आज सुबह
बैठे-बैठे अचानक बचपन की यादों में खो गया। बचपन को याद करना अपने-आप में एक सुखद
अनुभूति है, तन बदन में एक ठंडक पहुँचती है। बंद आँखों के सामने एक चलचित्र की भांति
घटनाएँ आती-जाती रहीं, बरबस चेहरे पे मुस्कुराहट झलक पड़ी और मन-मिजाज
तरो-ताजा हो गया। बीते हुए दिन तो वापस
नहीं आते लेकिन उन दिनों की मधुर यादों में खो जाने से कौन रोकता है! यादें तो
बहुत हैं, लेकिन अभी याद आ रही है अपने वार्षिक त्यौहारों की, जिसे उत्सव के रूप में मनाया करते थे। बहाना बनाने वालों का तो भगवान भी कुछ
नहीं कर सकता। उन्हें हर काम में कोई-न-कोई बहाना निकाल लेना होता है। तब, आज की तरह नहीं था कि ‘सुविधा’ के अनुसार जो कर सके वो किया बाकी में कुरुतियां-दोष निकालते रहे। त्यौहार
नहीं मनाना है, केवल खानापूर्ती करनी है। यह नहीं मानते थे
कि कर्मकांड ढकोसला है, ‘उत्सव’ असभ्यता है, पर्यावरण को क्षति पहुँचती है और
स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। और कुछ नहीं बस बुराइयां ढूँढना और न मनाने
के तर्क देना। किसको फुर्सत है मर्म को
समझने की? नारियल का खोल देख कर फेंक दिया, उसके अंदर क्या है, क्या मालूम? अनबूझ अच्छाइयों पर बुराइयाँ हावी होती चली गई और उत्सव मनाने की समृद्ध परम्परा
छोड़ते चले गए और केवल छिलके और ढकोसलों को पकड़े रखा। हमें लुभाने लगे पाश्चात्य
सभ्यताएं और त्यौहार। बाजार ने भी उनका ही साथ दिया, क्योंकि
हमारे त्यौहार कहते हैं ‘घर’ की बनी
सामग्री का ही प्रयोग करें, परिवार के साथ घर पर मनाएँ, और उतने ही पाँव पसारिये जितनी चादर
होय। परिवार के साथ मनाने से अनेक सीमाएँ भी आ जाती है। भला बाजार को यह कैसे भला
लगे? उसे तो चाहिए स्वच्छंदता, बाजार
पर आश्रय, ज्यादा से ज्यादा खर्च। हाथ में नोट नहीं है तो
प्लास्टिक से भुगतान कर कल की चीज आज लायेँ। बाजार तो चाहता ही है कि आप हैसियत से ज्यादा खरीददारी
कर उसके चंगुल में बनें रहें। इस धमाचौकड़ी
में उत्सव का अपनापन नदारद हो गया, रह गया केवल दिखावा और
प्रतिद्वंदिता। आज हम तरसते हैं अपनेपन को, लेकिन ढूंढ नहीं
पाते। होली-दिवाली-राखी त्यौहार नहीं हमारे पारिवारिक-सामाजिक उत्सव हुआ करते थे।
इनमें हम केवल अपने घर-परिवार ही नहीं बल्कि मुहल्ले,
पास-पड़ोसियों और दूर के रिश्तेदारों के साथ एक जुट होकर आनंद लेते थे और खुशियाँ बांटते
थे।
होली और छारंडी – पहला दिन पूजा का और दूसरा रंग के उत्सव का। होली की रात विशेष रसोई बनती, पूरा घर साथ-साथ बैठ कर भोजन करता और फिर पूजा। इसके पहले, गाय का गोबर इकठ्ठा किया जाता, तरह तरह के बड़कुल्ले बनते। ग्वाला खुद गोबर पहुंचा जाता या किसी को भेज कर गौशाला से गोबर मंगा लेते थे। बाद के समयों में गोबर खरीदने की नौबत आ गई, मिलना बंद हो गया। और बाद में तो बनाने का रिवाज ही उठ गया। बने बनाए खरीद कर बाजार से लाने लगे। आज के पढ़े-लिखे लोगों को इसमें अ-सभ्यता और गंवारपन नजर आता होगा। लेकिन इसके पीछे गाय को दिया जाने वाला सम्मान, उपले बननेवाली महिलाओं का सम्मान और साथ-साथ मिलकर काम करने की प्रवृत्ति के अलावा एक दूसरे के उत्सवों में सहयोग की खुशबू आती थी। जहां गन्ने की खेती होती थी, किसान बिना मूल्य के गन्ना पकड़ा जाता था। इस वर्ष दुबली-पतली छोटी सी एक ईख एक सौ रुपए तक में बिकती हुई मैंने देखी है। सहयोग तो बहुत दूर की बात रही यह तो धंधा भी नहीं लूट है जिसे हम पूरी बेशर्मी अमानवीय ढंग से करते हैं, बाजार उसका समर्थन भी करता है। इसमें से गायब होता अपनापन, भाईचारा और सौहार्द नहीं दिखता। किसी का त्यौहार किसी की डकैती। इसके लिये कौन जिम्मेदार है? होली या हम? खैर, भोजन के बाद मुहूर्त के समय घर पर पूजा करने के बाद सड़क पर मंदिर किनारे ‘होलिका-दहन’ में पूरा घर ही नहीं बल्कि पास पड़ोस से सब एक साथ जयकारा लगाते हुए जाते, वहाँ सबों से मिलते, पूजा कर वापस आ जाते। फिर दूसरे दिन रंग। रंगों का इंतजाम तो पहले ही कर लिया जाता था। रंगो के अलावा, गुलाल और घर में बने टेसुओं के फूलों का सुगंधित रंग भी प्रयोग होता था। मकान नहीं बल्कि पूरा मुहल्ला एक साथ रंग खेलता था। हाँ, उस समय भी कुछ लोग, घर के बड़े-बूढ़े रंग से बचते थे, लेकिन बच्चे-नवजवान तो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। रंग खेलने का काम केवल अपने घर और मुहल्ले तक ही सीमित नहीं रहता था। मुझे अच्छी तरह से याद है हम अपने पिता के साथ शहर के दूर दराज जगहों पर रहने वाले अपने रिश्तेदारों के घरों पर भी जाया करते थे, और हर घर से लोग जुड़ते चले जाते थे। अपने परिवार के अन्य सदस्यों के घर, ससुरालों में, मित्रों के घर जाने का दस्तूर भी बहुत ही आम था। केवल रंग खेलना नहीं, हंसी-मजाक, खाना-पीना-गाना सब होता था। पूरे परिवर, मुहल्ले और परिचितों के बीच एक अटूट रिश्ता बनता, नए सदस्यों से परिचय होता। अब न तो हमें पड़ोसियों का पता है न ही रिश्तेदारों को पहचानते हैं। मामा-मामी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भूवा-फूफा, मौसा-मौसी, ननद-ननदोई सब गायब होते जा रहे हैं। बचे हैं केवल अंकल और आंटी। हाँ, कई खराबियाँ भी थीं लेकिन उन खराबियों को छोड़ने की हमने क्या कीमत चुकाई, इसका आकलन कौन करेगा? कंकड़ नहीं निकाल सके तो पूरा अन्न ही फेंक दिये! हमारे अन्न में से कंकड़ कौन निकलेगा – सरकार, अंग्रेज़, विदेशी, ऑक्सफोर्ड या हारवर्ड? किसका मुंह जोह रहे हैं हम?
वैसे ही राखी में केवल अपनी ही बहन नहीं बल्कि परिवार की हर बहन के घर जाना और कलाई से लेकर कंधे तक राखी बन्धवाना याद आता है। राखी बन्धवाने सुबह निकलते थे तो लौटते लौटते शाम हो जाती थी। बहन के यहाँ पहुंते थे तो पता चलता कि घर से फोन आया था। बताया जाता, कुछ और घरों में भी जाना है क्योंकि उनके यहाँ से भाई आया था बहन से राखी बन्धवा कर गया है। अब हमें भी उसकी बहन के जा कर राखी बंधवानी है। कई बार तो यह राखी बन्धवाने का काम कई दिनों तक चलता था। आज की तरह न तो दिखावा था न ही महंगे उपहारों से एक दूसरे की पॉकेट तौली जाती थी। न जाने कब कहाँ से इन उमंगों को बाजार की नजर लग गई। धन के अन्धा-धुन्ध प्रदर्शन के अलावा पिछले कई वर्षों में तो इसका राजनीतिक संस्करण भी दिखने लगा है। हमारे सामाजिक रीति-रिवाजों, उत्सवों में भी राजनीति?
और दिवाली! दिवाली के पहले से ही, उसके इंतजार में पैरों में घुंघरू बन्ध जाते थे और मन बल्लियों उछलने लगता था। दिवाली की बधाई और मंगल-कामना के पत्रों के लिए पूरी तालिका तैयार करना, बधाई का मजमून तैयार करना, छपवाना, पते लिखना अपने आप में एक उत्सव होता था। इस बहाने देश के किन किन शहरों में अपने कौन कौन से रिश्तेदार रहते हैं इसकी जानकारी तो होती ही थी साथ ही साथ पता – ठिकाना भी दुरुस्त कर लिया जाता था। दिवाली की रात खुद अपने हाथों से और अपनी निगरानी में दीपकों से घर को जगमगाना, सजाना, साथ साथ भोजन करना और फिर पूजा करना। रौशनीदार पटाखे और धमाकेदार बम का बोल बाला रहता था। हाँ इसके नुकसान हैं। लेकिन हमें क्या केवल मिटाना ही आता है? कुछ मिटाया तो क्या कुछ बनाया भी? अगर बना नहीं सकते तो मिटा कैसे सकते हैं? दूसरे दिन अड़ोस-पड़ोस, पास-दूर के रिश्तेदारों के घर जाना और उनसे आशीर्वाद लेने में पूरा दिन निकल जाता। यह काम भी कई बार कई दिनों तक चलता।
अपने इन उत्सवों के माध्यम से हम अपने सम्बन्धों का बार-बार नवीनीकरण करते, नए पड़ोसियों और रिश्तेदरों से परिचय होता और हमारे सम्बन्ध प्रगाड़ होते। किसने इन सबको हमसे छीन लिया? कब कहाँ हम इन सब को खो बैठे और इस संसार में अपने आप को अकेला करते चले गये। स्वार्थ और मजबूरी की बहुत बड़ी दुनिया हमने इर्द गिर्द जमा कर ली और प्रेम-आनंद की दुनिया बिसारते चले गये।
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