शपथ – पूर्वजों के पाप के प्रयाश्चित की
मैंने अभी
अभी यह पढ़ा। मुझे लगा मैं इसे आप सबों के साथ साझा करूँ। कमलेश्वर की कहानी ‘अपने देश में....’ से लिए गए दो छोटे छोटे संवाद हैं। इनके आगे
पीछे क्या है इसका महत्व नहीं है, महत्व केवल इन संवादों का ही
है। लेखक ने पूरी कहानी शायद केवल इन संवादों के लिए ही लिखी होगी।
पहला
“मैं अपने
देश में सो नहीं पाता!”, माइक ने कहा।
मैं उसकी
इस दार्शनिक सी बात को समझ नहीं पाया। ‘मतलब’? मैंने पूछा।
‘यही कि मेरी आत्मा
पर एक बोझ है...... क्योंकि मेरे देश ने सारा धन और सम्पदा अफ्रीका के बेल्जियन
कांगो और कटांगा से कमाई है ..... कमाई नहीं लूटी है .... वहाँ सोने
और ताँबे की खानें थीं, हमने ही पैट्रिस लुमूम्बा की हत्या की थी, हमने ही
कटांगा और कांगो के अफ्रीकी कबीलों को सभ्य बनाने के नाम पर बर्बर यातनाएँ दीं।
उनकी बस्तियाँ जलाकर, उन्हे जंगलों और आदिम घाटियों की अंधी
गुफाओं में ढकेल दिया। उन्हें गुलाम बना कर यूरोप के बाजार में बेचा। हमने उन्हे
अपने यहाँ गुलामों से बदतर हालत में रखा......”
दूसरा
तूफान कुछ
थमा तो गाड़ी छोड़कर हम मेन हाल की तरफ चल पड़े। मुख्य दरवाजा उढ़का (ढका) हुआ था। बंद
नहीं था।
‘यहीं हमने शपथ ली थी’, माइक ने कहा।
‘किस बात की’?
‘कि हम अपने
इतिहास से क्षमा मांगते हैं और
शपथ लेते हैं कि ज़ाम्बिया जाकर हम उस पीढ़ी के लिए घर बनाएँगे, उनके खेतों में बीज बोएँगे, उनकी सड़कें ठीक करेंगे
और उन्हे अंधेरी घाटियों से वापस लाकर खुली बस्तियों में बसाएँगे.......उन्ही
बस्तियों में, जहां उनके पूर्वजों को हमारे पूर्वजों
ने मारा था, यातनाएँ दी थी और वहाँ से खदेड़ दिया था।
यही शपथ हमने ली थी’, माइक कह रहा था।
कमलेश्वर |
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