शुक्रवार, 21 मई 2021

संकल्प गाथा

(इस  उद्धरण के लेखक हैं चंडीदत्त शुक्ल। आज से ८ वर्ष पूर्व यह लेख हिन्दी पत्रिका अहा! ज़िंदगी में प्रकाशित हुई थी। यदि हीन  भावना से ग्रस्त व्यक्ति को प्रोत्साहन दिया जाए तो वह बेहतर परिणाम दे सकता है। इसके विपरीत नकारात्मक, आलोचनात्म्क, तुलनात्मक दृष्टिकोण हीन भावना को जन्म देता है और उसे हतोत्सित करता है।)

गया का गहलौर गाँव। हर दिन प्यास बुझाने, रसोई के खातिर, कपड़े-बर्तन धोने के लिए पानी  लाने फागुनी देवी कई किलोमीटर दूर जातीं। रास्ता भी आसान नहीं। पहाड़ चढ़ कर पार उतरना पड़ता। फिर लंबी दूर का सफर। तब कहीं पानी मिलता। एक दिन पहाड़ लांघते हुए फिसल गई। जान तो बच गई लेकिन घड़ा टूटा और 

डाक टिकट विभाग जारी टिकट 

चोट भी आई। १९६० की बात है ये। फागुनी के पति  दशरथ को बहुत गुस्सा आया। थरथर काँपने लगा। दुख और नाराजगी से बोझिल होकर एकबारगी चिल्ला पड़े दशरथ मांझी। फिर तो ठान ली – पहाड़ का माथा झुकाकर मानेंगे। अकेला इंसान। हाथ में छेनी-हथौड़ी। पहाड़ की छाती चीर देना आसान काम तो है नहीं। पर दशरथ जूटे रहे। रात-दिन। बाईस साल बाद एक लम्हा आया। लोगों ने देखा, दशरथ ने २७ फीट ऊंचा पहाड़ काट डाला। ३६५ फीट लंबा और ३० फीट चौड़ा रास्ता बना दिया। ८० किलोमीटर की दूरी ३ किलोमीटर में सिमट गई। अब दशरथ की दृड़ता, हौसले, जज्बे और संकल्प की कहानी पर मशहूर निर्देशक केतन मेहता फिल्म बना रहे हैं। खैर, दशरथ का नाम मुश्किलों के अंधेरे के खिलाफ, संघर्ष के उजाले की जीती-जागती मिसाल है। पचास साल पुरानी हो गई यह कहानी कितनी ताजा लगती है न। मानवीय प्रेम के उछाह से भरपूर। एक इंसान के हौसले के, उसकी जिद के जादू से लबालब संकल्प-गाथा।   

 

असंभव लगने वाला लक्ष्य हासिल करने का जज्बा ही है – इच्छा और उसके लिए कमर कसकर जुट जाने का प्रण – संकल्प। जोश से हिम्मत मिली। जुनून से राह और फिर संकल्प मजबूत रहा। डगमगाया नहीं, तो मंजिल मिल गई। फिर तो शब्दकोश से असंभव शब्द मिट गया, हमेशा के लिए। कोई राह इतनी लंबी नहीं होती कि तय न की जा सके। कोई सागर इतना गहरा नहीं होता कि  इंसान पार न कर पाए। दृड़ता न हो तो एक खड्डे के आगे भी कोई घुटने टेक देगा। मन में, विचार में मजबूती हो तो मृत्यु पर भी विजय मिल जाती है।  

 

राम के पास कौन था? कुछ वनवासी साथी। बंदर -भालुओं की सेना। वनवास का बोझ। पत्नी से बिछुड़ने की पीड़ा, पर राम क्या थके, कभी रुके? नहीं, उन्होंने व्यूह रचना की। योजना बनाई और रावण से भिड़ गए। संकल्प था कि खल-कामी-दुष्ट लंकापति की प्रभुता नष्ट करनी है, तो जुट गए। मुश्किलें आईं पर आखिरकार जीते। और न सिर्फ जीते, ज़ोर-शोर से जीते। सावित्री-सत्यवान की कथा क्या है?  सती स्त्री के मन का संकल्प ही तो कि कैसे भी, पति के प्राण मृत्यु के हाथों से छीन लेने हैं। वह डगमगाई नहीं और सुहाग बचा लिया। 

 

हर बार संकल्प पूरे हों, यह बिलकुल जरूरी नहीं, क्योंकि जज्बा तब तक लोहा भर है, जब तक मन में दृड़ता का बसेरा न हो। दृड़ता आए तो यही इंसान इस्पात बन जाता है। ऐसा न होने तक द्वंद्व किसी खलनायक की तरह इच्छा को पहले संकल्प नहीं बनने देता और फिर नकारात्मक सोच के सहारे उसे भटकाने में लगा रहता है। द्वंद्व, यानि यह विचार – जो मैं करना चाहता हूँ, वह पूरा होगा या नहीं। हो भी गया तो हाथ क्या आयेगा..... आदि-इत्यादि। हाँ, एक बार कुछ पा लेने का विचार मन में गहरे बैठ गया और इस हद तक मजबूत हो गया कि उसके सिवा कुछ और दिखे ही नहीं तो फिर उस संकल्प का पूर्ण होना आदि सत्य हो जाता है। दृड़ इच्छाशक्ति और उसके लिए जरूरी मेहनत – इनका संयोग ही अपराजेय बनाता है, अमिताभ बनाता है

 

आधे बदन पर धोती का एक टुकड़ा लपेटे आत्मबल और वैचारिक मजबूती से अगर गांधी ब्रिटिश साम्राज्य का कभी न अस्त होने वाला सूर्य ढक सकते हैं, विजय अभियान पर निकला नेपोलियन बोनापार्ट दुर्जेय आलप्स पर्वत को लांघ सकता है, दशरथ मांझी पहाड़ का सीना चीर सकता है तो आप क्यों नहीं, हर चुनौती लांघ सकते है। आखिरकार जीवन का अर्थ यही है – कभी न झुकना कभी न थमना।

(संकल्प शक्ति एक ऐसी शक्ति है जिसे अगर आप मजबूत कर लेते हैं तो दुनिया में कोई ऐसा काम नहीं जिसे पूरा न कर सकें। निरंतर अभ्यास और नए-नए प्रयोग द्वारा अपनी कार्य कुशलता बढ़ाकर वचनबद्धता को प्राप्त कर सकते हैं। देखा जाए तो अधिक से अधिक कर्म करना ही संकल्प बढ़ाने का असली रहस्य है।)

 

आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से बाँटना चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं। हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।

                 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको कैसा लगा और क्यों, नीचे दिये गये एक टिप्पणी भेजें पर क्लिक करके। आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।


कोई टिप्पणी नहीं: