हम जब इस संसार में आते हैं, तब हमारे साथ होती है ईश्वर द्वारा प्रदत्त समझ। धीरे धीरे समय के साथ साथ इस पर सांसारिक समझ की परत चढ़ने लगती है। एक समय ऐसा आता है कि इस सांसारिक समझ की परत इतनी मोटी हो जाती है कि ईश्वरीय समझ विलुप्त हो जाती है। लेकिन वह न तो पूरी तरह समाप्त होती है और न ही मरती है। वह रहती है वहीं उसी प्रकार भले ही हम उसे भूल जाएँ, विस्मृत हो जाए, दिखाई न पड़े।
जन्म के साथ ही हम अपने कल्याण के लिए कार्यारम्भ कर देते हैं। हमारा कल्याण किस में है? कल्याण क्या है? जैसे जैसे हमारी समझ पर परतें चढ़ने लगती है, वैसे वैसे हमारी कल्याण की परिभाषा भी बदलने लग जाती है। प्रायः एक समय ऐसा आता है कि हमें अपना कल्याण अर्थोपार्जन में ही दिखने लगता है। क्योंकि हमें लगता है कि अर्थ से ही मनोवांछित भोग विलास की प्राप्ति की जा सकती है। और पूरा सुख इसी भोग विलास में समाहित है। लेकिन अगर इसे ज़रा सा कुरेदें तो वस्तुस्थिति दूसरी ही नजर आती है ।
प्रश्न है हमें कितना सुख चाहिए? सुख कि कोई सीमा है या फिर जितना मिले उतना सुख चाहिए? सही बात तो यह है कि हम सुख कि कोई सीमा नहीं चाहते, जितना मिले उतना सुख चाहिए। यानि असीम सुख चाहिए। सुख का परिमाण निश्चित होते ही दूसरा प्रश्न उठता है कि यह असीम सुख हमें कहाँ चाहिए? यानि घर पर चाहिए या दफ्तर में चाहिए या फिर कहीं और? बड़ा बेतुका सा प्रश्न प्रतीत होता है यह क्योंकि इसका तो सीधा सा उत्तर यही है कि मिले तो सब जगह सुख चाहिए। यह असीम, हर जगह मिलने वाला सुख किस किस से चाहिए? पति से, पत्नी से, बेटे से? ऐसा तो नहीं है कि हमें कुछ सीमित लोगों से ही सुख चाहिये। सही तो यही है कि मिले तो सब से सुख चाहिये। अच्छा तो यह सुख किस समय चाहिये? सुबह चाहिये या शाम को? रात को चाहिये दोपहर में? इसका भी वही उत्तर है, मिले तो सब समय चाहिये। लेकिन सुख के बहुत प्रकार होते हैं - जैसे नशे का सुख, भुलक्करी का सुख, सचेतन सुख , अचेतन सुख आदि आदि। निर्विवाद है कि सुख तो सचेतन ही चाहिये। सुख का हमें अनुभव होना चाहिये और उस सुख कि हमें याद भी बनी रहनी चाहिये। वह सुख क्या काम का जिसे हम अनुभव ही नहीं कर सकें और जिसकी हमें याद न रहे। अतः हमें चैतन्य सुख चाहिये।
जन्म के साथ ही हम अपने कल्याण के लिए कार्यारम्भ कर देते हैं। हमारा कल्याण किस में है? कल्याण क्या है? जैसे जैसे हमारी समझ पर परतें चढ़ने लगती है, वैसे वैसे हमारी कल्याण की परिभाषा भी बदलने लग जाती है। प्रायः एक समय ऐसा आता है कि हमें अपना कल्याण अर्थोपार्जन में ही दिखने लगता है। क्योंकि हमें लगता है कि अर्थ से ही मनोवांछित भोग विलास की प्राप्ति की जा सकती है। और पूरा सुख इसी भोग विलास में समाहित है। लेकिन अगर इसे ज़रा सा कुरेदें तो वस्तुस्थिति दूसरी ही नजर आती है ।
प्रश्न है हमें कितना सुख चाहिए? सुख कि कोई सीमा है या फिर जितना मिले उतना सुख चाहिए? सही बात तो यह है कि हम सुख कि कोई सीमा नहीं चाहते, जितना मिले उतना सुख चाहिए। यानि असीम सुख चाहिए। सुख का परिमाण निश्चित होते ही दूसरा प्रश्न उठता है कि यह असीम सुख हमें कहाँ चाहिए? यानि घर पर चाहिए या दफ्तर में चाहिए या फिर कहीं और? बड़ा बेतुका सा प्रश्न प्रतीत होता है यह क्योंकि इसका तो सीधा सा उत्तर यही है कि मिले तो सब जगह सुख चाहिए। यह असीम, हर जगह मिलने वाला सुख किस किस से चाहिए? पति से, पत्नी से, बेटे से? ऐसा तो नहीं है कि हमें कुछ सीमित लोगों से ही सुख चाहिये। सही तो यही है कि मिले तो सब से सुख चाहिये। अच्छा तो यह सुख किस समय चाहिये? सुबह चाहिये या शाम को? रात को चाहिये दोपहर में? इसका भी वही उत्तर है, मिले तो सब समय चाहिये। लेकिन सुख के बहुत प्रकार होते हैं - जैसे नशे का सुख, भुलक्करी का सुख, सचेतन सुख , अचेतन सुख आदि आदि। निर्विवाद है कि सुख तो सचेतन ही चाहिये। सुख का हमें अनुभव होना चाहिये और उस सुख कि हमें याद भी बनी रहनी चाहिये। वह सुख क्या काम का जिसे हम अनुभव ही नहीं कर सकें और जिसकी हमें याद न रहे। अतः हमें चैतन्य सुख चाहिये।
यानि हमें असीम, अनन्त सुख चाहिए। हम जो चाहते हैं, वह सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक सुख है। हम सबसे सुख चाहते हैं और चैतन्य सुख चाहते हैं। अब अगर हम कुरेदें अपनी समझ को, अपने मस्तिष्क को जिस पर परतें पड़ी हुई हैं तो हमें तुंरत यह स्पष्ट हो जाएगा कि जाने अनजाने हम परमात्मा को ही चाह रहे हैं। हम समझें या न समझें हमारी चाह परमात्मा की ही है। लेकिन अपनी नासमझी के कारण हम सीमित सुख के पीछे दौड़ना शुरू कर देते हैं और सीमित सुख का अंत हर समय दुःख में ही होता है।
साध्य हमेशा साधन से बड़ा होता है। साध्य की प्राप्ति के लिए हम साधन का प्रयोग करते हैं। जैसे कि नदी पार करने के लिए नौका का, और साध्य की प्राप्ति के बाद साधन का त्याग कर देते हैं। जैसे कि नदी पार करने के बाद नौका का त्याग कर देते हैं। लेकिन हमने साधन को साध्य से बड़ा बना लिया है। सांसारिक भोग की प्राप्ति के लिए परमात्मा को साधन बना लिया है। इस साधन (परमात्मा) से हम साध्य (भोग) मांगते हैं और साध्य (भोग) की प्राप्ति होने पर साधन (परमात्मा) का त्याग कर देते हैं। क्या यह ठीक लगता है? कामना का होना बुरा नहीं है। लेकिन यह मालूम होना चाहिए की कामना में चाह है और चाह में आह। अतः कामनापूर्ति की चाह भी परमात्मा पर ही छोड़ देनी चाहिए।
साध्य हमेशा साधन से बड़ा होता है। साध्य की प्राप्ति के लिए हम साधन का प्रयोग करते हैं। जैसे कि नदी पार करने के लिए नौका का, और साध्य की प्राप्ति के बाद साधन का त्याग कर देते हैं। जैसे कि नदी पार करने के बाद नौका का त्याग कर देते हैं। लेकिन हमने साधन को साध्य से बड़ा बना लिया है। सांसारिक भोग की प्राप्ति के लिए परमात्मा को साधन बना लिया है। इस साधन (परमात्मा) से हम साध्य (भोग) मांगते हैं और साध्य (भोग) की प्राप्ति होने पर साधन (परमात्मा) का त्याग कर देते हैं। क्या यह ठीक लगता है? कामना का होना बुरा नहीं है। लेकिन यह मालूम होना चाहिए की कामना में चाह है और चाह में आह। अतः कामनापूर्ति की चाह भी परमात्मा पर ही छोड़ देनी चाहिए।
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