शुक्रवार, 8 मई 2020

छोड़ना-पाना

छोड़ना-पाना


(गांधी मार्ग नवंबर-दिसम्बर से शोभारानी गोयल का संस्मरण)
मैं ऑफिस बस से आती जाती हूँ। उस दिन भी बस काफी देर से आई – लगभग पौन घंटे बाद। खड़े खड़े पैर दुखने लगे थे पर चलो, बस मिली तो! बस काफी भरी हुई थी। मैंने चारों तरफ नजर दौड़ाई। कहीं उम्मीद की कोई किरण नहीं थी। तभी एक मज़दूरन ने आवाज लगाई और अपनी सीट देते हुए कहा, मैडम, आप यहाँ बैठ जाइए। धन्यवाद देते हुए उसकी सीट पर बैठ कर मैंने राहत की सांस ली। और अब मैंने याद किया कि वह मजदूरन भी मेरे साथ ही बस स्टॉप पर खड़ी थी। कुछ आगे जाकर मेरे पास वाली सीट खाली हुई। मैंने उसे बैठने का इशारा किया लेकिन तब तक उसने उस महिला को सीट पर बैठा दिया जिसकी गोद में एक छोटा बच्चा था।

वह खुद भीड़ की धक्का-मुक्की सहती एक पोल (डंडा) पकड़ कर खड़ी  थी। थोड़ी देर बाद बच्चे वाली औरत अपने गंतव्य पर उतर गई। इस बार मज़दूरन ने वही सीट एक बुजुर्ग को दे दी, जो लंबे समय से खड़े थे। मुझे आश्चर्य हुआ – हम, दिन-रात, बस की सीटों के लिए लड़ते रहते हैं, और मजदूरन सीट मिलती है तो दूसरों को दे देती है!

कुछ देर बाद बुजुर्ग भी अपने स्टॉप पर उतर गए। अब वह सीट पर बैठी तो मुझ से रहा नहीं गया। मैं पूछ बैठी; तुम्हें तो सीट मिल गई थी, एक या दो बार नहीं, तीन बार, फिर भी तुमने सीट क्यों छोड़ी? तुम दिन भर ईंट-गारा ढोती हो, आराम की जरूरत तो तुम्हें भी होगी। फिर क्यों नहीं बैठी? सीट पर बैठने के इत्मीनान और जीवन का एक ठौर पा जाने के सहज विश्वास से भरी आवाज में वह बोली; मैं भी थकती हूँ। मैं आप से पहले से स्टॉप पर खड़ी थी। मेरे पैरों में भी दर्द  होने लगा था। जब मैं चढ़ी तब यही एक सीट खाली थी। लेकिन मैंने देखा कि पैरों में तकलीफ होने के कारण आप धीरे धीरे चल और चढ़ पा रही थीं। ऐसे में आप कैसे खड़ी रहतीं! इसलिए मैंने आपको सीट दी। फिर उस महिला को सीट दे दी क्योंकि वह बच्चे को उठाए हुए खड़ी थी। बच्चा बहुत देर से रो रहा था। बुजुर्ग खड़े रहते फिर मैं कैसे बैठती? सो उन्हे सीट दे दी। और उनका ढेरों आशीर्वाद लिया। कुछ देर का सफर है मैडम जी, सीट के लिए क्या लड़ना! वैसे भी सीट तो बस में  ही रह जाएगी, घर तो जाएगी नहीं। मैं ठहरी ईंट-गारा ढोनेवाली! मेरे पास क्या है – न दान देने लायक धन, न पुण्य कमाने की लियाकत! इसलिए रास्ते से कचरा हटा देती हूँ, रास्ते के पत्थर बटोर देती  हूँ, कभी कोई पौधा लगा देती हूँ और खुशी से भरी रहती हूँ। यहाँ सीट थी, तो दे दी!....यही है मेरे पास, यही करना मुझे आता है। वह एकदम स्निग्ध हंसी के साथ बस से उतर गई। मैं पता नहीं कितनी दूर तक उसके साथ चलती गई। यह भी जीने का एक तरीका है न, जिसमें छीनना नहीं, छोड़ना है। छोड़ने से पाना है।
(यह कोई विरल घटना नहीं है, होती रहती हैं। इसके ठीक उलट भी होती हैं। त्रासदी यह है कि दुर्घटना तो बयां होती हैं लेकिन सुघटना घट कर रह जाती है। वो क्या है कि, कहते हैं न, जब तक सुगंध फैलना शुरू करती है तब तक दुर्गंध पूरे बगीचे में घूम आती है।

कोलकाता मेट्रो में बुजुर्गों के लिए अलग से आरक्षित स्थान है। वहाँ बहुत बार युवा बैठ जाते हैं – आँखें बंद कर या सिर  झुका आँखें मोबाइल में ऐसे गड़ा कर जैसे कुछ और दिख ही नहीं रहा। लेकिन हाँ, कम से कम बोलने पर तुरन्त उठ जाते हैं। बहुत बार युवा महिलाएं बैठी रहती हैं। महिलाओं के लिए अलग से आरक्षित स्थान भी हैं। लेकिन ये वहीं बैठेंगी, बुजुर्गों के सीट पर, और पूरे अधिकार के साथ। उठाने से इधर-उधर झाँकने लगेंगी या बड़े अनमने ढंग से मुंह बना कर उठेंगी, जैसे की कोई बड़ा अहसान कर रही हैं और उठाने वाला पापी है। 

अभी श्री लंका से आते समय, वहाँ एयरपोर्ट पर काफी भीड़ थी। लोग ज्यादा; बैठने की जगह कम। मैं अपना सामान पकड़े, पत्नी के साथ बैठा था। तभी एक और दंपत्ति वहाँ पहुंची, पिता के गोद में एक छोटा बच्चा और पत्नी के हाथ में सामान। पिता, बैठने की जगह न पा कर दीवार के सहारे खड़ा हो गया। मेरे खड़े होने के पहले मेरी पत्नी खड़ी हो गई और पिता-पुत्र को बैठा दिया। यह देख एक अन्य सज्जन खड़े हो गए और मेरी पत्नी को बैठा दिया। यह देख, अब तीसरे सज्जन खड़े हो कर बच्चे की माँ को सीट दे दी। फूल बिखेरने से सुगंध फैलती है, कूड़ा तो दुर्गंध ही देगा।)
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