सबों को नमस्कार!
जहां भी हों, जैसे भी हों। आशा है स्वस्थ्य और प्रसन्न होंगे। ईश्वर से यही कामना है।
सच्चाई यही
है कि दुनिया भर में, कमोबेश प्राय: परिस्थिति वैसी ही चल रही है। दुनिया भर में
अब तक लगभग 44 लाख से ज्यादा लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं, 3 लाख के करीब अपनी जान गँवा चुके हैं। अमेरिका में मरने वालों की संख्या 84 हजार से ज्यादा हो चुकी है। 5 देशों में मरने वालों
की संख्या बीस हजार से ज्यादा हो चुकी है। कई देशों में संख्या में उतार-चढ़ाव हो
रहा है, यानि संख्या कम होने के बाद फिर बढ़ने लगी है। हम, सिर्फ लोगों के व्यवहार में बदलाव लाने और उसे नियंत्रण करने के तरीकों
पर ही काम कर रहे हैं। बीमारी को नियंत्रित करने का एक भी तरीका अभी तक सामने नहीं
आया है। वायरस अपनी अलग-अलग नई-नई क्षमताओं को, काबिलियत को
लगातार दिखा रहा है। पहले समझा जाता था कि यह वायरस केवल हमारे फेफड़ों पर ही
आक्रमण करता है, लेकिन जैसे-जैसे शोध आगे बढ़ रहा है हमें यह
पता चल रहा है कि यह हमारे स्नायु तंत्र, मस्तिष्क पर भी असर
कर रहा है। स्नायु तंत्र को, मस्तिष्क को नुकसान पहुँचने के
मामले बेहद चिंता के विषय हैं। यह हमारी प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यून सिस्टम) को भी प्रभावित करता है। इस
प्रकार हम देख रहे हैं कि इसकी क्षमताओं के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारियाँ
प्राप्त हो रही हैं। यह बेहद चिंता का विषय है। इस पर कार्य करने वाले शोधकर्ता और
वैज्ञानिक एक मत भी नहीं हैं और निश्चय पूर्वक कुछ भी बता पाने में असमर्थ हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि यह वायरस हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा जटिल होता जा
रहा है।
एक अच्छी
बात यह है कि इस वायरस से संक्रमित 80 प्रतिशत लोगों में कोई असर नहीं है, बीमारी के कोई संकेत नहीं दिखते हैं। यह जहां एक अच्छी बात है, वहीं एक बेहद चिंता का विषय भी है। क्योंकि ये 80 प्रतिशत लोग ही इस
बीमारी को हर कहीं पहुंचा रहे हैं। उन्हे यह पता ही नहीं होता कि वे इस रोग को
संक्रमित कर रहे हैं। यह एक बहुत ही भयंकर स्थिति है। इसका अर्थ यह है कि हमें
इन लोगों को क्वारंटाइन (quarantine) करना होगा जिनमें किसी
भी प्रकार का कोई भी लक्षण नहीं है। इन लोगों का इलाज करना होगा, यह बहुत ही मुश्किल कार्य है। ये एक प्रकार से आतंकवाद में प्रयोग किये
जाने वाले, स्लीपिंग सेल की तरह हैं जिनका प्रयोग आतंकियों ने दुनिया भर में आतंकी हमले करने में किया। न स्लीपिंग
सेल्स को और न उनके घर वालों का इस बात की जरा भी भनक थी कि इन हमलों को अंजाम
देने वाले हम या हमारे परिवार का सदस्य ही था। यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है।
क्योंकि यही और इनके परिवार वाले ही इस रोग से लड़ने वाले (कोरोना
वैरियर्स) के ऊपर हमले करते हैं।
इन्हीं के कारण से बाध्य होकर सरकार को इन्हें रोकने और सहायता कर्मचारियों की रक्षा
के लिए एक बहुत सख्त कानून लाना पड़ा।
दुनिया के
साथ-साथ भारत में भी सामाजिक और व्यक्तिगत बेचैनी बढ़ रही है। एक लम्बे समय तक
घर में बंद रहने से लोग पकने लगे हैं। आर्थिक चिंता और मानसिक दर्द से अधिकतर
लोग परेशान हो रहे हैं, चिंतित हो रहे हैं। रोज कमाने
वाले लोग ही नहीं, मानसिक कमाई करने वाले लोगों को भी नुकसान
हो रहा है। लोग इस बात को लेकर बहुत चिंतित हैं कि शायद आने वाले समय में, कुछ समय के लिए या लम्बे समय के लिए बेरोजगार हो जाएँ, उनका व्यापार घाटे में आ जाये या बन्द हो जाये। बहुत से संस्थान जैसे कि
सॉफ्टवेयर संस्थान इस बात पर विचार कर रहे हैं कि कैसे, कुछ
समय के लिए ही सही, कर्मचारियों की संख्या कम की जाये; क्योंकि अब उन्हे उनकी आवश्यकता नहीं रहेगी या अब वे उनका वेतन दे पाने की
स्थिति में नहीं हैं। कपड़ा उद्योग, फैशन उद्योग एवं अन्य कई
व्यापारों और उद्योगों की भी यही स्थिति है। इन्हें लगता है कि उनके उत्पादनों की
मांग में भारी गिरावट आयेगी। शायद पर्यावरण के शुभचिंतक खुश हैं; वे कह रहे हैं कि यह अच्छा है, वे यही चाहते थे।
हाँ, यह बात सही है कि इसकी अवश्यकता है कि लोग अपने कपड़ों, फ़ैशन की, विलासिता के सामग्रियों की आवश्यकताओं को
कम करें। लेकिन यह इसके लिए उत्सव मनाने का समय नहीं है। अभी इस प्रकार की बातें
बोलने का समय नहीं है, जब बड़ी संख्या में लोग अपनी नौकरियाँ
खोने के कगार पर हैं या खो चुके हैं। ऐसा होना चाहिए, यह सही
है, लेकिन एक सोची-समझी नीति के अनुसार, सुनियोजित तरीके से ही इसे अंजाम देना होगा। इस तरह से अमानवीय तरीके से
नहीं। इसे एक कसाई की तरह काट कर अलग
नहीं करना है, एक डॉक्टर की तरह इसका इलाज करना होगा।
एक तरफ
चुनौतियाँ कई गुना बढ़ती जा रही हैं दूसरी तरफ देश अपना धैर्य खोते जा रहे हैं। देश
लॉक डाउन को बनाये रखने की ताकत खोते जा रहे हैं। बहस लम्बी होती जा रही है। क्या
यह लॉक डाउन आवश्यक है? लोग लॉक डाउन के नियमों को ताक पर रख कर बाहर निकलने के लिए बेचैन
हैं! चलो अपने बाहर निकलते हैं! देखें यह वायरस मेरा क्या बिगाड़ लेता है? जो होगा
देखा जाएगा! इस प्रकार का साहस लोगों में भर रहा है। लेकिन हमें मालूम होना चाहिए
कि लगभग 3 लाख लोग मर चुके हैं। यह संख्या कम नहीं है। यही असली चुनौती है।
इससे कैसे
निपटा जाये। हमें अपने में बदलाव लाने ही होंगे। हम जैसे रहते हैं, जैसे कार्य करते हैं, उनमें बदलाव लाना होगा। एक
तरफ, एक के बाद एक लॉक डाउन करते जाना सम्भव नहीं दिखता। दूसरी तरफ लॉक डाउन
में राहत देना, हमें पता नहीं कहाँ ले जायेगा। लेकिन हम अभी इसी मोड़ पर हैं। हमें सब पहलुओं पर
ध्यान देना होगा, विचार करना होगा। कुछ लोग कहते हैं कि यह
मानवता को समाप्त कर सकता है, कुछ लोग कहते हैं कि यह हमें
आर्थिक रूप से तबाह कर देगा, तो कुछ लोग कहते हैं कि कुछ
नहीं होगा, हम बाहर जा सकते हैं, जो
चाहें कर सकते हैं, आर्थिक जगत को फिर से चालू कर सकते हैं।
और इस प्रकार के हजारों मत हैं और उन्हे सुनना भी महत्वपूर्ण है क्योंकि
निश्चित तौर पर कोई भी कुछ भी नहीं कह सकता। एक सही निर्णय लेने के लिये जिन
जानकारियों की आवश्यकता है वे उपलब्ध ही नहीं हैं। उनके अभाव में सही निर्णय नहीं लिया जा सकता
क्योंकि किसी के पास भी यह समझ नहीं है कि यह वायरस समाज में क्या कर सकता है
और समाज में यह कैसे आगे बढ़ सकता है? लेकिन ऐसे लोगों की
भी कमी नहीं है जिन्होने ‘कंगारू’
निर्णय लिया है और उसके पक्षधर हैं। कंगारू निर्णय, यानि केवल एक पक्ष की बात सुन कर निर्णय लेना, बिना
दूसरे पक्ष के बात सुने और उसकी चिंता किये । ऐसे निर्णय
लेने वाले लोग पूरी दुनिया में भरे हुवे हैं।
ऐसे लोग केवल एक ही बात सुनना चाहते हैं और कहते हैं कि देखते हैं कि यह
काम करता है क्या? लेकिन, हम इस तरह से
निर्णय नहीं ले सकते। बहुत से लोगों का जीवन दाँव पर लगा है। यह एक व्यक्ति या एक
देश की बात नहीं है। यह पूरी दुनिया की बात है, समस्त मानव की
बात है। हमें छोटी से छोटी बात को समझना चाहिए, उस
पर विचार करना चाहिए और एक सम्मलित निर्णय पर पहुंचना चाहिए।
हमारे देश, भारत में एक विशेष अवस्था है। बीमार पड़ने वाले लोगों में मरने वालों की संख्या
तुलनात्मक ढंग से बहुत कम है और ठीक होने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। यह बहुत
अच्छी बात है। लेकिन क्या यह स्वस्थ्य होने वालों में कोई नुकसान कर रहा है? लम्बे समय को ध्यान में रखें, तो इसका क्या प्रभाव
पड़ेगा? लम्बे समय के बाद ही इसका पता चलेगा। इसका मूल्यांकन
बाद में किया जा सकता है। लेकिन कम से कम, अभी तो हम अपने
पैरों पर खड़ा करके उन्हे वापस घर भेज रहे
हैं। यह हर्ष की बात है। एक अच्छा संकेत है। हो सकता है कि इस मामले में हम ज्यादा
लचीले हों, हमारा इम्यून सिस्टम औरों की तुलना में ज्यादा
मजबूत हो! लेकिन अभी हम यह निश्चित तौर पर नहीं कह सकते। उधर दूसरी तरफ अमेरिका
में मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। यह एक बेहद चिंता का विषय है। ऐसा क्यों
है? जबकि उन्हें चिकित्सा की सुविधा जल्द से जल्द मिल रही
है। उन्हे मिलने वाली चिकित्सकीय सुविधा हमारे देश की तुलना में कई गुना बेहतर है। फिर ऐसा क्यों है? इसकी अलग-अलग कई व्याख्याएँ की गईं। पहले तो यह कहा गया कि मरने वालों
में अधिकतर वरिष्ठ लोग हैं; लेकिन फिर आंकड़ों की जाँच-पड़ताल की
गई तो यह सही नहीं थी। 40 से 60 उम्र के लोगों के मरने वालों की संख्या भी बहुत है।
40 से कम उम्र के लोगों की भी मौत हुई है
लेकिन उनकी संख्या कम है। दूसरी व्याख्या यह है कि मरने वाले ज्यादातर लोग किसी न
किसी लत के शिकार हैं। जिन्हें कोई बुरी लत हो, उनका इम्यून
सिस्टम कमजोर होता है, अत: यह एक कारण हो सकता है। लेकिन यह
केवल एक अनुमान भर है। यह एक ऐसी चीज है जिसे वैज्ञानिक ढंग से देखने और समझने की
जरूरत है। क्या कारण है कि एक ऐसे देश में जिसमें चिकित्सा की बेहतर सुविधाएं
उपलब्ध हैं वहाँ मौतें ज्यादा हो रही हैं, बनिस्पत कि
उस देश के, जहां
चिकित्सा की वैसी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। इस पर अगर
ठीक तरह से शोध किया जाये तो शायद इस वायरस के बर्ताव करने के तरीके को समझा जा
सकता है। इस वायरस को तीन अलग अलग क़िस्मों में बांटा जा रहा है - ए, बी और सी। यह भी हो सकता है कि ये वायरस के अलग अलग किस्में हैं जिनके
कारण यह फर्क पड़ रहा हो या फिर यह लोगों के शारीरिक स्वास्थ्य की अलग-अलग स्थिति है जिसके कारण यह फर्क हो रहा है? इसका पता लगाना होगा। तब हमें यह ज्यादा समझ आयेगी कि हमें अपने आप को
कैसे संभालना है, हमें कैसे और क्या बदलाव लाने हैं।
हमें और किसे क्या करना है और क्या नहीं करना है इसकी सही समझ आयेगी।
इस स्थिति पर
आधारित रोजगारी और बेरोजगारी पर विचार करना होगा और यह देखना होगा कि इसे कैसे व्यवस्थित
किया जाये।
हमें यह सीखना होगा कि हम अपनी जीवन शैली में क्या परिवर्तन कर सकते है। लम्बे समय
से चलने वाले लॉक डाउन के कारण हमारी जीवन शैली में बहुत से परिवर्तन आ चुके हैं।
हमारे खान-पान में, रहन-सहन में, पहनावे में,
काम-काज में, अनेक बदलाव आ चुके हैं और उनके साथ-साथ जीना
सीख चुके हैं। हम उन सब के बिना जी रहे हैं, जिन्हें कुछ
समय पहले तक, आवश्यक
समझते थे। जिनके बिना हम जीवन की कल्पना तक नहीं कर पा रहे थे, वे सब हम देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं, जी रहे हैं। शायद ऐसा सभी के साथ हो रहा है। हमें यह विचार करना चाहिए
कि हम अपनी जीवन शैली को कैसे बदलें ताकि कोई बेरोजगार न हो? यानि, नौकरी से हटाने के बजाय सबों के वेतन में
कटौती करना, ताकि लोगों को निकालने के बजाय सब कोई 25 से
50 प्रतिशत तक वेतन में कटौती करें ताकि हर किसी के पास रोजगार हो। इन विशाल लोगों को दूसरे कार्यों में लगाया
जा सकता है जिसे हम नज़र अंदाज़ करते आए हैं। जैसे पर्यावरण के कार्य, नीतिगत पहलू, प्रशासन के पहलू, और ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जो होनी चाहिए थीं लेकिन नहीं की गईं, उन्हे किया जा सकता है। अभी जब बाज़ार बन्द हैं, गतिविधियां कम और धीमी हो गई हैं, इन पर ध्यान देने
का यही सही समय है। हाँ, यह बोलना जितना आसान है करना उतना
ही कठिन है। लोगों को पुनर्गठित करना, लोगों को नई दिशा
देना, लोगों को प्रशिक्षित करना,
उन्हें इन कार्यों में लगाना आसानी से होने वाला कार्य नहीं है। लेकिन हमें ये सब
करने ही होंगे नहीं तो यह परिस्थिति बहुत से लोगों के लिए निर्दयी साबित होगी
जिन्हें वायरस ने छुआ भी नहीं है।
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3 टिप्पणियां:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार(१६-०५-२०२०) को 'विडंबना' (चर्चा अंक-३७०३) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
**
अनीता सैनी
"विडंबना" में चर्चा के लिये आभार
बहुत बढ़िया
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