शुक्रवार, 29 मई 2020

सच्चा आनंद

एक जिज्ञासु साधक सच्चे आनंद की खोज में एक महात्मा के पास पहुंचा। उसने महात्माजी से बड़े आग्रह के साथ प्रार्थना की कि वे सच्चे आनंद पर प्रकाश डालें। महात्माजी ने अपनी सहज-शांत मुस्कान से उस दु:खी व्यक्ति की ओर देख कर कहा, “आज तो मैं बहुत अधिक व्यस्त हूँ। आज तुम जाओ, दस दिन के बाद आना, मैं कोशिश करूंगा कि तुम्हें सच्चे आनंद कि प्राप्ति हो जाये। हाँ, इन दस दिनों में तुम परिवार, समाज सबसे अलग रह कर एकांत में मौन व्रत में अपना समय बिताना।”

वह साधक सच्चे आनंद का जिज्ञासु था। उसने महात्माजी की शर्त का अक्षरश: पालन किया। वह दस दिनों तक सबसे पृथक रह कर, पूर्ण मौन रह कर, आत्म-चिंतन में लगा रहा। दस दिन के बाद जब साधक महात्माजी के पास पहुंचा, तब वह उनसे कोई जिज्ञासा करने के स्थान पर बोला, “आपकी शर्त ने मुझे आनंद-सागर में गोते लगाने का अवसर दे दिया। इतने वर्षों में मुझे जो आनंद नहीं मिला, वह मुझे इन दस दिनों में एकांतवास और मौन में मिल गया। अब मेरी कोई जिज्ञासा नहीं रह गई है।”

सच है कि मौन अवस्था में हमारी सब वृत्तियाँ मरती नहीं, वे प्राण के स्त्रोत में पहुँच कर, अंतर्मुखी होकर नव-जीवन का घूंट पीने लगती हैं। जब वे बहिर्मुखी होती हैं, तब अपने को क्षीण करती हैं; अंतर्मुखी होकर वे शक्ति और आनंद का स्त्रोत बन जाती हैं। सच है कि बोलना सीखने में समय नहीं लगता, किन्तु चुप रहना हम उम्र भर नहीं सीख पाते।
 
श्री अरविंद सोसाइटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'अग्निशिखा'

(ऑस्ट्रेलिया से वापस लौट कर जब भारत पहुंचा तब श्री अरविंद सोसाइटी से प्रकाशित पत्रिका अग्निशिखा में श्री नरेंद्र विद्यावाचस्पति का यह लेख पढ़ने को मिला। मुझे लगा जैसे यह पत्रिका बस मेरे इंतजार में ही थी, कि मैं आऊँ और इसे पढ़ूँ।
 
अभी कुछ समय पहले, जब मैं ऑस्ट्रेलिया में था। कभी-कभी किसी-किसी दिन मन बड़ा उदास हो जाता, तो कभी निराशा हावी हो जाती। कभी तनाव रहता, तो कभी चिड़चिड़ाया हुआ। कभी ध्यान भी नहीं गया कि ऐसा क्यों होता है। एक शाम शायद इसी प्रकार की किसी अवस्था में मैदान में बैठा था। बगल में बैठे पंजाब से आए एक सरदार ने शायद मेरे चहरे को पढ़ लिया, पूछा; क्या बात है। मैंने बड़े अनमने भाव से कहा पता नहीं क्यों आज मन अच्छा नहीं है। उन्होने पूछा: क्यों भारत के समाचार देखते और पढ़ते हो? बंद कर दो, उन्हे हटा दो। उनमें विचार नहीं, सत्य को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है। आरोप-प्रत्यारोप के सिवा कुछ नहीं है। सृजनात्मक कुछ नहीं मिलेगा केवल विध्वंसात्मक बातें रहती हैं। क्या सही है क्या गलत समझ पाना आसान नहीं।  उन नकारात्मक बातों को देखना और सुनना बंद करते ही, सब अवसाद समाप्त हो जाएंगे। मैंने सोचा 2-3 दिन करके देखने में क्या हर्ज़ है? मैं आश्चर्यचकित रह गया। पहले तो बड़ी बेचैनी सी रही, लेकिन मैंने अपने को काबू में रखा। मेरा मन ठीक रहने लगा। तब याद आया जब एक-डेढ़ महीना चिन्मय मिशन में या श्री अरविंद आश्रम में रहते हैं, मन बड़ा शांत रहता है। वहाँ न कोई टीवी है न पेपर। पूरी दुनिया से अलग उस छोटी सी दुनिया में आकर सब बड़े दिलवाले बन जाते हैं। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक पूरा दिन कैसे निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। न कोई दुख:, न अवसाद, न चिंता। सब बराबर हैं। साथ रहते हैं, साथ खाते हैं। वहाँ के कार्यक्रम में लगे रहते हैं। हंसी-खुशी दिन निकल जाता है। केवल सृजनात्मकता भरी रहती है। )

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