बड़ी मुश्किल है मेरे साथ। लेकिन अब क्या करूँ, मेरे कुछ समझ नहीं आता। मेरी बुद्धि, दिमाग तो बस ऐसे ही चलता है। जब कोई गाय कहता है तो मेरे आँखों के सामने एक चितकबरी रंग की कूबड़ वाली, दूधारू गाय का चित्र बन जाता है लेकिन जब ‘काऊ’ कहता है तब काले धब्बे वाली सफ़ेद रंग की सपाट पीठ वाली काऊ का चित्र आता है। मुझे दोनों में साफ फर्क नज़र आता है। मैं कहता हूँ कि नहीं गाय काऊ नहीं है लेकिन पूरी दुनिया कहती थी गाय माने काऊ, और अब कहती है काऊ माने गाय। मैं कहता हूँ कि नहीं दोनों अलग-अलग हैं एक नहीं है, लेकिन कोई कान नहीं देता।
अरे भाई मैं तो मान ही रहा हूँ कि मैं गलत हूँ, लेकिन जैसे आपको मेरी बात समझ नहीं आ रही है वैसे ही मुझे आपकी बात समझ नहीं आती। लेकिन मैं यही कहता हूँ कि आप ही सही हैं, मुझ में समझ की कमी है, या यह भी कह सकते हैं कि मैं सठिया गया हूँ। न न न न, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं सचमुच सठिया गया हूँ। अब जन्मदिन और बर्थडे को ही ले लीजिये। आप फिर कहेंगे, दोनों एक ही है, लेकिन मैं फिर........। जन्मदिन कहते हैं तो मेरे सामने लंबी, नुकीली, रंग-बिरंगी टोपी पहने खेलते-कूदते बच्चे, मंदिर-प्रसाद, जलता दिया, माँ-बाप, परिवार नजर आता है, लेकिन जब बर्थडे कहते हैं तो केक, चक्कू, बुझी मोमबत्ती, दोस्तों का हुजूम नजर आता है। हाँ यह मेरा ही दोष है, मेरी आँखों का, या समझ का, या कोई बीमारी, मुझे पता नहीं। क्या आपको पता है? क्या आप इसे ठीक कर सकते हैं?
ठीक ऐसे ही सालगिरह के नाम पर भारतीय लिबास में हाथ जोड़े कोई जोड़ा नज़र आता है, साथ में पूरा घर-परिवार, रिश्तेदार हैं। लेकिन ‘ऐनिवरसरी’ कहने पर सूटेड-बूटेड पुरुष-महिला नजर आती है। एक में लोगों से, ईश्वर से आशीर्वाद और शुभेच्छा लेता, दीपक जलाता जोड़ा नजर आता है और दूसरे में हाथ में गिलास थामे झूमते-थिरकते पुरुष-नारी दिखते हैं। दोस्तों और ऑफिस के लोगों से भरा-पूरा है, रिश्तेदार कहीं किसी कोने में बैठे-खड़े दिख जाते हैं। अभी किसी ने मुझे बताया, मेरा दिमाग ठीक है बस चश्मा पुराना हो गया है, उसे बदली करने की जरूरत है। मैं कई बार अपना चश्मा भी बदली करवा चुका हूँ, लेकिन ढाक के वही तीन पात। बड़ा परेशान हूँ, क्या करूँ?
अभी कुछ
समय पहले की बात है। हम कई लोग एक साथ बैठे चर्चा कर रहे थे। अवसर था किसी परिचित
के 80 वर्ष की आयु के उत्सव का। बात चीत के दौरान किसी ने ‘सहस्त्रचंद्रदर्शन’ की चर्चा कर दी। लोगों ने ध्यान नहीं दिया, किसी को शब्द समझ नहीं आया। लेकिन मेरे कान खड़े हो गए, जिस तरह कहीं कोई खुड़का होने से कुत्ते के कान खड़े होते हैं। मैंने महोदय
से पूछ लिया, ‘क्या क्या क्या.....
क्या कहा अपने’? इस बार उन्होंने धीरे-धीरे कहा ‘सहस्त्र चंद्र दर्शन’। शब्द सरल था, शाब्दिक अर्थ तुरंत समझ गया। मैंने पढ़ा है ‘जीवेम
शरद: शतम’ यानि जीवन के एक सौ शरद ऋतु, शरद वर्ष में एक बार आता है यानि एक सौ वर्ष। एक सौ वर्ष की आयु की कामना
की प्रार्थना। मुझे लगा कि सहस्त्र चंद्र दर्शन का भी ऐसा ही कोई अर्थ होना चाहिए। खुजली शुरू हो
गई थी, अतः मैंने पूछ लिया। सौभाग्य से बाकी लोग भी उत्सुक
थे, अतः बस पूरी चर्चा इसी तरफ मुड़ गई।
चंद्र
दर्शन तो पूर्णिमा के दिन ही हो सकता है,
क्योंकि उसी दिन चंद्र अपने पूर्ण स्वरूप में होता है। अतः सबसे पहला प्रश्न तो
यही था कि इसकी गणना तो बड़ी कठिन है! पता चला कि गणना उतनी कठिन नहीं है, जितनी प्रतीत होती है। आज ये गणना बड़े वैज्ञानिक-वेधशाला करते हैं, ‘डेटा’ कम्प्युटर में डालते
हैं, और वही बताता है भाई, मोटे रुपये
तो लगते ही हैं। अरे, 100 वर्षों की गणना है कोई हंसी मज़ाक
थोड़े ही है। एक दम सटीक, विश्वसनीय। हमारे यहाँ तो यह गणना
मिनटों में सड़क के किनारे का पंडित भी पंचांग देख कर लेता है – दिन,घंटे, मिनट ही नहीं सेकेंड्स तक की सटीक गणना। कुछ
खुचरे पैसों में हो जाती है। लेकिन अब हम उसे अनपढ़-गंवार समझते हैं। उसका क्या
भरोसा! और फिर खर्च ज्यादा हो तभी तो विश्वसनीय लगता है, तभी
मजा ज्यादा आता है, कहते हैं जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा
होगा। बिना गुड़ डाले कहीं मिठास आती है?
किसी समय
हमारी औसत आयु 60 वर्ष ही थी। अत: उम्र से संबन्धित समारोहों और अनुष्ठान का आयोजन
50वें वर्ष से प्रारम्भ हो जाता था। इन अनुष्ठानों के आयोजन का उद्देश्य स्वास्थ्य,
सुख, शांति और लंबी आयु की कामना और साथ ही ईश्वर का, बड़ों का आशीर्वाद लेने हेतु होता था। उसके पश्चात हर पाँच वर्ष पर इस
प्रकार के आयोजन हुआ करते थे और इन सबों का अलग-अलग विधान था, अलग-अलग अनुष्ठान और अलग-अलग नाम। रजत, स्वर्ण, हीरक और शताब्दी का आगमन तो कई शताब्दियों बाद अंग्रेजों के आगमन के बाद हुआ।
देश के अलग-अलग हिस्सों में इनके नाम भी अलग-अलग हैं और अनुष्ठान में भी थोड़ा
बदलाव है। 55 वर्ष की आयु पर वरुण, 60 पर उग्ररथ (कई
प्रान्तों में इसे षष्ठी पूर्ति भी कहा जाता था), 65 पर
मृत्युंजय, 70 पर भौंरथी, 75 पर ऐंद्रि, 80वें पर यह स्वीकार किया जाता था कि सहस्त्र चंद्र (एक हजार चंद्र) के दर्शन हो गए, 85 पर रौद्री, 80 पर कालस्वरूप, 95 पर त्र्यंबक और 100 पर त्र्यंबक-महामृत्यंजय शांति का अनुष्ठान होता
था। परिवार जमा होता था, पूजा-हवन और भोज का आयोजन होता था।
सहस्त्र चंद्र के साथ और एक अनुष्ठान प्रचलित था
– सहस्त्र पूर्ण-चंद्र दर्शन। पुर्णिमा को होने वाले चंद्र-ग्रहण को बाद दे दिया
जाता था, क्योंकि उस दिन ‘पूर्ण’ नहीं होता, और इसकी भी गणना आसानी से कर ली जाती
थी।
विचारणीय
है कि केवल चंद्रमा को ही क्यों? सूर्य क्यों
नहीं?
क्योंकि चंद्रमा हमारी भावनाओं को प्रभावित करता है।
60 के बाद व्यक्ति वंचित,
अकेला और दूसरों के लिए अनुपयोगी होने लगता है। वह घबरा
जाता है और संदेह करता है कि लोग उससे बच रहे हैं। साथ ही उच्च रक्तचाप और मधुमेह
उस पर हमला करते हैं। इसलिए, उसे यह महसूस कराते
हैं कि वह अभी भी हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। फिर 80 साल सहन करने के लिए बहुत
अधिक है। यहां तक कि उनके बच्चे भी बूढ़े हैं, इसलिए यह सबसे जरूरी बात है कि हमें उन्हें खुश करना चाहिए क्योंकि वे जीने का
प्रबंधन कर सकते हैं, 80
वर्ष की आयु लंबी आयु है। इसलिए, यह सहस्त्र चंद्र समारोह महत्वपूर्ण है। हमें उनकी खुशी और भावना के लिए जश्न
मनाना चाहिए कि वे अभी भी उपयोगी हैं, हमारे द्वारा वांछित हैं, लांछित नहीं।
इस उम्र में उनके साथी भी स्वर्ग-निवास के लिए जा चुके होते हैं। इसलिए, वे वास्तव में अकेलापन महसूस करते हैं। उन्हें प्यार-स्नेह
की जरूरत है, जिसे वे हमें देते रहे हैं। हमें तो बस
उनका दिया हुआ ही वापस लौटाना है। उनका हाथ माथे पर रखें और देखें कि वे कैसे सुखी
और शांत महसूस करते हैं।
दूसरों की
नकल करने के बजाय इस घटना को उनकी भावना के अनुसार करें और देखें कि वे कैसे
संघर्ष करते हैं, मुस्कुराते हैं और आपको आशीर्वाद देते हैं।
आज हम यह भूल कर रजत, स्वर्ण, हीरक
जयंतियाँ मना रहे हैं, मनमाने ढंग से। कम-से-कम दीपक
बुझाने के बदले दीपक जलाएं, जीवन में अंधकार न
कर उसे रौशन करें।
दूसरों की संस्कृति जानना–उनका आदर
करना ही चाहिए, लेकिन अपनी संस्कृति को भूलना, कष्ट दायक है। अपना वजूद बचाएं, अपनी संस्कृति
अपनाएं।
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