शोर, अच्छा लगता
है!
पटाखों के शोर पर प्रतिबंध
लगाना संभव हुआ है।
माइक का शोर भी नियंत्रत
किया गया है।
शायद वाहनों के हॉर्न के
शोर पर एतराज नहीं, अत: बदस्तूर चल रहा है।
अगर खेल के मैदान में
दर्शकों के शोर को नियंत्रित क्या जाय तो?
जन्म जात बच्चा अगर शोर न मचाए
तो?
बच्चे अगर शोर न मचाएँ, बिना वजह
ही सही, तो क्या अच्छा लगेगा?
बच्चे अगर कुछ कह रहे हैं, बोल रहे
हैं तो उन्हे बोलने दें। वे क्या बोल रहे हैं? उसे चुप रहने
के लिए कहने के बजाय यह समझने की कोशिश करें कि वह क्या बोल या पूछ रहा है। अगर हम
चाहते हैं कि बच्चे के व्यक्तित्व का विकास हो, वह विचारशील
हो, तो उसे बोलने दें।
हमारी हाँ में हाँ मिलाने
वाले बच्चे विचार शून्य, हताश, लुंज-पुंज होंगे। हम उनके हर कार्यकलाप में
इतना रोका-टोकी करते हैं कि वे असहज अनुभव करते हैं। वे हमारे सामने चुप रहने लगते
हैं। उन्हे प्रश्न करने दीजिये। एक बच्चे ने प्रश्न किया, ‘दिवाली रामजी के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाते हैं लेकिन पूजा लक्ष्मी
जी की करते हैं। क्यों’? इस प्रश्न का समुचित उत्तर मैं आज
तक नहीं ढूंढ पाया।
सविता प्रथमेश लिखती हैं, कक्षा में अगर आवाज उठ रही है, प्रश्न आ रहे हैं, जिज्ञासाएँ जन्म ले रही हैं तो समझिए मस्तिष्क में चिंतन
चल रहा है, बच्चा बोल रहा है, आपको समझ
व समझा रहा है। हमारे पाठ्यक्रम में इसकी गुंजाइश नहीं है। तयशुदा प्रश्नों के
तयशुदा उत्तर ही सिखाते रहे तो ‘विचारशील मस्तिष्क’ कहाँ से मिलेंगे? जो बनाया नहीं वो मिलेगा कहाँ से?
अगर बच्चे पूछ रहे हैं, बोल रहे
हैं तो समझिए विचार पैदा हो रहे हैं, तर्क तैयार हो रहे हैं, मस्तिष्क काम कर रहा है। और जब यह होगा तो अंदर शोर मचेगा ही, वह बाहर भी आयेगा ही। यह नहीं हुआ तो विस्फोट हो सकता है। हम सब
ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हैं, क्योंकि हम सभी प्रश्नों
से भरे हैं लेकिन अभिव्यक्ति से वंचित हैं।
क्या वह कक्षा सर्वश्रेष्ट
है जहां से बच्चों का शोर न आए केवल शिक्षक की आवाज आए? एक
स्वस्थ्य कक्षा वह है जहां बच्चों की आवाजें आयें। वे कह,
सुन और बोल रहे हों। जब अगली बार बच्चों का शोर सुने तो कहें, ‘हाँ, शोर अच्छा लगता है’।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें