(पिछले सप्ताह आपने पढ़ा फ्रेंच बनाम इंगलिश । इस सप्ताह पढ़िये इंगलिश बनाम हिन्दी।
आज
जो हाल हमारी भारतीय भाषाओं का हो रहा है, किसी समय
वही हाल अँग्रेजी का भी था। जिस प्रकार हमारी भारतीय भाषाओं और संस्कृति पर
अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य संस्कृति का दब-दबा और रोब है किसी समय अँग्रेजी पर
फ्रेंच भाषा और संस्कृति का दब-दबा था। कालांतर में वहीं के निवासियों, विद्वानों, साहित्यकारों और देश भक्तों ने उस
परिस्थिति को पलट दिया और फिर से अँग्रेजी को अँग्रेजी का सम्मान प्रदान कराया।
देखना यह है कि क्या हम भी अंग्रेजी को उखाड़ फेंकने में कामयाब होंगे? २०१४ में स्व.गिरिराज किशोर का
एक लेख एक हिन्दी पत्रिका में छापा था।
प्रस्तुत दूसरा उद्धरण उसी लेख से लिया गया है।)
पंजाब में
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व पुरुष वर्ग की भाषा प्राय: उर्दू थी, जबकि महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा हिन्दी में होती थी,
इसलिए कहा जाता है कि पुरुष वर्ग को हिन्दी केवल इसलिए पढ़नी पड़ती थी कि वे अपनी
पत्नियों, माताओं और बहनों के साथ पत्राचार कर सकें, इसलिए पंजाब में हिन्दी परंपरा को जीवित रखने का श्रेय वहाँ की महिलाओं
को दिया जाता है।
खैर, इन सारी स्थितियों होते हुए भी राष्ट्रभाषा-प्रेमी अंग्रेजों ने हिम्मत
नहीं हारी, वे स्वीकार करते थे कि फ्रेंच, लैटिन और ग्रीक की तुलना में अँग्रेजी भाषा और साहित्य नगण्य है, तुच्छ है। फिर भी अंतत: वह उनकी अपनी भाषा है, यदि
दूसरों की माताएँ अधिक सुंदर और सम्पन्न हों, तो क्या हम
अपनी माँ को केवल इसलिए ठुकरा देंगे कि वह उनकी तुलना में असुंदर और अकिंचन है!
कुछ ऐसी ही शब्दावली में अँग्रेजी के कट्टर समर्थक रिचर्ड मुल्कास्टर ने १५८२ में
लिखा –
आइ
लव रोम, बट लंदन बेटर
आइ
फ़ेवर इटैलिक, बट इंग्लैंड मोर,
आइ
ऑनर लैटिन, बट आइ वर्षिप द इंगलिश।
इसका
प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि एक ओर तो रिचर्ड कैर्यू जैसे विद्वान ने १५९५ में
अँग्रेजी भाषा की उच्चता पर लेख लिख कर उसका जोरदार समर्थन किया तो दूसरी ओर सर
फिलिप सिडनी जैसे विद्वान ने घोषित किया –
‘यदि भाषा का लक्ष्य अपने हृदय और मस्तिष्क की कोमल भावनाओं को सुंदर एवं
मधुर शब्दावली में व्यक्त करना है, तो निश्चय ही अँग्रेजी
भाषा भी इस लक्ष्य की पूर्ति की दृष्टि से
उतनी ही सक्षम है, जितनी की विश्व की अन्य भाषाएँ हैं’।
‘यदि अँग्रेजी भाषा
की प्रतिष्ठा के इतिहास से हिन्दी की तुलना करें, तो दोनों
में अनेक समानताएँ दृष्टिगोचर होंगी –
१। यद्यपि
दोनों ही अपने-अपने देशों की अत्यंत बहुप्रचलित भाषाएँ थीं, फिर भी विदेशी भाषा-भाषी लोगों के प्रशासन काल में दोनों का ही पराभव
होना आरंभ हुआ और वे शीघ्र ही अपने गौरवपूर्ण पद से वंचित हो गईं तथा इनका स्थान
शासक वर्ग की विदेशी भाषा ने ले लिया।
२। शासक
वर्ग की विदेशी भाषा को अपनाने में उच्च
वर्ग के धनिकों, सामंतों एवं शिक्षितों ने बड़ी तत्परता का परिचय दिया।
३। विदेशी
भाषा के प्रभाव से दोनों ही देशों (इंग्लैंड और भारत) के लोग इतने अभिभूत हो गए कि
वे स्वदेशी भाषा को अत्यंत हेय एवं उपेक्षा योग्य मानते हुए उनमें बात करना भी
अपनी शान के खिलाफ समझने लगे।
४। विदेशी
शासकों के प्रति विद्रोह की भावना एवं
स्वभाव के प्रति अनुराग की प्रेरणा से ही अँग्रेजी और हिन्दी के पुन: अभ्युथान की प्रक्रिया
आरंभ हुई।
५। दोनों
ही देशों में पार्लियामेंट द्वारा स्वदेशी भाषाओं को मान्यता मिल जाने के बाद भी
उनका प्रयोग बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ा।
(आज हमारे
अंदर राष्ट्रीयता की भावना का अभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर है। देश विरोधी हरकतों को
देख खून तो खौलता ही नहीं बल्कि बहुत राजनेता और जनता उनके समर्थन में भी खड़े दिखते
हैं। ऐसे समर्थनों के कारण देश विरोधी ताकतों का मनोबल बढ़ता है तो दूसरी तरफ देश
के प्रति उदासीनता बढ़ती है। अँग्रेजी का यह इतिहास विश्व की एक अकेली घटना नहीं
है। हिब्रू भाषा का भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ था। २०० वर्षों तक लोप होने के कगार पर
पहुँचने के बाद भी देशवासियों की राष्ट्रियता के कारण उनकी भाषा-संस्कृति फिर से
खड़ी हो गई।
आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से
बांटना चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं।
हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको कैसा लगा और क्यों, नीचे दिये गये ‘एक टिप्पणी भेजें’ पर क्लिक करके। आप अँग्रेजी में
भी लिख सकते हैं।
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया👌
एक टिप्पणी भेजें