शुक्रवार, 25 मार्च 2022

ऐसा भी एक समय था

मैंने पढ़ा

(धर्मवीर भारती हिन्दी के जानेमाने  लेखक, कवि, नाटककार हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में हैं गुनाहों का देवता, अंधायुग, कनुप्रिया, सूरज का सातवाँ घोड़ा आदि। काऊ बेल्ट की उपकथा के शीर्षक से, दशकों पहले  लिखा उनका लेख देश की हिन्दी पट्टी की सामाजिक सौहार्द और धार्मिक सहिष्णुता की कहानी कहता है। प्रस्तुत अंश उसी लेख से है। यह विचारणीय है कि हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं.......)     

हिंदी प्रदेश से हजारों मील दूर, थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक। इतने दिनों से देश के बाहर चक्कर काट रहा हूँ कि देश की ऋतुओं और तिथियों का कोई अंदाज ही नहीं रहा। हवाई अड्डे से होटल बहुत दूर है और होटल पहुँचने के पहले ही बीच में रुककर एक मेले में जाना है। मेला काहे का? कुश्ती का। मैं हक्का-बक्का हूँ कि यह कैसा होगा और कुश्ती से मेरा क्या ताल्लुक? तीन ओर मकानों से घिरे एक खुशनुमा मैदान में हजारों भारतीयों की भीड़। बीच-बीच में छह सात अखाड़े खुदे हुए हैं। पहलवान अपनी मंडलियों के साथ 'बजरंगबली की जय' बोलते चले जा रहे हैं। मेजबान मुझको आश्चर्य चकित देखकर मुस्कुराते हैं और फिर आहिस्ते से समझाते है, 'आप बंबई में रहते हैं न, भूल गए होंगे कि आज नागपंचमी है। हम लोग सौ साल से यहाँ हैं, पर अपने त्यौहार नहीं भूले। नागपंचमी को हम लोगों ने युवा दिवस बना लिया है। उसी तरह अखाड़े खुदते हैं, जैसे यू.पी., बिहार में।  आज की कुश्ती के चैंपियन को पुरस्कार आपके हाथ से दिलाएंगे।' नागपंचमी की पुरस्कार विजेता थी, लछमन अखाड़े की युवा जोड़ी - इसाक गफूर और राघव मिसरा।

          ये थे 'काऊ बेल्ट'1 से जाकर बैंकॉक में बसे हुए प्रवासी भारतीय इनमें साधारण दरवान और चौकीदारों से लेकर लखपति, करोड़पति लोग थे। मालूम हुआ कि बैंकॉक का सारा लकड़ी का व्यापार, इमारती सामान की तिजारत, मकान बनाने का उद्योग, मशीनों और फ़ैक्टरियों को संचालित करने का उद्यम, कपड़े की आढ़तें सब भारतीयों के हाथ में हैं और इन सभी भारतीयों में नब्बे प्रतिशत यू.पी., बिहार के लोग हैं, पिछड़ी हुई हिंदी पट्टी के। अशिक्षाग्रस्त काऊ बेल्ट के।

शाम को डिनर रखा गया था, अब्दुल रज्जाक साहब के घर पर। वे बैंकॉक में इमारती लकड़ी के सबसे बड़े व्यापारी हैं, थाईलैंड के मिनिस्टरों और सेनापतियों के हम प्याला, हम निवाला। हज कमेटी के सर्वेसर्वा, मलेशिया और थाईलैंड के इस्लामिक कल्चर फेडरेशन के चेयरमैन, पर आज भी दिल उनका यू.पी. में रमा हुआ है। यू.पी. से कोई मेहमान आए, पहली शाम का डिनर उन्हीं के यहाँ होना जरूरी है। पता नहीं कैसे, उन्हें मालूम हो गया था कि मैं आया बंबई से हूँ, पर हूँ मूलत: यू.पी. का।

रज्जाक साहब तपाक से गले मिले। बैंकॉक के भारतीयों की समस्याएं बतलाते रहे। भारत का हालचाल पूछते रहे। फिर बोले, 'खाना मेज पर लगा है। पर दो मिनट ठहर जाइए। मेरा एक दोस्त आपसे मिलने आया है खासतौर से। हाथ-मुँह धोने गया है।' कौन है यह दोस्त?

दो तीन मिनट बाद बाथरूम  का दरवाजा खुला और उसमें से जो लंबे से अधेड़ साहब निकले, उनका हुलिया साक्षात 'काऊ बेल्टी' था। धोती का फेंटा कसते हुए भीगे जनेऊ से पानी सूंघते हुए, लंबी चोटी को फटकारते हुए उन्होंने नम्रता से नमस्कार किया। मालूम हुआ ये हैं रामभरोसे पंडित। बैंकॉक के हिंदू सेवादल के अध्यक्ष, भारत प्रवासी ट्रस्ट के प्रमुख ट्रस्टी, विश्व हिंदू परिषद के स्थानीय महामंत्री। शिखा बांधकर, बदन पर एक फतूही डालकर जब वे खाने की मेज पर बैठे तो पता चला कि रज्जाक और रामभरोसे की जिगरी दोस्ती पूरे देश में मशहूर है। आंधी हो, पानी हो, हफ्ते में कम से कम दो दिन, दोनों साथ डिनर लेते हैं, कभी रज्जाक साहब के यहाँ, कभी रामभरोसे पंडित के यहाँ।

रज्जाक साहब प्रेम से रामभरोसे की टांग खिचाई कर रहे थे- 'साहब यह हिंदू सभा का नेता है, पर महीनों तक जनेऊ नहीं बदलता। बार-बार मुझे याद दिलानी पड़ती है। परले सिरे का कंजूस है।' रामभरोसे कहाँ पीछे रहने वाले, बोले- 'साहब, इसकी बातों में न आइएगा। इसका कोई दीन-ईमान है। मस्जिद के मकतबे में जंगली लकड़ी का शहतीर लगवा रहा था। मैं आकर बिगड़ा तो इसने साख की लकड़ी लगवाई। अरे धरम के काम में तो मुनाफा न कमा।'

बहरहाल, खाना शुरू होता है तो यह भेद खुलता है कि हफ्ते में दोनों दो बार साथ खाना खाते हैं, वह इसलिए कि अपनी-अपनी संस्थाओं की समस्याओं के बारे में एक-दूसरे की सलाह  जरूरी होती है। रज्जाक साहब हिसाब-किताब, कानून-आईन में पक्के हैं और रामभरोसे पंडित को संस्था संचालन... लोकप्रियता के हथकंडे और तिकड़में खूब आती हैं। रामभरोसे के हिंदू सेवा दल वगैरह का हिसाब-किताब रज्जाक साहब के जांचे बिना पूरा नहीं होता और रज्जाक साहब की संस्थाओं में कोई झगड़ा झंझट उठ खड़ा होता है तो रामभरोसे की सूझबूझ काम में आती है। पिछले साल हज जाने वाले यात्रियों का मलायी और चीनी कुलियों से कुछ झंझट हो गया और मामला जरा तूल पकड़ने लगा। रज्जाक साहब ने संदेशा भेजा। रामभरोसे दौड़े हुए आए और डांट-फटकार, मान-मनुहार कर आधे घंटे में मामला रफा-दफा कर दिया। एक बार बैंकॉक के कलेक्टर ने जमीन का कोई पुराना कानून लागूकर नागपंचमी के मेले पर बंदिश लगा दी और पिछले दस साल का हर्जाना लाखों में मांग लिया। रज्जाक साहब पहुँच गए दो वकीलों को लेकर कानून पर बहस की, हर्जाने की रकम कम कराई और नागपंचमी के मेले की लिखित अनुमति लेकर डेढ़ घंटे में पहुँच गए। अखाड़े चालू करवा दिए।

ये किस्से सुनकर जब मैंने रज्जाक साहब से कहा कि 'खूब है आप लोगों की दोस्ती! तो रामभरोसे बोले, 'काहे की दोस्ती डॉक्टर भारती साहेब, असल में हम आजमगढ़ के हैं, इही सारू आजमगढ़ का है। एक माई का दुइ बेटवा समझी। ई बात जुदा है कि हम लायक बेटवा हैं, ई जरा नालायक निकल गया। मुला धन दौलत एही कमाता है। बात ई है कि लक्षमी मैया तो उल्लुऐ पर बैठती है न...' और रज्जाक साहब का एक घूंसा रामभरोसे की पीठ पर पड़ा, 'अबे देवी-देवताओं की तो इज्जत रख, हंसी-मजाक में उन्हें भी घसीटता है। जाने इसे हिंदू सभा का सेक्रेटरी किसने बना दिया?'

अपने-अपने धर्म पर अखंड आस्था दूसरे धर्म के प्रति गहरा निश्छल आदर और जात-पात संप्रदाय से ऊपर उठकर पूरी भारतीय जाति को अपना समझने वाले ये रज़्ज़ाक़ और रामभरोसे के चेहरे मेरे जेहन में गहरे दर्ज हैं, क्योंकि हिंदी पट्टी का, हम हिंदी भाषियों का यही असली चेहरा है।

आज जब मुरादाबाद, मेरठ, इलाहाबाद या बिहार में कहीं भी सांप्रदायिक तनाव की खबर पढ़ता हूँ, तो बड़ी शिद्दत से याद आते हैं ये दोनों चेहरे उदास होकर सोचता हूँ कि कहाँ खोता जा रहा है हमारा असली चेहरा? ये नफरत के मुखौटे किसने लगा दिए हैं हमारे चेहरों पर? किसने हमारे होठों पर चिपका दिए हैं, ये ललकार भरे नारे? नहीं दोस्तों, यह जहर हमारी हिंदी पट्टी का नहीं, यह तो कोई साजिश कर रहा है, चुपचाप। हमारा तो असली चेहरा वही है जिसका मजहब कोई हो, जिसका असली धर्म प्यार है, निश्छल प्यार, उदारता, दिली भाईचारा

धर्मवीर भारती  अहा ! जिंदगी | सितम्बर 2017

'काऊ बेल्ट'1 हिन्दी भाषी प्रदेश, मतलब राजनीतिक भाषा में हिंदी पट्टी, अंग्रेजी परस्त अफसरों और पत्रकारों की भाषा में 'काऊ बेल्ट' मतलब अशिक्षा, पिछड़ेपन, जातिवादी और संप्रदायवादी कट्टरता में निमग्न अंधकार भरी पट्टी - देश की प्रगति और आधुनिकीकरण में सबसे बड़ा अवरोध; उपहास, उपेक्षा और अवमानना का पात्र!

(काऊ बेल्ट शब्द का प्रयोग अंग्रेज़ एवं अग्रेज़ परस्त लोग हिन्दी भाषा क्षेत्र के लिए करते थे जो एक प्रकार का अपमानसूचक शब्द था, एक प्रकार की सभ्य गाली।

नफरत करना और फैलाना बहुत आसान है असली भारतीय हों तो इसे रोकें, रोक न सकें तो कम-से-कम इसे फैलाने में सहयोग न करें और भाईचारा और सौहार्द का माहौल बनाने का प्रयत्न करें – संपादक)

**************

आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है जिसे आप दूसरों से बांटना चाहते हैं तो हमें भेजें। हम उसे यहाँ, आपके संदर्भ के साथ  प्रस्तुत करेंगे।

~~~~~~~~~~~~

अगर हमारे पोस्ट आपको पसंद आ रहे हैं, तो सबस्क्राइब करें, अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको कैसा लगा और क्यों? आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।

यू ट्यूब का संपर्क सूत्र -->

https://youtu.be/bFXPrxyEuTY


कोई टिप्पणी नहीं: