चुनाव, लोकतंत्र और भारतीय संविधान - 2
चुनाव आयुक्त ने पहली बार अप्रैल २००४ में जीते हुए सांसदों के आंकड़े , उन्हीं के द्वारा दाखिल किए गए हलफनामों पर आधारित, प्रस्तुत किए हैं। इन आंकडों का विश्लेषण किया है पब्लिक अफेयर्स सेंटर के डा. सैमुअल पाल और प्रोफ़ेसर एम्.विवेकानंद ने। उस विश्लेषण से सामने आए हैं कुछ नतीजे। मैं प्रमुखतः तीन मुद्दों पर आपलोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा:-१। संसद में बढ़ते अपराधी - संसद में लगातार अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। मौजूदा संसद में लगभग २५% सांसद के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से ५०% के विरुद्ध मामले हलके फुलके या राजनीतिक हैं। लेकिन बाकी ५०% के विरुद्ध गंभीर मामले हैं जिसके कारण ५ साल या उससे ज्यादा की जेल हो सकती है। चुनाव आयोग ने संसदीय समिति को यह सुझाव दिया था की वे उम्मीदवार जिनके विरुद्ध गंभीर आरोप दर्ज हैं तथा न्यायालय को प्रिअमा फेसिया (prima facia) आरोप सही लग रहे हैं, ऐसे उम्मीदवारों का नामांकन पात्र स्वीकृत नहीं होना चाहिए। दुःख की बात है संसद समिति ने इस सुझाव को स्वीकार नहीं किया।
२। सांसदों में शिक्षा का अभाव - हमारी संसद में शिक्षा का भी अभाव है। १३२ सांसद स्नातक नहीं हैं। और कम पढ़े लिखे सांसदों में अपराधी भी ज्यादा हैं। शिक्षित सांसदों के विरोध में यह कहा जाता है की हमारे देश की अधिकतम जनता गांवों में रहती है और अनपढ़ है। लेकिन प्रश्न यह है की हम व्यवस्था आज के लिए कर रहे हैं या आगामी शताब्दियों तक के लिए? हम जनता को अनपढ़ बनाए रखना चाहते हैं या उसे पढ़ाना चाहते हैं।हम शिक्षा पर जोर देना चाहते हैं या अशिक्षा पर। अभी हाल में भूटान में हुए पहले चुनाव में विभिन्न प्रकार के तर्क वितर्क के बावजूद संसद के पहले चुनाव में undergarduate प्रत्याशियों के लिए दरवाजे बंद कर दिए गए। परिणामस्वरूप मौजूदा संसद के ६६% सांसद चुनाव नहीं लड़ सके। प्रमुख चुनाव आयुक्त ने कहा की भूटान की संसद को विधेयक बनाने हैं और देश के हित में राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय निर्णय लेने हैं। हमारे पढ़े लिखे नागरिक अनपढ़ नागिरकों के हितों को अच्छी तरह समझते हैं और उनके हितों की रक्षा करने में सक्षम हैं। और सबसे अहम् बात - दुर्बलों की रक्षा सबल ही करते हैं, दुर्बल अपनी रक्षा ख़ुद नहीं कर सकते। अतः सांसदों का शिक्षित एवं सक्षम होना अनिवार्य है।
३.सांसदों की उम्र- हम बात करते हैं युवा भारत की। एक ऐसे भारत की जिसमें युवा बहुमत में हैं। युवा यानी ३५ वर्ष से कम उम्र की। लेकिन गौर करें अपने सांसदों के उम्र पर।हमारी संसद में वरिष्ठ सांसदों का आधिपत्य है। हमारी लोक सभा में सांसदों की औसत उम्र ४६.५ से बढ़कर ५२.७ वर्ष हो गयी है। इनमें ६५ वर्ष से ज्यादा के १६% सांसद हैं जबकि ३५ वर्ष के सांसद केवल ६.५% हैं। मैं यह नहीं कहता की संसद में युवा सांसदों का बहुमत होना चाहिए लेकिन यह आवश्यक है की सांसदों की औसत उम्र कम होनी चाहिए। बढ़ते उम्र के साथ, दुर्भाग्यबश, कुर्सी छोड़ने के बजाय कुर्सी से येन तेन प्रकारेण चिपके रहने की लालसा बढ़ती जाती है। लेकिन सावधान - युवा सांसदों और राजनीतिज्ञों को लेकर जो एक नई हवा चलानी शुरू हुई है उससे हमें सावधान रहने की आवश्यकता है। बुजुर्ग एवं सफल राजनीतिज्ञ अपने बच्चों को युवा का जामा पहना कर राजनीति के दंगल में उतार रहे हैं। और अपनी छत्र छाया में इस बात का ध्यान रख रहे हैं कि दंगल में वे जीतते रहें। उन्हें हार बर्दास्त नहीं और न ही जमीन से जुड़े हुए हैं। पिछले दरवाजे से सीधे बोर्ड रूम में घुसा दिए गए हैं। भारत की राजनीति में यह एक भयानक मोड़ है जिस पर नजर रखने की आवश्यकता है।
अब प्रश्न यह है की हमारे पास क्या विकल्प है? लोकतंत्र में डंटे रहें या तानाशाही की और घूमें । तानाशाही की तरफ जाना तो पीछे हटना है क्योंकि दुनिया में हर जगह तानाशाही समाप्त हो रही है और लोकतंत्र आ रहा है। अतः यह तो निर्विवाद है कि हमें लोकतंत्र को ही पकड़े रहना है। अब अगला प्रश्न है - संसदीय प्रणाली या फिर राष्ट्रपती प्रणाली। संसदीय पद्धति का हमें पिछले ६० वर्षों का अनुभव है। इसके फूलों की सुंगंध एवं काँटों की चुभन सह चुके हैं। इनसे निपटना हमें आ गया है। संसदीय पद्धति में रहते हुए हमने राष्ट्रपति प्रणाली का रूप देखा है। और देखा है तानाशाही में डूबते हुए अपने देश को। लेकिन सौभाग्यवश हम अपनी नाव को बचाने में सक्षम रहे और इतने आंधी तूफानों के बाद भी हम लोकतंत्र की रक्षा कर पाए। यह कैसी सोचनीय परिस्थिति है कि कांग्रेस पिछले ६० सालों में एक परिवार के बाहर अपना नेता खोजने में असमर्थ रही। लेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र होने के कारण यह उनकी बपौती संपत्ति नहीं बन पाई। विपक्ष को भी मौका मिलता है और उसने भी सफल सरकारें बनाई हैं। आवश्यकता है तीन प्रकार के सांसदों की:
१। सांसद जो पढ़े लिखे हों, सभ्य एवं शिक्षित हों ताकि वे शोरगुल, हंगामा, गाली गलौच करने में शर्मिन्दगी अनुभव करें तथा देश के मसलों को समझ कर प्रशासन को चुस्त एवं दुरुस्त करें।
२। संसद में अपराधी नहीं होने चाहिए। वे केवल संसद की गरिमा को गिराते ही नहीं बल्कि जनता एवं स्वच्छ सांसदों का मनोबल भी तोड़ते हैं।
३। वे राजनीतिज्ञ जिनके पाँव कब्र में लटके हों वे सक्रीय राजनीति से हट कर पथ प्रदर्शक बनें और उसके अनुरूप पदों पर सुशोभित हों। उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि child is better than father.
अब हम विचार करें एक अहम् प्रश्न पर। क्या ये तीन परिवर्तन करने से शासन में सुधार हो जायेगा? या देश सुधर जायेगा? या फिर दूसरों के सुझाव लेकर आवश्यक परिवर्तन कर दिए जाएँ? प्रणाली बदली करनी हो तो मन मोहन सिंह या सोनिया गांधी या लाल कृष्ण अडवानी या करात या किसी और को Presidential Form of Government के अंतर्गत राष्ट्रपति बना दें या आप कहें तो उन्हें पूर्ण अधिकार देते हुए देश का राजा या रानी बना दें? लेकिन यह करेगा कौन? किसे चुनेगा और कौन? यह करना तो हमें ही होगा ना - "हम, भारत के लोग।"
"हम, भारत के लोग।" यह तो जाना पहचाना वाक्य है। हमारे संविधान कि उद्देशिका यही तो कहती है - "हम, भारत के लोग।" यानी सत्ता हमारे हाथ में है। हमने उन ५५० लोगों को प्रशासन चलने का कार्य भार सौंप रखा है। उन ५५० लोगों ने मंत्रीमंडल को और मंत्रीमंडल ने प्रधानमंत्री को। यानि सत्ता तो हमारे हाथ में है और हम बात कर रहे हैं औरों को बदलने की! बदलना तो हमें ख़ुद को है। लोकतंत्र बहुमत का शासन है, और हरेक के पास एक वोट है। अतः यहाँ यथा राजा तथा प्रजा नहीं बल्कि यथा प्रजा तथा राजा, सटीक बैठता है। हम प्रशासन में कितना ही रद्दोबदल करलें, उठा पटक कर लें, प्रणालियाँ बदल दें, जब तक हम ख़ुद नहीं बदलते कोई परिवर्तन सम्भव नहीं है।
लोग आहट से भी आ जाते थे गलियों में कभी,
अब जो चीखें भी तो कोई घर से निकलता ही नहीं।
अब जो चीखें भी तो कोई घर से निकलता ही नहीं।
यह क्या हो गया है हमें। कितने बदल गए हैं हम। हम हाथ पर हाथ धरे बैठें हैं और सोचते हैं कोई, कभी, कहीं से आकर हमारे घर को ठीक कर जाय।
ये कैसा इम्तिहान है मेरे मालिक
कि एक मुल्क ६० साल से खुशगवार मौसम का इन्तजार कर रहा हो
और उसकी नौजवान नस्लें हाथ पर हाथ धरी बैठी होमेरे खुदा, मेरे मालिक, मेरे मौला
अगर तुम इस शर्मनाक माहौल में होते
तो क्या तुम ख़ुद
अपने खुदा के खिलाफ बगावत नहीं करते?
कि एक मुल्क ६० साल से खुशगवार मौसम का इन्तजार कर रहा हो
और उसकी नौजवान नस्लें हाथ पर हाथ धरी बैठी होमेरे खुदा, मेरे मालिक, मेरे मौला
अगर तुम इस शर्मनाक माहौल में होते
तो क्या तुम ख़ुद
अपने खुदा के खिलाफ बगावत नहीं करते?
मैं वापस याद दिलाना चाहूंगा एबी हाफमैन की उन पंक्तियों को जहाँ से मैंने अपना लेख प्रारंभ किया था, " लोकतंत्र वह प्रणाली नहीं है जिसमें आप सिर्फ विश्वास करते हैं और जिसे व्यवस्थित कर आप निश्चिंत हो जाते हैं। बल्कि इस प्रणाली में आप हर समय कुछ न कुछ करते रहते हैं, इसमें आप भाग लेते हैं। और जब आप अपना सहयोग नहीं देते हैं तो लोकतंत्र टूट कर बिखर जाता है। लेकिन अगर आप अपना सहयोग बनाए रखते हैं तो जीत आपकी है, भविष्य आपका है।"
अतः लोकतंत्र की पहली शर्त है सतर्क एवं प्रबुध्द नागरिक। तो आईये सुनहले भविष्य के लिए हम यह शपथ लें की हम सतर्क एवं प्रबुध्द नागरिक हैं, रहेंगें और बनायेंगें। हम अपना उत्तरदायित्व केवल एक वोट देकर समाप्त नहीं समझेंगें और निरंतर इसे अपना सहयोग देते रहेंगें।
अतः लोकतंत्र की पहली शर्त है सतर्क एवं प्रबुध्द नागरिक। तो आईये सुनहले भविष्य के लिए हम यह शपथ लें की हम सतर्क एवं प्रबुध्द नागरिक हैं, रहेंगें और बनायेंगें। हम अपना उत्तरदायित्व केवल एक वोट देकर समाप्त नहीं समझेंगें और निरंतर इसे अपना सहयोग देते रहेंगें।
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