(बड़प्पन बड़े होने में नहीं, साधारण होने में है। ‘बड़प्पन’ में प्रदर्शन की दुर्गंध है जब की ‘साधारण’ में समर्पण की सुगंध। यह अंश, वंदना जी की लिखी कहानी से लीया गया है। बहुधा अफसर साधारण रहना चाहते है लेकिन उनके अर्दली अपना बड़प्पन दिखने के चक्कर में अफसर को ‘खास’ बना देते हैं। )
करूँ क्या, मेरे भाग्य में ही ईंट है। जन्म तो किसी खाते-पीते घर में
ही लिया, पर सारा जीवन खाने-पीने से बढ़कर कुछ न पा सका।
बहुत चाहा, जीवन में कुछ बन जाऊँ, आकाश
का तारा न सही, झाड़ी का जुगनू बनकर ही चमक सकूँ, पर भाग्य में हो तब न! किसी ने ठीक ही कहा है: भाग्य ही से भाग्य होता
प्राप्त है’, भाग्य ही मुझको मिला फूटा हुआ।
शहर में आकर लीडर बनने की कोशिश की। बहुत-से लीडरों की दुम बनकर फिरा, लेकिन जूतों के तलवे तो घिसे पर लाभ कुछ न हुआ। लीडरों का सामान ढोया इस
आशा से कि "कबहूं तो दीन दयालु के भनक परेगी कान,"
लेकिन मैं वह उक्ति भूल गया था:
थोड़े ही गुन रीझती बिसराई वह
बानी।
तुमहू कान्ह मानो
भाए आजकल के दानी॥
अब वह जमाना चला गया
जब हरि पण्डित नेहरू की सेवा-टहल करके बड़ा आदमी बन गया था। हमारे शहर में स्काउट
दल शुरू हुआ। सुन्दर रोबदार वर्दी, सीटी देखकर ही मन आकर्षित हुआ। जिधर से निकल जाओ उधर ही लोगों का जमघट हो
जाये। सीटी बजा दो तो चलते लोग रुक जायें। मैंने सोचा "चलो, यह अच्छी बात है। मैं भी स्काउट बनूँगा और तब सारे शहर की आँखें मुझ पर
केंद्रित हो सकेंगी।"
लेकिन उसी भाग्य ने अड़ंगा लगाया। मैं भर्ती
होने गया तो मुझे बताया गया कि मेरी आयु ज्यादा हो चुकी है। न पूछिये मेरा क्या
हाल हुआ उस समय अधिकारी मेरी रुंआसी शकल देखकर समझ गये। उन्होंने कहा: "आपकी बहुत इच्छा हो तो स्काउट मास्टर बन जाइये,
हमें जरूरत भी है।" चलिये, डूबते को
तिनके का सहारा। इसके लिये प्रशिक्षण लेना ही होगा। छ: महीने एक पुलिस के सार्जेंट
से प्रमाण-आदेश और प्रमाण-संगीत आदि सीखना होगा, फिर परीक्षा
होगी और न जाने क्या-क्या होगा।
खैर, मैंने स्वीकार कर लिया, प्रशिक्षण के लिये रोज सबेरे
परेड मैदान में हाजिर होना पड़ता था। गरमी हो या सरदी, मैंने
कभी देर नहीं की। जीवन में चमकना मेरा उद्देश्य था और उसके लिये मैं सब कुछ करने को तैयार था। खैर, यह तो ठीक है, पर क्षमता भी तो कोई चीज है। छः महीने
के बाद मेरी परीक्षा ली गयी और परीक्षक ने मेरे नाम के आगे लिख दिया, "नेतृत्व की क्षमता नहीं है, अपने-आप चमकने की
हवस में दूसरों को अवसर ही नहीं देता। परिश्रमी तो है
पर बहुत ज्यादा खुदगर्ज़। परीक्षण के तौर पर कुछ दिनों के लिये काम देकर देखा जा
सकता है।"
खैर, मैंने हिम्मत न हारी। कुछ दिनों के
लिये परीक्षा ही सही। मुझे एक अनुभवी स्काउट मास्टर के नीचे काम करने के लिये भेज
दिया गया। उसने तीसरे दिन ही कह दिया: "मियां, तुम काम-वाम तो कुछ करते नहीं, हमेशा दूर की हाँकते
रहते हो। बड़ा बनना है तो पहले बड़ों के पैरों की धूल बनो।”
मैंने गाँठ बाँध ली। हमारे
शहर में कलक्टर साहब की सबसे ज्यादा पूछ थी। मैं अपनी वर्दी डालकर उनके घर जा पहुँचा
और लगा उनके घर आने-जानेवालों का नियंत्रण करने। थोड़ी देर तो सब कुछ ठीक चला। मेरे
इशारे पर बड़े लोगों की मोटरों को रुकना पड़ता था, साहब से मिलने के लिये मेरे आदेश की सबको प्रतीक्षा रहती
थी। लेकिन हाय बदकिस्मती ! मेरा प्रशिक्षक सार्जेंट यहाँ आ पहुँचा। मुझे देखते ही
उबल पड़ा : "तुम इधर काहे आया ? स्काउट
ड्रेस पहनकर लोगों को ठगना माँगता ?" करीब था कि वह
मुझे अर्द्धचन्द्र देकर रास्ते पर फेंक दे कि साहब बाहर निकल आये। उन्होंने
सार्जेंट से पूछा: “मामला क्या है ?" उसके उत्तर से मुझे मालूम हुआ कि साहब के बंगले पर पहरा देने की व्यवस्था
उसके हाथ में है और असली की गैरहाजिरी में मैंने उसका पद हड़प लिया था और लोगों ने
मुझे वर्दी के कारण पहरेदार समझ लिया और जब कुछ समय बाद असली संतरी वापस आया तो वह
मुझे देखकर डर गया। उसने समझा उसकी चोरी पकड़ी गयी और सार्जेंट ने ही उसे दण्ड देने
के लिये मुझे यहाँ खड़ा कर दिया है। इसलिये वह माफी मांगने के लिये दौड़ा-दौड़ा
सार्जेंट के घर पहुँचा और तब यह सारा भेद खुला।
यह सब तो मेरे लिये भी एक
कहानी से कम न था। सार्जेंट मुझे पकड़कर हवालात में ले जाना चाहता था पर न जाने
क्यों साहब को मेरा चेहरा देखकर हँसी आ गयी। मेरा साहस बढ़ गया, मैंने बढ़कर उनके कदम पकड़ लिये।
साहब अंदर चले और मुझे भी इशारे से अपने साथ बुला लिया। अंदर जाकर मैंने क्या देखा
? कैसे कहूँ, बस यही समझो कि हमारी
कल्पनाओं का स्वर्ग धरती पर आ गया था। मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं हूँ, पर अपनी नानी-अम्मा से इतिहास, पुराण, भागवत वगैरह की बहुत-सी कथाएँ और नाना से अंग्रेज अफसरों की शान-शौकत की
बहुत-सी कहानियाँ, अलिफ लैला की दास्तानें सुन चुका हूँ। मैं
यही सोचा करता था कि एक दिन आयेगा जब मेरे घर में यह सब साज सामान होगा, .......
.... “अच्छा तुम्हें कल से
आठ दिन के लिए रखता हूँ।... अगर तुम्हारा
काम अच्छा हुआ तो रख लिया जाएगा।....” , साहब ने फरमाया।
... मैं साहब के घर की ओर
चला। चौक की घड़ी में आठ की तैयारी थी, मैं सकपका गया। आठ बजे तो साहब रंगजी के मंदिर में
जानेवाले थे, मुझे तो देर हो गयी! मैं दौड़ा मंदिर की ओर। हाँफता-हाँफता
वहाँ जा पहुँचा। अभी साहब नहीं आये थे। मंदिर में आरती की तैयारी हो रही थी। मैंने
अवसर का फायदा उठाया। अपनी सीटी बजाकर मैंने जोर से आदेश दिया “खबरदार ! साहब के आने से पहले कोई मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता, निकलो सब लोग बाहर !"
कोई विशेष असर न होते
देखकर मैंने अपना परिचय दिया: "मैं साहब कलक्टर बहादुर का विशेष अरदली हूँ और
उनके आने की व्यवस्था करने के लिये भेजा गया हूँ। जो मेरी बात न सुनेगा उसे हथकड़ी
लगा दी जायेगी।" जनता में थोड़ी घुस-पुस शुरू हुई। मैंने डंडा दिखाया तो
दस-पांच आदमी खिसककर मंदिर से बाहर हो गये। मैंने कहा: “ठीक है, सब-के-सब
फूल और नैवेद्य लेकर बाहर पंक्ति लगा दो। सबसे पहले साहब अंदर आयेंगे, उनके बाद तुम लोग अंदर जा सकते हो।"
मैं अभी पंक्ति ठीक कर ही
रहा था कि साहब की मोटर आ गयी। मैंने सोचा अपना पराक्रम दिखाने का अच्छा अवसर है।
झट एक आदमी को जो पंक्ति में खड़ा न रह सकने के कारण बैठ गया था, ठोकर लगाते हुए कहा: "सुना नहीं?
खड़े हो जाओ सीधी तरह, साहब आ रहे हैं।” मैंने
सोचा था मेरी फुरती देखकर साहब खुश होंगे परंतु ऐसा लगा कि उन्होंने इस ओर देखा ही
नहीं। वे अधमुंदी आँखों, हाथों में धूप-दीप लिये पंक्ति के
अंत में आकर खड़े हो गये। मुझे काँटों तो खून नहीं, फिर भी
हिम्मत करके बड़प्पन का आखिरी दाँव डाला। लेकिन पासा उल्टा पड़ा। मैंने साहब के
सामने जाकर जोर से सलाम किया और कहा: “सरकार आगे आएँ,
मैंने रास्ता कर रखा है।"
लेकिन यह क्या! साहब ने
असंतोष दिखाते हुए मुँह पर उंगली रखी और धीरे से बोले, “बदतमीजी न करो
! भगवान् के घर सब बराबर हैं, मैं पंक्ति में
ही ठीक हूँ।” मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया। मैंने समझ लिया कि यहाँ मेरी दाल न
गलेगी और इससे पहले कि साहब को मेरी सारी करतूत का पता लगे मैं नौ-दो-ग्यारह हो
गया। बड़प्पन के खण्डहरों को भी ढहते देख मेरी आँखों झड़ी लग गयी।
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