(हम आनंद के पीछे ताउम्र भागते रहते हैं लेकिन वह हाथ नहीं आता। आते-आते फिसल कर फिर दूर हो जाता है। डॉ.विजय अग्रवाल लिखते हैं कि दरअसल आनंद पाने में नहीं है बल्कि पाने के अरमानों में हैं। वे मानते हैं कि हम एक बार नादान बन कर देखें, दुनिया बदल जाएगी, नजरिया बदल जायेगा, जीने की इच्छा तीव्र हो जायेगी। प्रस्तुत उद्धरण उनके लिखे एक लेख ‘एक बार नादान बन के देखो’ से है। )
शादी से पहले लड़के-लड़की एक दूसरे के बारे में थोड़ा बहुत नहीं बल्कि सब कुछ जान लेना चाहते हैं। ऐसे ज्योतिष मौजूद हैं, जो आपको आपकी जिंदगी का पूरा चार्ट तैयार करके दे देते हैं। नौकरी जॉयन करने पर अपने कैरियर के अंत को जान लेते हैं। इसके बाद भी यदि जानने को कुछ बचा रह जाता है तो उसे भी जान लेने की कोशिश जारी रहती है।
पति-पत्नी थे। साथ रहते-रहते कई साल बीत गए। जिंदगी ठीक-ठाक चल रही थी। घर-गाड़ी सब कुछ था। बच्चे सैटल हो गए थे। ज़िम्मेदारी कुछ बची नहीं थी। चिंता भी कुछ नहीं थी, लेकिन पता नहीं क्या था कि इस सबके बावजूद जिंदगी में कुछ मजा नहीं आ रहा था। लग रहा था कि सब कुछ तो है, लेकिन रस नहीं है। एक दिन अचानक अल-सुबह ही पति की नींद टूट गई। वह गहरी नींद में सोई अपनी पत्नी को उठाने से स्वयं को रोक नहीं सका। उसने अपनी पत्नी को झकझोर कर उठाया और उसकी ओर देखते हुए गुनगुनाने लगा, ‘चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों’। उसे अपनी समस्या का हल मिल गया – ‘नोन को अननोन में बदलने की युक्ति’। साथ रहते-रहते बहुत कुछ जान लिया है एक दूसरे को। अब जानने को कुछ बचा ही नहीं है, तो फिर जीने के लिये भी कहाँ कुछ बच जाता है, इसलिए हे पत्नी! चलो कुछ ऐसा करते हैं कि एक बार फिर से हम एक-दूसरे के लिए वैसे ही अजनबी बन जाते हैं, नये बन जाते हैं, जैसे कि पहले थे। इसके बाद फिर से अननोन से नोन की यात्रा शुरू करेंगे। इससे ज़िंदगी खुशनुमा हो जाएगी तथा अधिक सार्थक भी। हमलोग खुशकिस्मत हैं कि हम लोगों कि यह यात्रा जारी है, कभी भी पूरी न होने वाली एक खुशनुमा यात्रा। ...
...यानि कि आनंद पाने में नहीं, बल्कि पाने की कल्पना करने में है। कला और साहित्य में आनंद क्यों आता है? अँग्रेजी में इसे ‘बिटवीन द लाइंस’ के जरिये बताया गया है। आनंद वहाँ नहीं है, जो लिखा गया है, बल्कि वह लिखी गई उन दोनों लाइनों के बीच में है, जो लिखी नहीं गई हैं। यानि कि जो अदृश्य हैं, अननोन हैं। इस खाली स्थान को आपको भरना है। आप इस ब्लैंक स्पेस के किंग हैं, क्रिएटर हैं। जो भी मन में आए आपके, भर लीजिये आप यहाँ वही सब। ... यदि यह बात कला पर लागू हो सकती है तो जीवन पर लागू क्यों नहीं हो सकती? आखिर जीवन जीना भी तो एक कला ही है।
महान साहित्यकार एवं साहित्य जगत में जादुई यथार्थवाद के प्रवर्तक गार्सिया मारखेज़ ने एक जबर्दस्त उपन्यास लिखा था ‘ए हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’। हॉलीवुड वालों ने इस पर फिल्म बनाने के लिए करोड़ों
डॉलर देने चाहे पर लेखक ने मना कर दिया। क्यों? उनका उत्तर था कि, ‘अब तक
लाखों पाठकों के दिमाग में मेरे पात्रों के चित्र काफी हैं,
जो उन्होंने पढ़कर बनाए हैं। लेकिन यदि आप सिनेमा में उसे देखेंगे तो उसमें जो अस्पष्टता
(एम्बिग्युटी) है, चित्र की जो विविधता (मल्टीप्लीसिटी) है, उसकी जो गहनता है, उसे आप एक छोटे-से बिम्ब में
रिड्यूस करते हैं। मैं चाहता हूँ कि करोड़ों लोगों के मन में मेरे उपन्यासों के
चरित्र के बारे में करोड़ों किस्म के जो चित्र बने हुए हैं,
वे बने रहें। मैं नहीं चाहता कि वे हॉलीवुड के बिंबों (इमेज) के साथ स्थिर
(स्टेटिक) या जड़ (फ्रीज़) हो जाएँ। मारखेज ने अपने पाठकों कि स्वतन्त्रता और
रचनात्मकता की रक्षा के लिए करोड़ों डॉलर ठुकरा दिये ताकि उनके पाठक ‘अज्ञात की यात्रा’ करने का आनंद ले सकें। हम लोग भाग्यशाली हैं कि हम सबके दिमाग में अपने-अपने राम और सीता की
तस्वीरे हैं। आज की पीढ़ी के दिमाग में राम के रूप में अरुण गोविल और सीता के रूप
में दीपिका चिखालिया हैं। उनके न तो अपने राम हैं न ही अपनी सीता। गार्सिया मारखेज
... अज्ञात के प्रति उत्सुकता की भावना ही हमारी जिंदगी में उत्साह और उमंग लाती है, हमें प्रेरित करती है, हममें रस पैदा करती है, और हमारे अंदर सौंदर्य की एक अलौकिक चेतना भी जागृत करती है। ...
...कुल मिलाकर हम सभी अपने प्रिय लोगों के जीवन के एक कोने को अनजान ही बने रहने दें तो बेहतर होगा – जीने के लिए भी, आनंद के लिए भी और कुछ अद्भुत पाने के लिए भी। ...
(क्या
आपको ऐसा नहीं लगता है कि यही कारण है कि आज सरपराइज़ पार्टी, अनजाना पत्र-पार्सल, अनजाने
का फोन हमें ज्यादा आनंद, खुशी देता है और नई चेतना जागृत
करता है।)
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