हम आभारी नहींहैं! खबरें, जरा हट के
(यह खबर किसी अखबार में नहीं
छपी, न ही टीवी चैनल पर सुना गया और न ही सोशल
मीडिया पर इसकी चर्चा हुई। इसे पढ़ा एक पत्रिका में। अमेरिका में 9/11 के आतंकी
हमले के समय क्या किया इन अनपढ़, अनजान आदिवासियों ने कि नैरोबी
स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ विलियम ब्रांगिक को उनका आभार जताने और उनकी
सौगात लेने के लिए भाग कर वहाँ जाना पड़ा और अमेरिकन जनता ने अपनी सरकार को उनकी
बात मानने के लिए बाध्य किया और उन आदिवासियों की सौगात अमेरिका लानी पड़ी। और हम
भारतीयों ने, अपने देश में कोरोना के द्वितीय चरण में उनकी
सौगात का कैसे आभार जताया यह भी जानिए। पढ़ें पूरी खबर।)
आपने अमरीका का, उसके मैनहटन का भी और उसके वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का और फिर ओसामा बिन लादेन का नाम तो सुना ही होगा। ज्यादातर लोगों ने जो नाम नहीं सुना होगा वो है इनोसाइन गांव का जो पड़ता है केन्या और तंजानिया के बॉर्डर पर। यहां की जनजाति है- मसाई ! अमरीका पर हुए 9/11 के हमले की खबर मसाई लोगों तक महीनों बाद तब पहुंची जब उनके गांव के पास के ही कस्बे में रहने वाली, स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी की मेडिकल स्टूडेंट किमेली नाओमा छुट्टियों में वापस केन्या आई। उसने मसाइयों को 9/11 का
आंखों देखा हाल सुनाया। कोई बिल्डिंग इतनी ऊंची भी हो सकती है कि वहां से नीचे गिरने पर आदमी की जान चली जाए, मसाइयों के लिए यह लगभग अविश्वसनीय बात थी। फिर भी वे सब अमेरीकियों के दुःख से दुःखी हुए और उसी मेडिकल स्टूडेंट के माध्यम से केन्या की राजधानी नैरोबी स्थित अमरीकी दूतावास के डिप्टी चीफ विलियम ब्रांगिक को एक पत्र भिजवाया। पत्र क्या मिला कि विलियम ब्रांगिक बेचैन हो उठे। उन्होंने नैरोबी जाने वाली पहली फ्लाइट का टिकट लिया और पहुंचे नैरोबी, वहां से कई मील टूटी-फूटी सड़कों पर कठिन सफर पूरा कर पहुंचे इनोसाइन गांव, और फिर बैठे मसाइयों के सामने। मसाइयों को जैसे ही पता चला कि उन्होंने जिसे पत्र लिखा था वह गांव में आ पहुंचा है, वे सब जमा हुए। उनके साथ थीं एक कतार में खड़ी 14 गायें! मसाइयों के एक बुजुर्ग ने गायों से बंधी रस्सी डिप्टी चीफ के हाथों में पकड़ा दी और फिर उस तख्ती की तरफ इशारा किया जिस पर लिखा था कि दुःख की इस घड़ी में अमेरीका के लोगों की मदद के लिए हम ये गाये उन्हें दान कर रहे हैं।" जी हां, यही तो पत्र था कि जिसे पढ़ कर दुनिया के सबसे ताकतवर और समृद्धि देश का राजदूत सैकड़ों मील चल कर चौदह गायों का दान लेने आया था। गायों के
ट्रांसपोर्ट की कठिनाई और कानूनी बाध्यता के कारण गायें तो अमरीका नहीं जा भेजी जा
सकती थी अतः उन्हें बेचकर मसाई परंपरा का एक आभूषण खरीद कर 9/11 मेमोरियल म्यूजियम में रखने की पेशकश की गई। जब यह बात अमेरीका
के आम नागरिकों तक पहुंची तो एक दूसरा ही नजारा सामने आया। नागरिकों ने
आभूषण की जगह 14 गाएं ही लेने की जिद्द पकड़ ली। ऑनलाइन पिटीशन साइन करने का अभियान चल पड़ा : 'आभूषण नहीं, गाय!' अधिकारियों के पास ईमेल का अंबार जमा होने लगा। नेताओं से
बात की गई और करोड़ों अमेरीकियों ने मसाइयों और केन्या के लोगों को इस अभूतपूर्व
प्रेम के लिए कृतज्ञ भाव से धन्यवाद दिया, उनका अभिनंदन किया।
अब एक छोटा-सा अलग वाकया भी पढ़िये। (यह रिपोर्ट भी उपरोक्त रिपोर्ट का ही अंश है।)
कोरोना कहर का हालिया विवरण (भारत का) टीवी पर देख कर
केन्या द्वारा हमें (भारत को) भेजी गई 12 टन अनाज की सहायता का बहुत से लोग मजाक उड़ा रहे हैं। सोशल मीडिया पर केन्या
को भिखारी,
भिखमंगा, गरीब आदि-आदि
कहा जा रहा है और यह भी सुनाया जा रहा है कि हमें उनके 12 टन अनाज की जरूरत ही क्या थी! उनके आभारी होने के बजाय हम
उनकी खिल्ली उड़ाने में मशगूल रहे।
बात 12 टन अनाज की नहीं, जिसे दुनिया का कोई तराजू तौल न सके, उस प्रेम की है। दान नहीं, दानी का हृदय देखिए; कंकड़ नहीं, कंकड़ उठा कर सेतु में लगाने वाली गिलहरी की श्रद्धा देखिए। केन्या का भेजा 12 टन अनाज हम सिर झुका कर और भरे हृदय से कबूल करेंगे तो कोरोना के घाव पर एक
मरहम ही लगेगा। खिल्ली उड़ाने से, हमारी ही
खिल्ली उड़ेगी।
(गांधी
मार्ग से)
(क्या हम
‘आभार’ का अर्थ जानते
हैं? क्या आप आभार जताना जानते हैं? क्या
यही तरीका है हम भारतीय ऋषि-पुत्र, संस्कार-युक्त, आर्य-पुत्र का? होंगे हम ऋषि पुत्र, संस्कार युक्त, आर्य पुत्र,
पाँच हजार वर्ष पूर्व, आज नहीं। आज तो हम बर्बरता की
पराकाष्ठा पर हैं। हमारी नज़र में आभार जताने का अर्थ है अपने को छोटा मानना। ऐसा
नहीं है कि हमारे देश में ऐसे गाँव-लोग नहीं थे, बहुतायत में
थे, शायद अब भी हों, लेकिन कौन बताएगा हमें
उनके बारे में? हम, आधुनिक शिक्षा से
सन्नद्ध हैं – मैं और तुम, तुम और मैं, तू और मैं, और
फिर तू तू-मैं मैं।)
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