"समाज के नियम क़ानून हैं, संविधान है, लोकसभा है। इन्हीं को तो सत्ता कहते हैं। ये सब मिलकर अपनी जनता से खेलते हैं। अब इस खेल में अगर सत्ता ही हर बार जीतती है और जनता के हाथ पराजय और निराशा ही आती है तो क्या किया जाए?"
स्वतन्त्रता संग्रामियों को क्षोभ है कि क्या उन्होंने अपनी जिन्दगी इन्ही मुद्दों के लिए झोंक दी थी जो अब उठाये जा रहे हैं? निचली जाति के पक्षधर मायावती और मुलायम, बाल ठाकरे और प्रकाश अम्बेडकर, लालू यादव और नितीश कुमार एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हैं। क्या इनके हित अलग अलग हैं? बाहर के दुश्मनों को तो हमारे नौजवानों ने खदेड़ दिया लेकिन भीतर के इन दुश्मनों को ठिकाने कौन लगायेगा? क्या यह सच नहीं है कि देश के कुछ लोग ऐसा जीवन जीते हैं जैसा आर्यों के नायक इन्द्र और सोने की लंका के रावण को भी नसीब नहीं था? क्या इस देश में सबसे ज्यादा अभद्रता और अनैतिकता इसी वर्ग में नहीं दिखती जिसके हाथ में सत्ता और शासन की बागडोर है?
लेखक चिल्ला उठता है "तब हम क्या करें? क्या यह देश छोड़ परदेश में जा बसें? सुनामी को आमंत्रित करें कि हमें लील ले, या ओसामा हमारा सफाया कर दे या बुश से कहें कि पधारो हमारे देश?" हमारी स्वतन्त्रता-दिवस का "स्व" गायब है, "तंत्र" बिका हुआ और दिवस चाय-काफी-शराब की पार्टियों तक सीमित। और तो और हमारी राजनीति "वंदे मातरम" तक के पीछे हाथ धो कर पड़ी हुई है।
विजय बहादुर ने केवल हमारे प्रश्न ही उठाये हों, ऐसी बात नहीं है। उनहोंने हमसे प्रश्न भी किए हैं । जिस जेसिका लाल की ह्त्या के विरुद्ध समस्त मीडिया और लोग उठ खड़े हुए वे बोफोर्स के दलालों या अन्य राजनीतिक दलालों के विरुद्ध क्यों नहीं खड़े हो पाये? हम कैसे पके अन्न "भात" को छोड़ कर अनपके अन्न "राईस" खाने लगे? रौशनी का त्यौहार दिवाली क्यों सबों के घरों में चिराग न जला सकी? भाईचारे की होली, खून में क्यों सनने लगी? कैसे पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी राष्ट्रीय कम और सरकारी ज्यादा बन गए? एक अकेली ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हमें चूस चूस कर भूखा और नंगा कर दिया था, आज वैसी ही सैकड़ों कंपनियाँ यहाँ कार्यरत हैं। उनके भूखे खूनी जबड़ों के लिए यह देश कितना छोटा पड़ेगा? क्या इस बात की ख़बर हमें है? क्या गुलामी केवल राजनीतिक ही होती है? अंग्रेजों ने अमेरिका को कैसे चूसा इसका जिक्र थॉमस पैन ने किया है "the inhabitants of that unfortunate city (Boston), who but a few months ago were in ease and affluence, have now, no other alternative than to stay and starve, or turn out to beg." अपने महामंत्र "वसुधैव कुटुंबकम" को भूल कर भू-मंडलीकरण (globalisation) की तरफ क्यों और कैसे घूम हम. विश्व को एक कुटुंब न बना कर एक बाजार बना कर रख दिया हमने!
" मैं अक्सर पूछता हूँ कि ग्लोबलाइजेशन क्यों? कुटुम्बीकरण क्यों नहीं। इसमें सिर्फ मनुष्य नहीं है, वे समस्त जीवन-रूप हैं, जो अस्तित्ववान हैं। कुटुंब भाव में जो सगापन है, मनुष्यता बोध है, ग्लोबलाइजेशन में उसकी दरकार नहीं। कलाओं के सामने आज यह सबसे कठिन चुनौती है कि वे इस बौद्धिक कुटिलता और धूर्तता का पर्दाफाश करें। लेकिन क्या भारत के गुलाम बुद्धिजीवियों से इसकी उम्मीद की जा सकती है? क्या उन्हें भारत की परम्पराओं का कोई अता-पता है? "
तीस जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को तो सिर्फ गांधी के शरीर की ह्त्या हुई थी, उनके विचारों की ह्त्या किसने की ? बुद्धिजीवियों एक बहुत बड़ा वर्ग सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति में लगा हुआ है। अब अगर हमें इस देश की चिंता है तो हम जाएँ कहाँ? क्या इन बिके हुए बुद्धिजीवियों के पास या कहीं और? यह कहीं और कहाँ? पश्चिम के विद्वानों ने खूब प्रचारित किया कि भारत साधुओं, सन्यासियों का देश है। हम क्यों नहीं बता पाए की चाणक्य, वात्स्यायन, आर्यभत्त, नागार्जुन, धन्वनतरि, सुश्रुत भी इसी देश के थे?
आज हम इस काबिल भी नहीं की प्रश्न पूछ सकें। बशीर बद्र ने लिखा है " जी बहुत चाहता है सच बोलें, क्या करें हौसला नहीं होता।" विजय बहादुर सिंह ने यह हौसला तो दिखाया। अगर हम प्रश्न उठाने का भी हौसला बना लें तो उत्तर तो हमें मिलने लग जायेंगें।
विजय बहादुर ने केवल हमारे प्रश्न ही उठाये हों, ऐसी बात नहीं है। उनहोंने हमसे प्रश्न भी किए हैं । जिस जेसिका लाल की ह्त्या के विरुद्ध समस्त मीडिया और लोग उठ खड़े हुए वे बोफोर्स के दलालों या अन्य राजनीतिक दलालों के विरुद्ध क्यों नहीं खड़े हो पाये? हम कैसे पके अन्न "भात" को छोड़ कर अनपके अन्न "राईस" खाने लगे? रौशनी का त्यौहार दिवाली क्यों सबों के घरों में चिराग न जला सकी? भाईचारे की होली, खून में क्यों सनने लगी? कैसे पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी राष्ट्रीय कम और सरकारी ज्यादा बन गए? एक अकेली ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हमें चूस चूस कर भूखा और नंगा कर दिया था, आज वैसी ही सैकड़ों कंपनियाँ यहाँ कार्यरत हैं। उनके भूखे खूनी जबड़ों के लिए यह देश कितना छोटा पड़ेगा? क्या इस बात की ख़बर हमें है? क्या गुलामी केवल राजनीतिक ही होती है? अंग्रेजों ने अमेरिका को कैसे चूसा इसका जिक्र थॉमस पैन ने किया है "the inhabitants of that unfortunate city (Boston), who but a few months ago were in ease and affluence, have now, no other alternative than to stay and starve, or turn out to beg." अपने महामंत्र "वसुधैव कुटुंबकम" को भूल कर भू-मंडलीकरण (globalisation) की तरफ क्यों और कैसे घूम हम. विश्व को एक कुटुंब न बना कर एक बाजार बना कर रख दिया हमने!
" मैं अक्सर पूछता हूँ कि ग्लोबलाइजेशन क्यों? कुटुम्बीकरण क्यों नहीं। इसमें सिर्फ मनुष्य नहीं है, वे समस्त जीवन-रूप हैं, जो अस्तित्ववान हैं। कुटुंब भाव में जो सगापन है, मनुष्यता बोध है, ग्लोबलाइजेशन में उसकी दरकार नहीं। कलाओं के सामने आज यह सबसे कठिन चुनौती है कि वे इस बौद्धिक कुटिलता और धूर्तता का पर्दाफाश करें। लेकिन क्या भारत के गुलाम बुद्धिजीवियों से इसकी उम्मीद की जा सकती है? क्या उन्हें भारत की परम्पराओं का कोई अता-पता है? "
तीस जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को तो सिर्फ गांधी के शरीर की ह्त्या हुई थी, उनके विचारों की ह्त्या किसने की ? बुद्धिजीवियों एक बहुत बड़ा वर्ग सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति में लगा हुआ है। अब अगर हमें इस देश की चिंता है तो हम जाएँ कहाँ? क्या इन बिके हुए बुद्धिजीवियों के पास या कहीं और? यह कहीं और कहाँ? पश्चिम के विद्वानों ने खूब प्रचारित किया कि भारत साधुओं, सन्यासियों का देश है। हम क्यों नहीं बता पाए की चाणक्य, वात्स्यायन, आर्यभत्त, नागार्जुन, धन्वनतरि, सुश्रुत भी इसी देश के थे?
आज हम इस काबिल भी नहीं की प्रश्न पूछ सकें। बशीर बद्र ने लिखा है " जी बहुत चाहता है सच बोलें, क्या करें हौसला नहीं होता।" विजय बहादुर सिंह ने यह हौसला तो दिखाया। अगर हम प्रश्न उठाने का भी हौसला बना लें तो उत्तर तो हमें मिलने लग जायेंगें।
"पत्रकार, लेखक , वकील, डाक्टर, इंजीनियर
ठेकेदार बुद्धि के विद्या के पैगम्बर
अगर विवेक बचा है तुम सचमुच जिंदा हो
अपनी अब तक की करनी पर शर्मिन्दा हो
आओ! साबित करो तुम्हारा रक्त सही है
संकट में है देश तुम्हारा, वक्त यही है।"
ठेकेदार बुद्धि के विद्या के पैगम्बर
अगर विवेक बचा है तुम सचमुच जिंदा हो
अपनी अब तक की करनी पर शर्मिन्दा हो
आओ! साबित करो तुम्हारा रक्त सही है
संकट में है देश तुम्हारा, वक्त यही है।"
तुम्हारा स्वाभिमान और आत्म-गौरव पहले भी जिंदा था, आज भी वह मरा नहीं है। यही तुम्हारी असली परम्परा है। यही तुम्हारा असली चरित्र है। हे भारत के भाग्य-विधाताओं उठो और अपने चरित्र को पहचानो। तुम्हारा देश तुम्हें पुकार रहा है।
हमें चाहिए उत्तर! उत्तर!! और उत्तर !!!
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