सूतांजली ०१/०९ ०१.०४.२०१८
पैड मैन
जी
हाँ, मैं अक्षय कुमार की फिल्म ‘पैड
मैन’ की ही बात कर रहा हूँ। पिछले कुछ समय से देश प्रेमी, सुरक्षा कर्मी, ईमानदार नागरिक के अभिनय की भूमिका में ही दिखा है। ऐसी ही कोई
कहानी होगी, यही सोचकर गया था पैड मैन देखने। लेकिन यह फिल्म
औरतों से जुड़ी उनकी निजी-व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्या पर आधारित है। पैड यानि
सैनिटरी पैड। जानकारी के अभाव एवं रूढ़ियों के चलते खुल कर न बोल पाने के कारण देश
की करोड़ों महिलाएं अपने मासिक रक्त स्त्राव के संबंध में चर्चा करने से कतराती
हैं। अत: अनेक कष्टों को सहती हैं और रोगों से ग्रसित होती हैं फिर भी मौन रहती हैं। कुछ समय पहले अमिताभ जी
द्वारा संचालित टीवी सीरियल ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में एक सामाजिक संस्था ‘गूंज’ ने भी इस समस्या का जिक्र किया था और देश के
नगरिकों को औरतों की इस दयनीय दशा से अवगत कराया। खैर, यह तो
वह मुद्दा है जिस पर यह फिल्म आधारित
है। लेकिन इसके साथ साथ कई अन्य मुद्दे भी
कहानी में पिरोये गए गए हैं।
१। आर्थिक परिस्थिति - देश
की अधिकतर जनता गांवों में रहती है और गरीबी में किसी प्रकार अपने परिवार को चलाती
है। समुचित कमाई के अभाव में उपलब्ध महंगे उपाय अधिकतर औरतें अपनाने में असमर्थ
हैं। उस अतिरिक्त खर्च से उनकी अर्थ व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
शहर-विद्यालय-कॉलेज की पढ़ी लिखी औरतों को ‘विश्वसनीय’ उपाय चाहिए और उसके लिए कुछ भी खर्च करने
में वे जरा भी नहीं हिचकती हैं। लेकिन जितने रुपयों का उनके लिए कोई महत्व
नहीं, उतने रुपए हमारे देश की अधिकतर औरतों के लिए परिवार के
आर्थिक अस्तित्व का सवाल खड़ा कर देती हैं। उन्हे स्वदेशी सस्ता उपाय चाहिए जो उनकी जेब के अनुरूप हो।
२। हमारी साख – देश की राजधानी,
दिल्ली में नायक को सम्मान और पुरस्कार मिलने पर गाँव वाले नायक का स्वागत करते हैं, खुशी मनाते हैं, सम्मान देते हैं। लेकिन फिर जब उस
सम्मान और पुरस्कार का कारण पता चलता है तब वापस वही पुराना तिरस्कार झेलना पड़ता
है। फिर कुछ समय बाद हमारा वह नायक उन्हीं कारणों से विश्व मंच पर सम्मानित
होता है। तब वही गाँव वाले उसे सिर आँखों पर बैठा लेते हैं। ऐसा क्यों? हमारी जनता
अपने देश द्वारा दिये गए सम्मान को उतना महत्व
क्यों नहीं देती! उसमें नुक्ताचीनी करती है! लेकिन जब
वही सम्मान पश्चिम से घूम कर आता है तब
उसे स्वीकार कर लेती है! हमारी जनता को
पश्चिमी पर ज्यादा भरोसा क्यों है? या फिर हमारी
सस्थाओं ने अपनी ही जनता का विश्वास खो दिया है? हमें अपनी जनता का विश्वास हासिल करना होगा।
३। मित्र की आवश्यकता – हमें
अपने जीवन के हर दुर्गम मोड़ पर एक सच्चे
मित्र की आवश्यकता होती है। कठिन समय में वही हमारी सहायता करता है, सही मार्ग दिखाता है। हमें कठिनाइयों से निकालता है लेकिन उसके बदले कोई
चाह नहीं होती। आध्यात्मिक भाषा में हम
उसे ही गुरु कहते हैं। चेले ने गुरु को
नहीं खोजा, गुरु ने ही चेले को खोजा। हम सत्पथ और सेवा भाव अपनाएं, गुरु अपने आप सहारा देने आ जाएंगे।
४। पढ़ें और गुनें – आज अपनी गति के कारण
हमारे पास न तो पूरा पढ़ने का समय है, न
सुनने का, न गुनने (समझने) का। आज हमारी गति के आवेग में, आवेग की ऐसी बन आयी है कि गति की सूझबूझ ही शेष रह गयी है। तेज़, और तेज़, और तेज़, आखिर भागकर
हम कहाँ पहुंचना चाहते हैं? यह हमें पता ही नहीं है। बिना
पढ़े, सुने और गुने
करने और बोलने के लिए हम व्याकुल हैं।
नायक के गाँव वालों ने नायक को मिले सम्मान और उसकी फोटो ही देखी। क्यों मिला? यह जानने की कोशिश किसी ने नहीं की। हमारा भी यही हाल है। सिर्फ
पढ़े नहीं,
बल्कि गुनें।
मैंने पढ़ा
सार्वजनिक संस्था का अर्थ है, लोगों कि स्वीकृति और धन से चलने वाली संस्था
.......(नेटाल इंडियन काँग्रेस के) कोष में लगभग
5 हजार पौंड जमा हो गये। मेरे मन में लोभ यह था कि यदि कांग्रेस का स्थाई कोश हो
जाए, तो उसके लिए जमीन ले ली जाए और उसका भाड़ा आने लगे
तो काँग्रेस निर्भय हो जाये। सार्वजनिक संस्था का यह मेरा पहला अनुभव था। मैंने
अपना विचार साथियों के सामने रखा। उन्होने उसका स्वागत किया। मकान खरीदे गए और
भाड़े पर उठा दिये गए। उनके किराये से
काँग्रेस का मासिक खर्च आसानी से चलने लगा। संपत्ति का सुदृड़ ट्रस्ट बन गया। यह
संपत्ति आज भी मौजूद है, पर अंदर-अंदर वह आपसी कलह का कारण
बन गई है और जायदाद का किराया आज अदालत में जमा होता है।
यह
दुखद घटना तो मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ने के बाद घटी, पर सार्वजनिक संस्थाओं के लिए स्थाई कोष रखने के संबंध में मेरे विचार
दक्षिण अफ्रीका में ही बदल चुके थे। अनेकानेक सार्वजनिक संस्थाओं की उत्पत्ति और
उनके प्रबंध की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद मैं इस दृड़ निर्णय पर पहूंचा हूँ कि किसी
भी सार्वजनिक संस्था को स्थाई कोष पर निर्भर रहने
का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसमें उसकी नैतिक अधोगति का बीज छिपा होता
है।
सार्वजनिक
संस्था का अर्थ है, लोगों कि स्वीकृति और लोगों के धन से चलने वाली
संस्था। ऐसी संस्था को जब लोगों कि सहायता
नहीं मिले, तो उसे जीवित रहने का अधिकार ही नहीं रहता। देखा
यह गया है कि स्थाई संपत्ति के भरोसे चलने वाली संस्था लोकमत से स्वतंत्र हो
जाती है और कितनी ही बार वह उल्टा आचरण भी करती है। हिंदुस्तान में हमें पग-पग
पर इसका अनुभव होता है। कितनी ही धार्मिक माने जाने वाली संस्थाओं के हिसाब-किताब का कोई ठिकाना ही नहीं
रहता। उनके ट्रस्टी ही उनके मालिक बन बैठे
हैं और वे किसी के प्रति उत्तरदायी भी नहीं हैं। जिस तरह प्रकृति स्वयं प्रतिदिन
उत्पन्न करती और प्रतिदिन खाती है, वैसी ही व्यवस्था
सार्वजनिक संस्थाओं की भी होनी चाहिए, इसमें मुझे कोई शंका
नहीं है। जिस संस्था को लोग मदद देने के लिए तैयार न हों, उसे सार्वजनिक संस्था के रूप में जीवित रहने का अधिकार नहीं है। प्रतिवर्ष मिलने वाला चंदा ही उन
संस्थाओं की लोकप्रियता और उनके संचालकों की प्रामाणिकता की कसौटी है, और मेरी यह राय है कि हर एक संस्था को इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए।
.......... सार्वजनिक संस्थाओं के दैनिक खर्च का आधार लोगों से मिलने वाला चंदा
ही होना चाहिए।
गांधी, आत्मकथा
धर्म का विशेषण
धर्म को मैं निर्विशेषण देखना चाहता हूँ। आज तक उसके साथ जितने भी
विशेषण लगे हैं, उन्होने मनुष्य को बांटा ही है। आज एक विशेषण रहित
धर्म की अवशयकता है, जो मानव-मानव को आपस में जोड़, यदि विशेषण ही लगाना चाहें तो उसे मानव-धर्म कह सकते है।
आचार्यतुलसी
ब्लॉग विशेष
आजाद
आदमी के अंदर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की दिलेरी होती
है। गुलाम आदमी यही दिलेरी खो चुका होता है।
प्रख्यात
फिल्म अभिनेता बलराज साहनी द्वारा १९७२ में जेएनयू के दीक्षांत समारोह में दिये गए व्याख्यान के संपादित अंश गांधी मार्ग, जुलाई-अगस्त
२०१७, पृ १२
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