स्टीफन कोवे का नाम आपने जरूर सुना होगा। जी हाँ, अपनी पुस्तक “द ७ हैबिट्स ऑफ हाइली इफेक्टिव पीपल” के लेखक। इस पुस्तक की करोड़ों प्रतियाँ बिकीं। लेखक ने इस पुस्तक में तरक्की करने के गुर बताए हैं।
कितने लोगों की जिंदगी में इसके कारण बदलाव आया इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन स्टीफन की जिंदगी बदल गई। इस पुस्तक के दशकों पहले किसी ने ‘७ सामाजिक पाप’ की चर्चा करते हुए लिखा कि हर मनुष्य को, संस्था को इन ७ पापों से बचना चाहिए। ये भी तरक्की के ही उपाय थे। उन्हों ने जिन ७ पापों से बचने के लिए कहा था वे थीं:
१। सिद्धान्त के बिना राजनीति
राजनीति से मिली शक्ति के द्वारा जनता का सर्वांगीण विकास
किया जाना चाहिए। बिना सिद्धान्त की राजनीति में राजनीतिज्ञ और बड़े व्यापारियों के
मध्य एक अनौपचारिक गठबन्धन और समझौता होता है जो उनके आपसी विकास और सुरक्षा का ही
ध्यान रखता है। इससे निर्बल और गरीब जनता की
अनदेखी होती है।
२। कर्म के बिना धन
बिना मेहनत के आये हुए धन को स्वीकार नहीं करना। भ्रष्टाचार
तथा अनुचित कार्यों से कमाया धन इसी श्रेणी में आता है। बिना कर्म के धन एकत्रित
करने की होड़ में ही अनैतिकता का जन्म होता
है।
३। आत्मा के बिना सुख
दूसरों को दुख देकर पाया गया सुख पाप है। आंतरिक अनुशासन से
आती आवाज के अभाव में प्राप्त सुख सिर्फ भोग-वासना है।
४। चरित्र के बिना ज्ञान
बिना चरित्र के ज्ञान भी पाप की ही कोटी में गिना जाता है
और कलंक का भागी होता है। व्यापारिक संस्थानों द्वारा मानवीय ज्ञान (ह्यूमेन
कोटेंट) के बदले बौद्धिक ज्ञान (इंटेलिजेंस कोटेंट) को दी जाने वाली प्राथमिकता का
ही यह नतीजा है कि मानवीय चरित्र का ह्वास हुआ है और शिक्षा संस्थानों में भी उसे
ही प्राथमिकता दी जाने लगी है। फलस्वरूप ऐसी संस्थानों ने रुपये बनाने की मशीनों
का ज्यादा निर्माण किया है, मानवों का कम।
५। नैतिकता के बिना व्यापार
आवश्यकता से अधिक नफा लेने वाला दुकानदार अगर किसी ग्राहक
के छूटे समान को वापस भी करता है तो वह नीतिवान की श्रेणी में नहीं आता। जमाखोरी, डकैती का ही प्रारूप है। निजी और व्यापारिक
नैतिकता अलग अलग नहीं हैं। नैतिकता का त्याग कर व्यापार करने की नीयत में ही
भ्रष्टाचार पनपता है।
६। मानवीयता के बिना विज्ञान
मानवता को नजरंदाज करने वाला विज्ञान भी राक्षसी ज्ञान ही
है। विज्ञान का प्रयोग अमीरों के बजाय गरीबों की ‘सुविधा के लिए निर्माण’ का दृष्टिकोण
ही मानवीय दृष्टिकोण है। ध्येय ‘मानव के लिए मशीन’ (मशीन टु बी फिट फॉर मैन) होना चाहिए ‘मशीन के लिए
मानव’ (मैन टु बी फिट फॉर मशीन) नहीं। शिक्षण संस्थाओं को भी
यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
७। त्याग के बिना पूजा
त्याग, पूजा का अभिजात्य अंग है। बिना त्याग के पूजा कर्मकांड ही है। पूजा का
उद्देश्य एक ही है – सब का उत्थान यानि सर्वोदय।
सरकार द्वारा प्रचारित ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ भी एक छलावा ही है। कई बार देखा गया है कि ‘दान-धर्म’ देने वाले व्यापारिक संगठन इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि इस मद में
उनके द्वारा खर्च किया गया रुपया किस तरह उनके हित में ही हो। जब कभी, जहां कहीं उनके मुनाफे और त्याग का आमना सामना हुआ है ‘त्याग’ का ही ‘त्याग’ किया गया है। एक बहुत बड़ी बहुराष्ट्रीय
संस्था ने, जिसकी एक वैसी ही बहुराष्ट्रीय लोकोपकारी
(फिलन्थ्रोफिक) सहयोगी संस्था भी है, अपने उत्पादन के लिए
जमीन से बड़ी मात्रा में पानी निकालना प्रारम्भ किया। जिसके फलस्वरूप 17 जिलों में
पानी की कमी होने लगी और अकाल के लक्षण दिखने लगे। जब उन जिलों की निगम ने उनका
ध्यान इस तरफ खींचा तब संस्थान ने निगम से साथ मिलकर कार्य करने का ही ‘त्याग’ किया
और कानूनी कार्यवाही कर निगम को रोकने को
ही अपना फर्ज़ समझा।
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