ, क्योंकि मेरे जीवन का एक मात्र ध्येय श्रीअरविन्द की महान् शिक्षाओं को मूर्त रूप देना है। उन्होंने अपनी शिक्षाओं में यह प्रकट किया है कि सारे राष्ट्र वस्तुतः एक हैं और सुसंगठित एवं समस्वर विविधता के द्वारा इस भूमिपर भागवत एकत्वको अभिव्यक्त करने के लिये उनका अस्तित्व है।"

          शब्द-प्रवाह अचानक बन्द हो गया, लेकिन नीरव वातावरण अन्दर जीवित स्पन्दन बहुत देर तक अनुभव होते रहे।

          जब सारे संसारमें राष्ट्रीयता का बोलबाला था, युद्ध राष्ट्रवादका सखा बनकर पृथ्वीको टुकड़ों में काट रहा था, महायुद्ध तो समाप्त हो चुका था, परन्तु उसकी जूठन चारों ओर फैली हुई थी, भिन्न-भिन्न देशों के ही नहीं, एक ही देश के विभिन्न प्रदेशों के लोग एक-दूसरे के लिये अजनबी और पराये बने हुए थे, ऐसे समय किसने, कौन था जिसने इस सामंजस्य पूर्ण विभिन्नता का स्वप्न लिया और इस तरह खुलकर घोषणा की? महायुद्ध के दिनों में, सभी के हितों के भार-तले चर्चिल ने इंग्लैंड और फ्रांस को एक करना चाहा था, पर सफलता न मिली। आज भारत के एक छोटे-से कोने में से सारी मानवता को यह सन्देश दिया जा रहा था जो पूर्व और पश्चिम को, वृद्ध आध्यात्मिक गुरु, भारत, और व्यवहार कुशल युवा, फ्रांस, को एक-दूसरे के नजदीक लाकर सारे विश्व में एक नयी रचनात्मक क्रान्ति के बीज बोयेगा। क्या मानव जाति इतना बड़ा कदम उठाने के लिये तैयार थी? यह साहसपूर्ण, भविष्यमें प्रवेश करती हुई वाणी उन्हीं की थी जिन्हें श्रीअरविन्दने 'मदर' या माताजी कहा है। – श्वेत कमल, रवीन्द्र, भूमिका



          श्रीमाँ लंबे समय तक भारत में रहीं। भारत ही उनका घर था, कर्म स्थल था, लेकिन जन्मस्थल फ़्रांस था।  भारत की नागरिक बनना उनका सपना था। लेकिन वे कहती हैं कि उन्हें भारत प्रिय है लेकिन फ़्रांस भी उन्हें उतना ही प्रिय है। अगर भारत कर्मभूमि है तो फ़्रांस जन्मभूमि है। एक को पाने के लिए दूसरे को छोड़ने को वे तैयार नहीं। उनकी इच्छाशक्ति के सामने आखिर सरकारें झुकीं और उन्हें दोहरी-नागरिकता प्रदान की गई।

हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यान चंद का नाम किसने नहीं सुना है। हिटलर को किसी भी क्षेत्र में हार मंजूर नहीं थी। अपनी हार से तिलमिलाये हिटलर ने मेजर ध्यानचंद को प्रलोभन दिया कि वह जर्मनी की नागरिकता स्वीकार कर ले, उसे कर्नल बनाने की भी पेशकश की गई। लेकिन मेजर ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। वे  भारत के नागरिक ही बने रहे।  



          प्रश्न है क्या पाने के लिए क्या छोड़ना? अमूमन हम बेहतर के लिए वर्तमान का त्याग करने को प्रस्तुत रहते हैं। लेकिन क्या दूसरे की माँ अपनी माँ से बेहतर हो सकती है? दूसरे का घर अपने घर से ज्यादा अच्छा हो सकता है? इस पर विचार करने की हमें न तो फुर्सत है न क्षमता शेष बची है। भौतिक उपलब्धियों के लिए हम दूसरे के घर जाके उसकी माँ को अपनाने में नहीं  हिचकते।

 

          आज की इस नयी दुनिया  में, नियम-कानून की जकड़ी-बंदी में फंसे हमें, कई ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जो हमें स्विकार्य नहीं। लेकिन हमें इस बात का पूरा भान होना चाहिए, हमें अपनी अंतरात्मा की गहराई तक यह स्पष्ट होना चाहिए कि हमारा लक्ष्य अपनी माँ की सेवा करनी है, हमें अपना घर सजाना है; इसके लिए यह समझौता सिर्फ रास्ते का एक पड़ाव है

*****

आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से बाँटना चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं। हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।

                 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको कैसा लगा और क्यों? आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: