(जिन्दगी हर एक को नये मौके, नये मोड़, नयी दिशा, नयी राह दिखाती है। कोई पहचान लेता है, छलांग लगा देता है और दृड़ता से उसे पकड़े रहता है। जिसने पहचाना, छलांग लगाई और उस राह को पकड़े रहा उसका जीवन बदल गया। नहीं तो जीते तो सब हैं जब तक मर नहीं जाते। लगभाग चालीस दशक पहले लिखा तारकेश्वरी सिन्हा का एक संस्मरण उन्हीं की कलम से।)
बहुत साल
बीत गये। पर एक लपट जिसने जीवन को प्रज्वलित किया था, उसका अहसास और याद, दोनों जीवित है।
मैट्रिक का
इम्तिहान देकर मैं जुलाई के अंत में कॉलेज के पहले वर्ष में कुछ दिन पहले दाखिल
हुई थी। यूं तो मेरा लालन-पालन बड़ौदा के कन्या विद्यालय के उन्मुक्त प्रांगण में
हुआ जहाँ एक लड़की को हमेशा दल के साथ रहना चाहिये, इसका रत्ती
भर भी आभास नहीं हुआ था। फिर भी हमारे सामाजिक वातावरण में,
जीवन का एक ही ध्येय महत्वपूर्ण समझा जाता था कि शादी होगी,
ससुराल जाऊँगी, ढेर से गहने-कपड़े पहनूँगी, वगैरह-वगैरह।
बंबई के
ग्वालिया टैंक में ९ अगस्त १९४२ को अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी ने गांधी जी के
नेतृत्व में ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो’ का जो
प्रस्ताव पारित किया था उसका खास प्रभाव पटना गर्ल्स कॉलेज में नहीं हुआ था। इसलिए
१० तारीख की सुबह एक साधारण सुबह की तरह आई। हम सब कॉलेज गये पढ़ाई करने के इरादे
से। उस समय ख्वाब में भी यह खयाल नहीं था कि जीवन में कोई भूचाल आने वाला है। पहला
पीरियड खत्म हो गया था और दूसरे पीरियड में हमारी प्रोफेसर क्लास ले रही थीं।
तब-तक कम्पाउण्ड के बाहर से नारों की आवाज कानों में पड़ी, ‘बहनों, हमारा साथ दो’। हमें
उत्सुकता हुई कि कॉलेज के बाहर आखिर क्या हो रहा है? हमने
छुट्टी मांगी और प्रोफेसर से कहा कि बरामदे के बाहर खड़े होने की इजाजत दें। हम सब
बरामदे में जाकर खड़े हो गये, देखा कि नौजवानों का एक बहुत
बड़ा जुलूस हमारे गेट के सामने खड़ा होकर नारा लगा रहा है, ‘बहनों हमारा साथ दो’। सच पूछिये तो किसी भी लड़की का
इरादा जुलूस में भाग लेने का नहीं था, दिलचस्पी भी नहीं थी।
तब तक
चीख-पुकार की आवाज सुनाई पड़ने लगी। ऐसा लगा कि सामने बहुत खलबली मच गई है। कुछ
लड़कियां तो दुबक कर क्लास में चली गयीं और दो-चार जिसमें मैं भी थी, पेड़ों के झुरमुट में छिप कर नजदीक से जानने की कोशिश करने लगीं कि आखिर
हो क्या रहा है। देखा, बहुत से लड़कों का सिर फूटा हुआ था, और खून बेतहाशा बह रहा था। घुड़सवार पुलिस इधर-उधर दौड़ रही थी। घुड़सवारों
को हुक्म हुआ था कि वे नौजवानों को रौंद दें। सैकड़ों नौजवान खून में लथपथ सड़क पर
पड़े हुए थे। ऐसा लगा शहर में बिजली कौंध गई। शायद वह एक ऐसा लमहा था जिसने सारे
अहसासों और भावनाओं को बदल डाला था। उसी पल एक दूसरी तारकेश्वरी सिन्हा का जन्म
हुआ। मैंने झुरमुट में खड़ी अपनी साथियों से कहा, ‘दोस्तों, इस ज्यादती को देखने के बाद हमारी एक ही
ज़िम्मेदारी रह जाती है कि हम इन भाइयों का साथ दें। चलो, इन
भाइयों के साथ जुलूस में भाग लें’। और इसी क्षण से
साम्राज्यवाद की जंजीर से इस देश को छुड़ाने की कसम खा कर जुलूस में साथ हो
लिये।
जुलूस में
बहुत से छोटे-छोटे बच्चे भी थे। जुलूस सचिवालय की ओर जा रहा था। हमारे साथ स्कूल
की नवीं कक्षा का एक बंगाली बालक भी था जो राष्ट्रीय झण्डा फहराते हुए जुलूस के
साथ ही सचिवालय की ओर जा रहा था। जुलूस जैसे ही सचिवालय के करीब पहुंचा, सचिवालय पर राष्ट्रीय झण्डा
फहराने की बात तय हुई। बिल्डिंग के ऊपर राष्ट्रीय झण्डा गाड़ना था। वह बच्चा तब तक
न जाने कहाँ गायब हो गया था। इधर-उधर देखा, कहीं नजर नहीं
आया। इतने में सचिवालय के ऊपर जहाँ यूनियन जैक फहरा रहा था,
देखा, वह छोटा बच्चा यूनियन जैक को उतार चुका था और उसकी जगह
पर उसने अपना छोटा-सा राष्ट्रीय झण्डा गाड़ दिया, जो हवा में बुलंदी
से फहर रहा था। आज भी कानों में अंग्रेज़ डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट की आवाज गूँज रही
है। उस बच्चे की तरफ इशारा कर के उसने कहा था, ‘जो राष्ट्रीय झण्डा उसने लगाया था हटा ले, नहीं तो
गोली से उड़ा दिया जायेगा’। उस बच्चे का उत्तर भी याद है। उस अंग्रेज़
अफसर को उसने फटकार कर कहा था, ‘एस.पी.साहब, यह झण्डा नहीं उतरेगा। आपको गोली चलाने में असुविधा न हो इसलिये कमीज की बटन
खोल देता हूँ’। आज भी उसका वह कमीज की बटन खोलना याद है। हर
पल, एक-दो-तीन की आवाज भी कानों में गूँज उठती है। पुलिस एस.
पी. ने कहा था उस बच्चे से कि, ‘नादान
बच्चे, चेतावनी देता हूँ कि यदि एक-दो-तीन की आवाज पर झण्डा
नहीं उतारोगे, तो तुम्हारे ऊपर गोली चलेगी’ और देखा था कि हमेशा-हमेशा के लिये वह बच्चा वहीं सो गया था।
जिंदगी का
वह क्षण मेरी जिंदगी में आया था जिसने मेरी जिंदगी के पोर-पोर को बदल डाला और आज
ऐसा लगता है कि सारी जिंदगी के हिसाब में वही चंद दिन हमने जिंदगी की तरह महसूस
किये हैं। उतने खूबसूरत दिन फिर नहीं लौटे, वैसी खूबसूरत रातें
नहीं लौटीं। जो हमारे बीच से उन दिनों अलग हो कर शहीदों की टोली में शामिल हो गये उनके बारे में जब कभी
सोचती हूँ तो जोश का यह शेर याद आ जाता है :
गुंचे तेरी जिंदगी पै दिल
हिलता है,
बस, सिर्फ एक तबस्सुम के लिये खिलता है।
गुंचे ने हँस
के कहा, ऐ, बाबा!
ये
एक तबस्सुम भी किसे मिलता है?
आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से बाँटना
चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं। हम उसे
यहाँ प्रकाशित करेंगे।
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