“दुनिया में वह क्या चीज़ है जिसे देते सब हैं लेकिन लेता कोई नहीं?”
“सलाह, दी खूब जाती है, लेता कोई भी नहीं”
हम सब एक दूसरे को सलाह देने के लिए तैयार बैठे हैं लेकिन लेने के लिए नहीं, क्योंकि हमें इस बात का अभिमान है कि ‘हम जानते हैं’। इंतिहा तो इस बात की है कि जो सलाह दी जाती है, उस पर हम खुद भी आचरण नहीं करते। कहीं आप भी ऐसे ही लोगों में हैं? सलाह देने के बजाय उस पर खुद आचरण करें, लोग आचरण देखेंगे, सलाह नहीं सुनेगें। ईमानदार बनें, यह स्वीकार करें कि हम अज्ञानी हैं, तभी कभी ज्ञानी हो सकते हैं।
पीटर डी औसपेन्स्की |
इन दोनों
को छोड़ एक बार हम थोड़ी चर्चा कर लेते हैं स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु श्री रामकृष्ण
परमहंस की। ये दोनों महान विभूतियां परिचय की मोहताज़ नहीं हैं। साथ ही हम यह भी
समझते हैं कि बिना विवेकानंद के, शायद, परमहंस
इतिहास के पन्नों से गायब हो जाते। दुनिया का रामकृष्ण परमहंस से परिचय कराने का
श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही है। ठीक ऐसे ही गुरजिएफ से दुनिया को परिचित कराने
का श्रेय उनके शिष्य पीटर डी. औसपेन्सकी को ही है।
श्री रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानंद |
एक बार
औसपेन्सकी अपने गुरु गुरजिएफ से मिलने पहुंचे। गुरु ने बेवजह उनसे कई दिनों तक
मुलाक़ात नहीं की। कुछ दिनों बाद, जब वे औसपेन्सकी से मिले तो
गुरु ने शिष्य को एक कोरा कागज़ और एक पेंसिल पकड़ा कर कहा,
“इस पन्ने के एक तरफ यह लिख दो जो तुम जानते हो और दूसरी तरफ जो तुम नहीं जानते
हो”। इसके साथ ही उन्होंने उसे यह भी बताया कि वे ऐसा इसलिए चाहते हैं क्योंकि जिन
विषयों की उसे जानकारी है उसकी चर्चा नहीं करनी है क्योंकि उन्हें तो वह जानता ही
है, अत: जिन विषयों के बारे में उसे जानकरी नहीं है केवल उसी
की चर्चा करेंगे। औसपेन्सकी ने कागज़ और पेंसिल ले ली और विचार किया कि पहले वह
लिखा जाये, जिसकी उन्हें जानकारी है। लेकिन यह क्या, वे घंटों बैठे रह गए, सर्द रात में भी पसीने से भीग
गए, आसमान देखते रहे लेकिन कुछ भी विषय नहीं लिख पाये। किसी
भी बात का ख्याल आता, जिस पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी थी, व्याख्यान दिये थे, जिसे मनीषीजन भी पागलों की तरह
उन्हें घेरे रहते थे, उसके बारे में भी उन्हें लगा कि वे ‘नहीं जानते’ हैं। आखिर उन्होने गुरु को कोरा पन्ना
ही लौटा दिया। गुरु ने देखा तो बड़े आश्चर्य से पूछा, “क्या
बात है? तुम्हारी तो बड़ी धूम है, अनेक
पुस्तक और ग्रन्थ तुमने लिखे हैं, फिर यह खाली पन्ना क्यों?” औसपेन्स्की कोई जवाब नहीं दे पाये, सिर्फ इतना ही
कहा, “मैं अज्ञानी हूँ, यहीं से बात शुरू
करें”। तब गुरु ने कहा, “यह अच्छी बात है। मैं यही समझ रहा
था कि तुम्हें अपने ज्ञान का कितना अभिमान है। अगर ज्ञान का कोई अभिमान नहीं
हैं, अगर यह मानते हो कि अज्ञानी हो, तब चर्चा हो सकती है”।
जॉर्ज गुरजिएफ |
- मधुसंचय
से प्रेरित
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